Saturday, June 28, 2014

सपने में भी भेड़ प्‍यासी हैं


बचपन हमारे मन के सबसे अंदर वाले कमरे में रखे संदूक जैसा होता है। बड़े होना उस पर एक ताला लगा देने जैसा है। कई बार हम ताला खोलकर उसमें झांक लेते हैं तो कई बार चाभी को कहीं रखकर भूल जाते हैं। बड़े होते हैं और बुढ़ाते हुए मर भी जाते हैं। संदूक भी यूं ही बंद का बंद हमारे साथ चला जाता है। मुझे ये संदूक बहुत प्रिय है। मैंने इस पर कभी ताला नहीं लगाया। मैं इसमें खूब झांकती हूं। आज दोपहर वाली झपकी भी इस संदूक को छूकर गुज़री और सपने में मैं पहुंची मेरठ में अपने उस घर में जो अब हमारा नहीं है।
मैं दरअसल घर में नहीं पहुंची बल्कि घर के बाहर हूं। भेड़ ही भेड़ और बकरियां मेरा रास्‍ता रोक रही हैं। मैं हॉर्न बजाकर उन्‍हें हटाने की कोशिश करती हूं। वे हटती नहीं। आखिर मैं घर के पीछे वाले मैदान में पहुंचती हूं। मैदान एक नदी बन जाता है। जिसमें पानी की जगह भेड़ और बकरियां भरी हैं। वे मुझे रास्‍ता नहीं देतीं। मेरी आंख खुल जाती है। शदीद प्‍यास मुझे अपने होठों से लेकर गले तक महसूस होती है। काफी देर मैं यूं ही पड़ी रहती हूं। मुझे समझ आता है कि वे सारी भेड़ बकरियां प्‍यासी थीं। काफी देर तक मैं पानी नहीं पीती। ये मेरी कोशिश होती है उनकी प्‍यास में शरीक होने की।
ये सारी भेड़ बकरियां जो आज सपने में आईं, दरअसल मेरे बचपन का सच थीं। हमारे घर से कुछ दूर आर्मी का बूचड़खाना था और वहां काटे जाने के लिए अक्‍सर ट्रकों में भरकर भेड़ बकरियां लाई जाती थीं। ये ट्रक हमारे घर के पीछे वाले उस बड़े मैदान में अनलोड हुआ करते थे जो मेरठ कॉलेज की जमीन थी। ये वही मैदान है जहां किसान नेता महेंद्र सिंह टिकैत ने अपनी पहली ऐतिहासिक रैली की थी। लेकिन ये सब बाद की बाते हैं। मैं बता रही थी कि कैसे वहां ट्रक भर कर आया करते थे। अक्‍सर गर्मियों की रात को जब ये ट्रक अनलोड होते थे भेड़ो के चिल्‍लाने की आवाजें हमारे घर तक आतीं। कुछ भेड़ें बहुत बूढी तो कुछ गर्भवती तक होती थीं। कई बार बहुत छोटे मेमनों के साथ भी हम उन्‍हें देखा करते थे।
मुझे याद है कि जब जब ट्रक अनलोड होते हमारी मां की टेंशन बढ़ जाती। मैं मेरा भाई और मां हम सब मिलकर उन्‍हें पानी पिलाया करते थे। मां कहतीं...बेचारियां न जाने कब से भूखी प्‍यासी होंगी। जाने कब आखिरी बार पानी नसीब हुआ होगा। मरने से पहले कम से कम पानी तो पी लें। हमारे घर में उन दिनों हैंड पंप हुआ करता था। मैं और मेरा भाई नल चलाकर बारी बारी से बाल्‍टी भरते और मां जाकर उन्‍हें पिलाकर आतीं। ये सिलसिला बुरी तरह थक जाने तक चलता। मां दुआ मांगतीं...अल्‍लाह जल्‍दी से इस इलाके में पानी की लाइन बिछवा दे मैं कम से कम इन्‍हें पेटभर पानी तो पिला सकूं।
फिर...बचपन चला गया। हम उस घर से बहुत दूर आ गए। मैदान अब भी वहीं है। बूचड़ख़ाना भी!  भेड़ बकरियां शायद अब भी वहां आती हों। उस इलाके में अब पाइप लाइन भी आ गई हैं। लेकिन क्‍या उनकी प्‍यास को अब भी वहां कोई महसूस कर रहा होगा....। पता नहीं। मुझे लगता है आज ज़रूर वहां भेड़ प्‍यासी होंगी..... प्‍यास तो शाश्‍वत है ! उन्‍हें पानी कौन देता होगा पता नहीं..पर .मां अब सड़क पर घूमने वाली गायों को पानी पिलाया करती हैं।

4 comments:

वाणी गीत said...

मार्मिक !

सुशील कुमार जोशी said...

माँ जानती है माँ का दर्द ।

मीनाक्षी said...

आपके बचपन की घटना मर्म को गहरे तक छू गई..ब्लॉग बुलेटिन की बदौलत यहाँ आना मुमकिन हुआ..आज यहाँ पहला रोज़ा है और बाहर खाना तो दूर पीना भी ग़ैरकानूनी है इसलिए मूक जीवों की तरह प्यास महसूस किया.. रमादान करीम

Anamikaghatak said...

Marmsparshi rachana