Tuesday, December 30, 2008

हमारी याद आएगी




वो अंधेरा कितना गहरा है........इस अंधेरे सा ही... या इससे कुछ कम....पता नहीं पर ये गीत तो हर अंधेरे में इसी तरह बजता है न....ये बिजली राख कर जाएगी....तेरे प्‍यार की दुनिया........गीत है या कोरी बद-द़ुआ...मीलों-मील.......बरसों से एक ही सुर में बिना किसी फेर-बदल के बरसती सी बद-दुआ....। नहीं....शायद यूं कहना चाहिए कि हर बार सुनने पर और ज्‍यादा दिल से निकलती सी....और ज्‍यादा नाकाम और ज्‍यादा उदास आवाज़...और जितनी बार सुनो उतनी ही बार आंख को नमी देती हुई धुन...।

बर्फ़ से ज्‍़यादा ठंडी रात के पहर बीत जाने पर जब धुंध जमने लगे तो भी इस आवाज की तल्‍ख़ी ज़रा सी सर्द नहीं पड़ती...जैसे दिल में कोई अलाव जलाकर ताप रहा है.........जैसे उस अलाव में अपना सबकुछ झोंक दिया गया हो.....जैसे खाली हाथ एक इंसान, अपनी आखि़री पूंजी भी लुटा देने के बाद आग के जलते रहने तक जी सकने की ताकत को संजो रहा हो.........जैसे इस गीत को सुन लेने तक की ही मोहलत हो उसके पास.. आग के बुझ जाने से पहले इस आवाज का उन कानों तक पहुंच जाने का एक इंतजार सा भी तो दिखता है कभी, जिनके लिए ये कहा जा रहा हो कि............न फिर तू जी सकेगा और न तुझको मौत आएगी....।

कभी तन्‍हाईयों में यूं हमारी याद आएगी...........गीत बहुत छोटा सा है........बजता है और महसूस करते ही ख़त्‍म होने लगता है। लेकिन मुझे तो लगता है कि ये जब ख़त्‍म होता है दरअसल शुरुआत वहीं से होती है.... एक बार सुनने के बाद देर तक गूंजता है कानों में। रास्‍ता ख़त्‍म हो जाता है, रात भी लेकिन गीत ख़त्‍म नहीं होता। करवट-दर-करवट.....सांस-दर-सांस...बजता जाता है। गहरी होती हुई मुबारक बेगम की आवाज़ समझाने लगती है, सवाल मत उठाओ कि क्‍यों दुआ बद-दुआ बन गई......ये भी मत पूछो कि ये अंधेरा भूल जाने का है या भुला दिए जाने.......न ही इस इसमें उलझो कि जिसके लिए दुनिया वार देने की बात की जा सकती है उसी की दुनिया को ख़ाक कर देने का ख़याल कैसे आ सकता है....बस इस पुकार को सुनो और हो सके तो महसूस करो इस आवाज़ के उस दर्द को जिसमें बद-दुआ दरअसल एक ऐसा ख़याल है जो हर बार ज़बान से निकलकर वापस उसी तक आ रहा है, खुद उसे ही ख़ाक कर देने के लिए।


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-वैसे कितनी ग़लत बात है, सारी दुनिया जब नए साल के स्‍वागत में मगन हैं तो हम यहां मनहूसियत फै़ला रहे हैं, माफ़ कीजिएगा ' दरअसल मुबारक बेगम शहर में थीं और उनका आना इस गीत को ताज़ा कर गया, लगातार सुन ही रही हूं।

Thursday, October 30, 2008

शहादत....

आज बस ये दो लाइनें पढ़ लें-


जा अपने ख़ून दे इल्‍ज़ाम तों तैनूं बरी कीता..
शहादत देन वाले दा कोई क़ा‍तल नहीं हुंदा ।
                      कविंदर चांद

Wednesday, October 22, 2008

ज़मीर को जगाने के लिए कौन सी धारा को संशोधित किया जा सकेगा....

(लिवइन रिलेशनशिप पर इमरोज़)
गुलज़ार की बात से शुरू करूं तो यह कहना क्या ग़लत है कि सिर्फ़ अहसास है ये रूह से महसूस करो...। यह भी कहा जा सकता हे कि सिर्फ़ महसूस करने से तो पेट नहीं भर जाता, लेकिन मैं तो अपना उदाहरण देकर ही बता सकता हूं कि अहसास सबसे बड़ी चीज़ है और अगर आपमें ईमानदारी और निष्ठा है तो फिर उस आदर्श जीवन की कल्पना आराम से की जा सकती है जिसमें किसी क़ानून की ज़रूरत हो ही नहीं। सारी बात अपने ज़मीर को जगाए रखने की है जिसमें मेरे ख़याल से क़ानून तो कोई मदद कर नहीं सकता।

ये कहना है इमरोज़ का। लिव इन पर चल रही चर्चा के तहत उनसे लंबी बातचीत हुई अखबार के लिए। थोड़ी सी फेर बदल के साथ यहां पेश है। लेख लंबा है, थोड़े धैर्य की ज़रूरत तो होगी ही-


हमारे दोस्त बताते हैं कि कुछ मुल्‍कों में ऐसा कानून है कि दो लोग दो साल या इससे ज्‍़यादा वक्‍़त तक एक साथ रह रहे हैं तो उनके बीच मियां-बीवी का रिश्ता मान लिया जाता है। अब मुंबई में इसके लिए क़ानून की धारा में संशोधन की बात चल रही है तो मैं एक ही बात सोच रहा 9हूं कि क्या रिश्तों को जोड़ने और तोड़ने के लिए किसी क़ानून की ज़रूरत होनी चाहिए....क्या इंसान के अंदर की ईमानदारी और कमिटमेंट निबाह लेने के लिए काफ़ी नहीं हैं...? लिव-इन हो या पक्के मंत्र पढ़कर बनाया गया साथ रहने का इंतज़ाम, दोनों में ही ’ज्‍़यादा ज़रूरी तो ईमानदारी ही है। अगर ईमानदारी और जिम्मेदारी व्यक्ति में है ही नहीं तो उसे पैदा करने के लिए किस धारा में संशोधन किया जा सकेगा...? ज़मीर को जगाने के लिए कौन का क़ानून बनाया जाएगा...।

मुझे लिव इन में एक अच्छी बात तो यही दिखती है कि कोई एक दूसरे का मालिक नहीं होता। एक साथ रहने का फै़सला इसलिए नहीं लिया गया होता कि वे किसी बंधन में हैं। इसके उलट विधिवत शादी में पहले दिन से पुरुष, स्त्री का स्वामी बन गया होता है। हैरान कर देने वाली बात यह भी है कि आज तक इस बात पर किसी ने एतराज़ भी नहीं जताया। किसी औरत ने पलटकर यह नहीं कहा कि यह शब्द हटाओ। मैं किसी की मिल्कियत नहीं हूं। मेरा कोई स्वामी नहीं है, हां साथी हो सकता है।

यह शादी है क्या....? तो दिखता है कि यह पूरी तरह एक क़ानून और व्यवस्था है, जिसके तहत दो अजनबियों को एकसाथ रहने की इजाज़त मिल जाती है। उनसे उम्मीद की जाती है शादी की पहली ही रात एक ऐसा संबंध बना लेने की जो एक और अजनबी को पैदा करके उनकी जिंदगी में अजनबियत का जंगल खड़ा कर दे। ऐसा ही होता भी है। तो इनके बीच में रिश्ता नहीं कानून रहता है। व्यवस्था रहती है और उस व्यवस्था को अक्सर निभाया ही जाता है, जिया नहीं जाता। इस बात से इत्तेफ़ाक़ न रखने वाले लोग काफ़ी हो सकते हैं लेकिन ध्यान से देखें तो सच यही दिखेगा। एक औरत और मर्द के बीच पहले रिश्ता हो और बाद में साथ रहने की व्यवस्था....क्या ऐसा होता है हमारे समाज में। रिश्ता जोड़ने के नाम पर ज्‍़यादा से ज्‍़यादा हम एक दूसरे को देखने जाते हैं शादी से पहले। परिवारों के बीच परिचय होता है, एक दूसरे की संपत्ति की पहचान करते हैं और इस बात तो मापते हैं कि इस तरह जुड़ने में कितने फ़ायदे और नुकसान हैं । शादी हो जाती है। बहुत हुआ तो इस बीच लड़के-लड़की को मिलने की इजाज़त मिल जाती है, जहां वे पूरी तरह से नकली होकर एक दूसरे को इम्प्रेस करने की कोशिश करते रहते हैं। इसका नतीजा क्या होता है....एक झूठ को आप सच समझने की भूल करते हैं और बाद में जब सच सामने आता है तो सब सपने टूटते लगते हैं। जब ऐसा ज्‍़यादातर मामलों में हो ही रहा है तो क्या अर्थ है उस व्यवस्था का जिसे शादी कहते हैं।

जिस का़नून की हम बात कर रहे हैं अगर वह बनता भी है तो उससे इतनी मदद होगी कि पुरुष, स्त्री को छोड़कर भागने से पहले एक बार सोचेगा ज़रूर, और अगर चला भी गया तो कम से कम पीछे छूट गई औरत उस सामाजिक प्रताड़ना से बच जाएगी जिससे वह अब गुज़रती है। लेकिन इसके बावजूद सवाल वहीं है कि जो आदमी किसी को छोड़कर भागता है क्‍या वह रिश्‍तों में ईमानदार था....अगर नहीं तो ऐसे आदमी की पत्नी कहलाने में किसे गौरव महसूस करना है। हां इसके आर्थिक पहलू ज़रूर मायने रखते हैं।

इस संदर्भ में एक बात और कही जा सकती है कि गै़र जि़म्मेदार और बेईमान आदमी चाहे लिव इन रिलेशनशिप में हो या शादी की व्यवस्था में...उसका कुछ नहीं किया जा सकता। सामर्थ्‍य पुरुष को अराजक बनाती है और वे चाहे छुपकर इस तरह के संबंध बनाएं या खुलकर उन्हें बहुत ज्‍़यादा फ़र्क़ नहीं पड़ता। मुंबई की ही बात लें तो दिखता नहीं है क्या कि किस तरह सक्षम लोग एक से ज्‍़यादा संबंध जीवन भर आराम से चलाते रहते हैं। उन्हें कभी न तो प्रताडि़त किया जाता है और न ही उन्हें किसी क़ानून की ज़रूरत होती है। क्योंकि ये सामर्थ्‍यवान हैं तो अपनी जिंदगी में आई औरत के लिए आर्थिक व्यवस्था कर देना इनके लिए मुश्किल नहीं होता।

यानी इस क़ानून की ज़रूरत मध्यम वर्ग के लिए ही हुई न। यही मध्यम वर्ग तो शादी को सात जनम का बंधन मानकर चलता है और अब लिव इन के नए खा़के में फि़ट होकर जिंदगी के अर्थ ढूंढना चाहता है। लेकिन अहम सवाल अब भी बाक़ी है अगर का़नून लिव इन को पति-पत्नी के दर्जे की स्वीकृति दे भी दे तो क्या इससे लोगों के अंदर ईमानदारी और जि़म्‍मेदारी पैदा हो जाएगी...? याद रख लेने की बात है कि एक ऐसी व्यवस्था का़नून ज़रूर दे सकता है जो साथ रहने को वैध कर दे लेकिन ऐसे जज्‍़बात तो अपने अंदर ही पैदा करने होंगे जो इस साथ को रिश्ते का नाम दे सकें। मैं तो यह भी कहता हूं कि ईमानदार सिर्फ़ साथ रहने में नहीं एक दूसरे का साथ छोड़ने में भी होनी चाहिए। अगर आप रिश्तों को निबाह पाने में असमर्थ हैं तो बेईमानी करने से बेहतर है कि साफ़ कह दिया जाए। लेकिन देखने में यही आता है कि लोग बरसों बरस उन रिश्तों को ओढ़ते-बिछाते रहते हैं जो दरअसल रिश्ते रह ही नहीं गए होते।

Sunday, October 19, 2008

एक सिगरेट देना कामरेड...


अंधेरे से डर लगता है....। अर्थ की गहराई समझ आने पर डर भी गहरा होता जाता है। ईमरे नॉज को जेल में बंद कर दिया गया। उसका चश्‍मा और पेन बाहर ही क़ब्‍जे़ में ले लिए गए थे। वो अकेला है, बहुत ऊंची छत के ऊपर वाले रोशनदान को भी बंद कर दिया गया...रोशनी अंदर न जाए...हवा अंदर न जाए...।  क़ब्‍ज़ा हो चुका है। वहां उतनी ही हवा है जितनी पहले से थी। बार-बार फे़फ़ड़ों तक जाएगी और वापस आएगी। लेकिन ईमरे को चश्‍मे के बिना दिखता नहीं....वो अंधेरे में है...उसे सांस नही आती... मैं भी अंधेरे में हूं, मुझे भी सांस नहीं आती। इनहेल करती हूं।
द मैन अनबरिड...127 मिनट की फि़ल्‍म शुरू होने के कुछ देर बाद ही मुझे घुटन होती है....बुरा लगता है। सांस लेना जब अपने हाथ में न हो तो कितनी बेबसी लग सकती है...फि़ल्‍म पर ध्‍यान देती हूं।

शुरू में ही एक सीन में आवाज़ आती है...एक सिगरेट देना कामरेड...एक दूसरे के मुंह पर धुंआ उड़ा सकने और अपने अंदर से घुटन को बाहर लाकर पटक सकने का विजयी भाव याद आता है जो अक्‍सर सिगरेट पीने वालों के चेहरे पर देखती हूं। ईमरे के पास सिगरेट नहीं है, खाना भी नहीं है, ज़हरीले मच्‍छर और सीलन भरी एक कोठरी का अकेलापन है। लेकिन उसकी सांस बहुत भारी है...जैसे चश्‍मा न होना उसकी सांस को बाधित कर रहा है, उसे भी रोशनी से ही सांस मिलती है मेरी तरह....एक और बार इनहेल करती हूं। 

फि़ल्‍म फ़लैशबैक में है....ब्‍लैक एंड व्‍हाइट...। यहां भी अंधेरा प्रॉब्लम है...फिर घुटन। ईमरे को चश्‍मा वापस मिल जाता है, कामरेड को रहम आ गया था, अब वह उस कोठरी को देख पा रहा है अच्‍छी तरह।  एक क़ाग़ज और पेन मांग रहा है...लिखने के लिए...न लिख पाना भी घुटन देता है, कोई सुनता नहीं उसकी बात...मोटी लोहे की दीवारें...मैं उसकी जगह जाकर खड़ी हो जाती हूं...मेरी आवाज़ सुन रहा है क्‍या कोई....उसके हाथ दीवारों पर पटकते रहने से लहुलुहान हो गए हैं...अपने हाथ देखती हूं..;साफ़ हैं कहीं कुछ नहीं लगा..;बस अंधेरा बढ़ रहा है...एक और बार इनहेलर लूं क्‍या...।

क्राइम अगेंस्‍ट स्‍टेट....ट्रायल शुरू हो गया....एक अकेली आवाज़ कितनी ही ताक़तवर हो, दबा दी जाती है झुंड के द्वारा। दोष साबित कर दिया जाता है। ईमरे अपने डॉक्‍टर से पूछता है मैं कैसे मरूंगा...वो बताता है-तुम्‍हें तकलीफ़ नहीं होगी....ज़रा सी देर का काम है। ईमरे अपने घरवालों के नाम पत्र देता है...अक्‍सर आत्‍मत्‍या से पहले ऐसा ही करते हैं सब....। क्‍यों करते हैं..सवाल मेरा ध्‍यान हटा देता है एक पल के लिए....खु़द ही जवाब भी देती हूं-जो बातें जीते जी नहीं सुनी जातीं शायद उन्‍हें ज़ोर से सुनाना ही है ख़त लिखना। फिर से फि़ल्‍म देखती हूं....फांसी का सीन....घुटन ज्‍़यादा होती है, कई चीजें़ याद आती हैं। सद़दाम हुसैन की कवरेज, फांसी से पहले और बाद के फोटो...लटकती हुई गर्दन...मुझे सांस लेना भारी हो रहा है, लगातार इनहेल करती हूं...।

ईमरे को शांति से फांसी दी जा रही है..मुंह पर काला कपड़ा डालने से पहले उसका चश्‍मा उतार लिया गया...उसकी घुटन का अंदाजा लगाना चाहती हूं....क्‍या चश्‍मा लगाए हुए ही फांसी नहीं दी जा सकती...? उसके हाथों में चश्‍मा है....मानों वो रोशनी को हाथ में रखना चाह रहा है..देर नहीं लगती फंदा खिंचने में..;चश्‍मा हाथ से गिर जाता है, दूसरे में हाथ में पकडी़ हुई वह थैलिया भी जिसमें उसके अपने घर की मिट़टी थी... ईमरे मरना नहीं चाहता था....हम भी कहां मरना चाहते हैं...।

क्‍या ईमरे को मरने से पहले एक सिगरेट नहीं दी जा सकती थी....घुटन कुछ कम हो जाती....मेरा मन बहुत घुट रहा है...एक सिगरेट मिलेगी क्‍या....? नहीं ऐसे ही कहा-पी नहीं सकती, सांस की दिक्‍़क़त है न...। कामरेड दुनिया में इतनी घुटन क्‍यों है कि सिगरेट की ज़रूरत महसूस होने लगे....कुछ करो...यार .?

Wednesday, September 24, 2008

एक पल की मौत.....


रोशनदान पर टुक-टुक करती चिडि़या अपनी जगह थी, नीम के पेड़ की कत्‍थई होती पत्तियां भी। कैम्‍पस के सबसे मोटे तने वाला पेड़ अपनी जगह से ज़रा भी नहीं हिला। यहां तक कि लोहे की बैंच भी अपनी जगह पर कायम रही। फ़ज़ल ताबिश का शेर और सिगरेट का ढेर सारा धुआं लौट-लौट कर कमरे पर दस्‍तक देता रहा....अंदर एक पल मर चुका था।

कौन रोता है एक पल की मौत पर...................।

Tuesday, September 23, 2008

मुझे याद रखना है......

मुझे जो याद रखना है उसमें नेरूदा भी हैं। हमेशा याद रखते हुए भी आज उन्‍हें  फिर से  याद करने का दिन है.....

चलिए  नेरूदा को याद करें इन दो कविताओं से गुज़रते हुए.........


पाब्‍लो नेरूदा 12 जुलाई 1904 से 23 सितंबर 1973

याद
सबकुछ मुझे याद रखना है,
घास की पत्तियों का पता रखना है और अस्‍त-व्‍यस्‍त
घटनाओं के सूत्रों का और
आवासों का, इंच-दर-इंच,
रेलगाडि़यों की लंबी पटरियों का,
और पीड़ा की शिकनों का।
अगर मैं गुलाब की एक भी झाड़ी ग़लत गिनूं
और रात और ख़रगोश के बीच फ़र्क़ न कर पाऊं,
या अगर एक पूरी की पूरी दीवार
मेरी याद में ढह जाए,
तो मुझे बनानी होंगी, फिर एक बार हवा,
भाप, प्रथ्‍वी, पत्तियां,
बाल और यहां तक ईंटें भी,
कांटे जो मुझे चुभे,
और भागने की रफ़तार ।
करुणा करो कवि पर।
भूलने में मैं हमेशा ही तेज़ रहा
और अपने उन हाथों में
अगोचर को ही पकड़ा,
परस्‍पर असंबंद़ध चीजें
चीजें जिन्‍हें छूना असंभव था,
जिनकी तुलना उनके
अस्तित्‍वहीनता के बाद ही संभव थी।
धुआं किसी खु़शबू की तरह रहा,
खु़शबू धुएं की तरह रही,
एक सोए हुए तन की त्‍वचा
जो मेरे चुम्‍बनों से जागा,
लेकिन मुझसे उस स्‍वप्‍न की तारीख़
या नाम मत पूछो जिसे मैंने देखा--
मेरे लिए वह रास्‍ता नाम लेना असंभव है
जिसका शायद कोई देश ही नहीं रहा,
या वह सत्‍य जो बदला,
या जिसे दिन ने शायद दबा दिया और उसे
अंधेरे में उड़ते जुगनू की तरह,
चकराती रोशनी में बदल दिया।
-मेमरी,  पाब्‍लो नेरूदा कविता संचयन,  अनुवाद चंद्रबली सिंह

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ताकि तुम मुझे सुन सको....

ताकि तुम मुझे सुन सको
मेरे शब्‍द
कभी-कभी इतने झीने हो जाते हैं
समुद्र तट पर बत्‍तख़ों के रास्‍ते सरीखे
कंठमाल, जैसे नशे में धुत्‍त एक घंटी
अंगूरों जैसे मुलायम तुम्‍हारे हाथों के लिए
और मैं बहुत दूर से अपने शब्‍दों को देखता हूं
मुझसे ज्‍़यादा वे तुम्‍हारे हैं
मेरी पुरातन यातना पर वे बेल की तरह चढ़ते जाते हैं
वह भीगी दीवारों पर भी इसी तरह चढ़ती है
इस क्रूर खेल का दोष तुम्‍हारा है
वे जा रहे हैं मेरी अंधेरी मांद छोड़कर
तुम हर चीज़ को भर रही हो, तुम हर चीज़ को भर रही हो
तुमसे पहले वे उस अकेलेपन में रहा करते थे जिसमें अब तुम हो
और उन्‍हें तुमसे ज्‍़यादा आदत है मेरी ख़ामोशी की
मैं चाहता हूं कि अब वे कहें जो मैं तुमसे कहना चाहता हूं
तुम्‍हें वह सुनाएं जैसे मैं चाहता हूं तुम मुझे सुनो
पीड़ा की हवा के थपेड़े अब भी उन पर पड़ते हैं सदा की तरह
कभी-कभी स्‍वप्‍नों के अंधड़ अब भी उन्‍हें उलटा देते हैं
मेरी दर्दभरी आवाज़ में तुम दूसरी आवाज़ें सुनती हो
पुरातन मुहों का रुदन, पुरातन यातनाओं का रक्‍त
मुझे प्रेम करो साथी, मुझे छोड़ो मत, मेरा पीछा करो
मेरा पीछा करो साथी, वेदना की इस लहर पर
लेकिन मेरे शब्‍दों पर तुम्‍हारे प्रेम के धब्‍बे लग जाते हैं
तुम हर चीज़ को भर रही हो, तुम हर चीज़ को भर रही हो
मैं उन्‍हें बदल रहा हूं एक अंतहीन हार में
तुम्‍हारे सफे़द, अंगूरों जैसे मुलायम हाथों के लिए
-बीस प्रेम कविताएं और उदासी का एक गीत से, अनुवाद अशोक पांडे का 

Friday, September 12, 2008

टेबल कैलेंडर पर चौमासा

बूंदें बाहर आकर भिगो तो नहीं डालेंगी.. और न ही सख़्त गर्मी की उमस आकर सांस को घोटना शुरू करेगी । गर्मी, जंगल, नदी और पहाड़ सब से बात की जा सकती है लेकिन इस ह्यूमिडिटी का क्या करूं, जो बारिश के बाद भी छंटती नहीं। और.. हवा कितनी भारी सी हो जाती है इन दिनों, मुझे हल्की हवा चाहिए, जो सांस में आराम से घुल जाए, मेहनत न करनी पड़े। आप कह सकते हैं कि कितनी फिजू़ल सोच है, हवा क्या ज़रूरत के मुताबिक़ हल्की और भारी की जा सकती है। सही है, सबकी तरह हवा की भी तो अपनी मर्जी है। तो ठीक है न, करे वो भी अपनी मर्जी़... पर ... इस टेबल कैलेंडर को तो मेरी मर्जी़ से ही चलना होगा। मैं इससे बिल्कुल नहीं डरती। महीना बदले और पन्ना भी बदलूं, ज़रूरी नहीं है। भूल भी सकती हूं। याद आने पर पिछले महीनों से माफ़ी भी क्यों मांगूं मैं....। जब तक वो मेरी बाईं टेबल पर पड़ा है, उसे मेरी मर्जी़ से ही चलना होगा। बाद में दिल करेगा, तो रद्दी में दबा दूंगी, न हुआ तो बालकनी से ऐसे उछालकर फेंक दूंगी कि दूर जाकर गिरेगा।

कैलेंडर की तारीख़ों पर लगे टिक हर बार ज़रूरी नहीं कि एक लंबी कहानी कहेंगे, उनके अंदर, ज़्यादा अंदर झांकने की ज़रूरत भी नहीं है। हो सकता है, जून की जिस तारीख़ पर आप टकटकी लगाकर कुछ डीकोड करना चाह रहे हैं, वहां धोबी को एडवांस दिए गए पैसों की ख़ुफि़या इबारत दर्ज हो। या फिर किसी ऐसे जन्मदिन की तारीख़, जिसे याद रखने का ज़रा सा भी मन नहीं था। अब ये साबित करने पर भी न तुल जाइए कि बेहद वाहियात किस्म की बातों को याद करके गोले लगाए गए हैं इस महीने की तारीख़ों के आगे। सोचने की ज़रूरत है कि इतनी गर्मी के बीच इस कैलेंडर पर टिकी हरियाली और पीला बसंत नकली होते हुए भी महीने भर अजीब सी राहत देता रहा है। कई बार नकली चीजे बड़ी राहत देती हैं, इसमें वाहियात क्या है....।

टेबल कैलेंडर कोई इंसान है क्या, जो बता देगा कि जुलाई में आप किन तारी़खों पर झगड़ते रहे और किन पर बिल्कुल शांत होकर अपना काम करते रहे। हां उसने देख लिया था आपके नथुनो को फूलते-पिचकते, कई बार गु़स्से में इतना जो़र से चिल्लाते कि बेचारा वो भी हिलकर रह गया, लेकिन तो भी वो ये सब बता तो नहीं सकता। एक नज़र डालते ही आपको याद आ गया न कि बारिश में छाता लिए इन बच्चों ने कितनी बार कहा था जाओ यार ऑफिस के बाहर निकलो, बारिश देखो, भीग लो ज़रा सा। नहीं माने न, अब तारीख़ों से बिल्कुल मत पूछिए उस कहानी को। कुछ नहीं मिलेगा वहां से। हां ख़ुद ही डूबते रहिए उस तारीख़ के गोले में, जब आपने घुटना-घुटना पानी में घर जाकर पकौड़े बनाए थे।

सावन और भादों का फ़र्क़ कम से कम इस कैलेंडर के जरिए समझने की ज़रूरत मुझे नहीं है। मेरा हिसाब अलग है। मैं अड़कर बैठी हूं कि चार महीने सिर्फ़ सावन होता है, जि़द पर अड़ा हुआ, अटका हुआ सावन। तारीखें झूठ न भी बोलें, तो भी मैं अपनी बात से नहीं हटने वाली। जन्माष्टमी और राखी को आना है, तो इसी सावन में आ जाएं। और भी अगर कोई आना चाहे, तो सावन अभी बाक़ी है। पर, तारीख पर लगा एक गोला जोर से चिल्लाकर मुझे महीनों पहले रची गई साजि़श का हिसाब क्यों गिनाता है। मैं दिन जोड़ती हूं, हां बिल्कुल ठीक निकलता है हिसाब। लेकिन इतने दिनों तक समझ क्यों नहीं आया, मेरा गणित शुरू से कमज़ोर रहा है, बड़ी शर्म की बात है। एक और गोला शर्मिंदगी का।

मुझसे कोई हिसाब नहीं दिया जाएगा। किसी धोबी, दूधवाले या काम वाली किसी का भी नहीं। पहले ही बता दिया था, गणित कमज़ोर है। इतिहास की बातें कर लेना, चाहो तो। सारी किताबें ज़बानी याद हैं। बिना गोले लगी तारीखों में भी ढूंढकर बता सकती हूं कि रजि़या ने किस दिन याक़ूत को हव्वा की नज़र से देखा था। उसके बाद की कहानी भी बिना किसी झोल के सुनाई जा सकती है। कोई ज़रूरी है क्या कि गोलों में क़ैद तारीखें ही सच बोलें। अगर ऐसा होता, तो इंडिया-पाकिस्तान के मैच के बाद देर रात पड़ोस के मियां-बीवी की ऐतिहासिक मारपीट वाली तारीख़ पर गोला न लग गया होता। या फिर उस रात की कहानी पर भी तो गोला लगाया ही जा सकता था, जब उसी मियां-बीवी को मैंने छत पर नाचते-गाते देखा था।

टेबल कैलेंडर पर बनाई तस्वीरें स्कूली बच्चों की हैं और तारीखों पर लगे गोले उन हाथों के, जिन्होंने कभी झूठ नहीं लिखा था।

Friday, August 29, 2008

बस इश्‍क़... मुहब्‍बत... अपनापन...

आंखों मे गुस्ताख़ी, प्यार कर लेने की। कुफ़्र सर लेने की। जिंदगी,  इश्क़ में बसर कर देने की। बसर करने से पहले ही अंधे कुएं में जिंदा  दफ़न होने पर भी प्यार से तौबा न करने की। इसी गुस्ताख़ी का नाम है अनाकरली। जिसने इश्क़ किया महलों की दीवारों को झकझोर कर, हिंदोस्तान के तख्त़ को हिलाकर और हारकर भी जीत गई महाबली अकबर से। इतिहास में इसका कोई जिक्र नहीं है। कहानी सुनी-सुनाई, फिल्मी पर्दे पर देखी-दिखाई हो सकती है लेकिन क्या करेंगे अनारकली के उस मक़बरे का जो सैकड़ों बरसों से एक ही रट लगाए है कि यहीं जिंदा दफ़न है अनाकरकली। गुस्ताख़ नज़रों वाली अनारकली, सैकड़ों बरस गुज़र जाने पर भी जिसका सिर्फ़ जिस्म ही खा़क हो सका। वो आंखें आज भी जिंदा हैं, हां नही दिख पाती हरेक को। उन्हें देखने के लिए दीदावर चाहिए जो बदकिस्मती से पैदा ही न हो सका। और अगर हुआ भी होगा तो न पहुंच सका उस जगह जहां दफ़न है एक कली अनार की, जो आखिरी सांस तक कहती रही- इसे मजा़र मत कहो, ये महल है प्यार का।

साहिबे आलम का इंतजार अनारकली को सदियों से है, लेकिन शहजा़दे की लाचारी फिर भी अपनी जगह कायम है। बेचारी अनारकली दीवार में चुनवा दी गई या एक अंधेरे कुएं में जिंदा दफ़न कर दी गई, रही तो कनीज़ ही। शहजा़दे की कि़स्मत में तवारीख़ का हिस्सा बनना तो लिखा था, अनारकली के तो वजूद को भी नकार दिया गया। भला हो उस इश्क़ का, जो किसी भी वजूद से बड़ा था, जिसने तवारीख़ में नहीं लेकिन लोगों के दिलों में अनारकली को जगह दी। अनारकली का जि़क्र दरअसल बात है उस इंतजा़र की जो धड़कता है लाहौर में अनारकली बाजार में बने मजा़र से लेकर हर उस दिल में जहां प्यार का बूटा उगता है। वही इंतजा़र जो अनारकली की गुस्ताख़ आंखों की सियाही को और काला कर गया होगा, मौत से बस एक पल पहले,  सांस घुटने तक ये इंतजा़र कायम रहा होगा और इसी इंतजा़र के पीछे रही होगी वो उम्मीद जिसमें शहजा़दा आकर उसे गले लगाने वाला था। सदियों के बावजूद अगर वो जि़क्र बाकी है, तो यकीनन बाकी होगा अनाकरकली का इंतजा़र भी।

इंतजा़र बहुत जानलेवा होता है, खा़सतौर पर उस वक्त़ जब सिर्फ एक फरीक़ इंतजा़र में हो और दूसरे को ये अहसास भी न हो कि उसे कहीं पहुंचना भी है। ऐसा ही इंतजा़र तो था अनारकली का।  ईंट-दर-ईंट जब उसे मिटाया जा रहा था तो शहजा़दा सलीम को कहां पता था कि उसे कहीं पहुंचना है.... कोई है !  जो उसके इंतजार में मिट जाने वाला है। कोई है,  जो हर गुज़रने वाले पल के साथ मौत के और ज़्यादा क़रीब होता जा रहा है। वजह चाहे जो रही हो लेकिन नतीजा तो यही था कि सलीम वहां नहीं पहुंच पाया।
अनारकली महज़ एक कि़स्सा नहीं है, एक कहानी नहीं है बल्कि एक जज़्बा है खुद को कुर्बान कर देने का। इसी जज़्बे को पिछले साठ बरस में अलग-अलग अंदाज में पर्दे पर उतारा गया। बीना राय, नूरजहां और मधुबाला और ईमान अली, सबने अनारकली के दर्द को पर्दे पर अलग-अलग अंदाज में बयां किया, लेकिन एक चीज हर जगह कॉमन थी और वो था अनारकली का इंतजार। इस इंतजार का प्रोजेक्शन सोचा-समझा नहीं था, बल्कि ये था इस कैरेक्टर का असली रंग। बीना राय ने कहा- जो दिल यहां न मिल सके, मिलेंगे उस जहान में, उसका इंतजार सात आसमान के पार तक का था। मधुबाला कहती रही- उनकी तमन्ना दिल में रहेगी, शम्मा इसी महफिल में रहेगी और मरते दम तक वो एक और इंतजा़र में मुब्तिला रही। अगर बात करें 2003 में शोएब मंसूर वाले सुप्रीम इश्क़ अलबम की, तो उसमें ईमान अली कहती हैं- साहिबे आलम कहां रुके हो, कली तुम्हारी मुरझा रही है.. यानी अलग-अलग वक्‍़त और लोगों ने जब अनारकली को अपने-अपने अंदाज़ में पेश किया, तो भी उसके कैरेक्टर में बसे दर्द और इंतजा़र को अलग नहीं कर पाए। यही कामयाबी है अनारकली के इश्क़ की और इसी वजह से हमेशा कायम रहेगा इश्क़, मोहब्बत अपनापन, बेशक दुनिया कहती रहे कि वो हकीकत नहीं एक फ़साना भर थी।

(यह पाकिस्‍तान के सबसे महंगे म्‍यूजिक वीडियो में से एक था. संगीत और निर्देशन शोएब मंसूर का है और आवाज़ वहां की मशहूर गायिका शबनम मजीद की. नीचे बोल भी दिए हैं. फ़ारसी हिज्‍जों या शब्‍दों में ग़लती हो सकती है, वह मुझे नहीं आती.)






इश्‍क़ रो हसरत परस्‍तो हर परी
असफ़रोजे अर्श ओ तख्तो सरी
शर हे इश्‍क गरमान बेगोये
सद के योमत...

ये, दू, से, चो


शहंशाह ए मन, महाराज ए मन
ना ही तख्‍त ना ही ताज ना
शाही नाज़र ना धन
बस इश्‍क़ मुहब्‍बत अपनापन

जरा फ़रामोश करदीके ऊ या कनीज़ाज़
वले कबीरो नाज के मलिका ए शरद मलिका ए हिंदुस्‍तान
क़सम बादौलते हिंदूज़ीन ई तुर ना खाद शाद
क़सम बी जमाल ए अनारकली ईन शनीन खाद शाद


मुग़ल ए आज़म जि़ल्‍ले इलाही
महाबली तेरी देख ली शाही
ज़ंजीरों से कहां रुके हैं
प्‍यार सफ़र में इश्‍क़ के राही
गातें फिरेंगे जोगी बन बन
इश्‍क़ मुहब्‍बत अपनापन

जि़ंदगी हाथों से जा रही है
शाम से पहले रात आ रही है
साहिब ए आलम कहां रुके हो
कली तुम्‍हारी मुरझा रही है
जाते जाते भी गा रही है
बस इश्‍क़ मुहब्‍बत अपनापन.

Monday, August 11, 2008

अपने-अपने इमरोज़




पहली पोस्ट पर अपने कमेंट में घुघूती जी ने लिखा था...हम सब अपने-अपने इमरोज़ को ढूँढ रही हैं। परन्तु क्या इतने इमरोज़ इस संसार ने पैदा किये हैं?....ऐसे ही सवाल निरुपमा में घर में भी उठे थे उस दिन। लंबी बातचीत के बीच कभी कोई कह उठती हमें इमरोज़ क्यों नहीं मिला.. तो किसी ने कहा- हमारे हिस्से का इमरोज़ कहां है....? कहां है वो शख्स जो अपनी पीठ पर एक गै़र नाम की इबारत को महसूस करते हुए भी पीठ नहीं दिखाता? एक हाथ से दी गई थाली को दो हाथों से स्वीकार करते हुए अपने चेहरे पर एक शिकन तक आने नहीं देता... कहां है वो प्रेम जो खु़द को मिटा देने की बात करता है.... कहां है वो इंसान जो किसी के चले जाने के बाद भी उसके साथ होने की बात करता है? हम सब ढूंढती हैं पर वो कहीं नहीं दिखता। शायद इसलिए कि ऐसे इमरोज़ को पाने से पहले अमृता हो जाना पड़ता है। दुनियादारी की चादर को इस तरह तह करके रखकर भूल जाना होता है कि उसकी याद तक न आए। उस चादर को बिना बरते जिंदगी गुज़ार सकने की हिम्मत पैदा कर लेनी होती है। हो सकता है, बहुत सारे अमृता और इमरोज एक ही वक़्त पर एक ही जगह इसलिए भी न दिख पाते हों कि उन्हें याद ही नहीं रहा है दुनियादारी और दुश्वारियों की चादर को कैसे तह करके रखा जाता है।

खै़र अपनी-अपनी चादरों की संभाल के बीच भी अपने-अपने इमरोज़ को ढूंढते रहा जा सकता है, क्योंकि ईश्वर अभी भी है कहीं...। मैंने उनसे इजाज़त ली और एक बार फिर ये नज़्म सुनाने को कहा-


साथ

उसने जिस्म छडया है, साथ नहीं
ओह हुण वी मिलदी है
कदे बदलां छांवे
कदे तारेयां दी छांवे
कदे किरणां दी रोशनी विच
कदे ख्यालां दे उजाले विच
असी रल के तुरदे रैंदे वां।

दुख-सुख, इक दूजे नूं वेख-वेख
कुझ कैंदे रैंदे आं
कुझ सुणदे रैंदे आं।
बगीचे विच सानूं
तुरदेयां वेख के
फुल्ल हर वार सानूं बुला लेंदे हण
असी फुल्लां दे घेरे विच बैठ के
फुल्लां नूं वी
अपणा-अपणा कलाम सुनादें आं।

ओ अपनी अनलिखी कविता सुनांदी है
ते मैं वी अपणी अनलिखी नज़म सुनांदा वा
कोल खड़ा वक्त
एह अनलिखी शायरी सुनदा-सुनदा
अपणा रोज दा
नेम भुल जांदा ए।
जदों वक्त नूं
वक्त याद आंदा ए
कदे शाम हो गई होंदी है
कदे रात उतर आई होंदी है
ते कदे दिन चढ़या आया होंदा है।

उसने जिस्‍म छडया है साथ नहीं...

- इमरोज़

Sunday, August 10, 2008

इस बार तू पहले ब्याह मत करना

पिछली पोस्‍ट से आगे

सच को दूर से देखो तो उस पर सहज ही विश्वास हो जाता है। सामने आकर खड़ा हो जाए तो उसे छूकर, परख लेने का जी होता है। शायद हम तसल्ली कर लेना चाहते हैं कि सच को छूना ऐसा होता है, उसे जान लेना ऐसा होता है। अमृता-इमरोज़ का प्रेम ऐसा सच है जो पूरा का पूरा उजागर है। कहीं कुछ छिपा हुआ नहीं दिखता... तो भी इमरोज़ को सामने पाकर इच्छा होती है जान लेने कि फलां बात कैसे शुरू हुई थी, फलां वक़्त क्या गुज़री थी उनपर। यही वजह थी दोपहर से लेकर शाम तक इमरोज अमृता की ही बातें करते रहे। ये सारी बातें वही थीं जो हम अब तक कई बार पढ़ चुके थे, सुन चुके थे।

इमरोज़ सुनाने लगे- उड़दे क़ाग़ज़ ते मैं उसनूं नज्मां लिखदा रहंदा हां, जदों वी कोई पंछी आके मेरे बनेरे ते आ बैठदा, मैं जवाब पढ़ लेंदा हां....। नज़्मों का अमृता तक जाना और उसके जवाब का आ जाना... ये बात शायद किसी के लिए एक ख़याल भर हो सकती है, लेकिन इमरोज़ के लिए उतना ही सच है, जितना उनके आंगन में खिले वो हरे बूटे जिन्हें पानी देते हुए वे अक्सर 'बरकते...' कहकर अमृता को पुकारा करते थे। उनमें से कुछ पौधों ने उन्हें साथ देखा ही होगा न, और उस बनेरे ने भी... जिस पर आकर पंछी बैठते हैं। मुझे लगा कि उन्हें साथ देखकर ही किसी दिन पंछी और बनेरे के बीच तय हुआ होगा इस संदेस के ले जाने और लाने का मामला।

इमरोज़ उस घर में रहते हैं जहां अमृता का परिवार है। जब मैंने पहली बार वो घर देखा तो ऊपरी तरफ़ कुछ विदेशी लड़कियां किराए पर रहती थीं। और नीचे की जगह में 'नागमणि' का दफ़्तर था। अब वहां क्या है...? इमरोज़ बताते हैं- अब नीचे भी किराए पर दे दी है जगह। अपनी जेब से इमरोज़ काग़ज़ का पैकेट सा निकालते हैं। पता चला वे चमड़े का बटुवा नहीं रखते। एक काग़ज के लिफ़ाफे़ में पैसे रखकर उस पर कुछ टेलीफोन नंबर लिखते हैं जिन्हें इमरजेंसी में कॉल किया जा सके। ये नंबर उनके हैं जो अमृता के बच्चे हैं। इमरोज़ और अमृता के नहीं। इतना साथ, इतना प्यार, इतना समर्पण, तो इन दोनों के बच्चे क्यों नहीं.....? इमरोज़ बताते हैं- अमृता तो पहले ही दो बच्चों की मां थी। हमने मिलकर तय किया था कि इनके अलावा हम और कुछ नहीं सोचेंगे। लेकिन क्या तय कर लेना भर काफ़ी था, अपनी इच्छाओं के आगे...? उन्होंने कहा- काफ़ी नहीं था पर हमने इसे मुमकिन कर लिया था। एक बार मैंने उसे कहा- अगली बार जब मिलेंगे, तो हम अपने बच्चे पैदा करेंगे... बस इस बार तू मुझसे पहले ही ब्याह मत कर लेना। अमृता ने जाते-जाते भी मुझसे यही कहा है न- मैं तैनूं फेर मिलांगीं...





इमरोज़ उस तस्वीर को देख रहे थे जिसमें अमृता उनके हाथ में खाने की थाली पकड़ा रही हैं। तस्वीर का सच उनके चेहरे पर उतर कर आ बैठा था। मानो कह रहा हो, कितने मूर्ख हो तुम सब, जो इस रिश्ते को परिभाषा में बांधने की बात करते हो। इस तस्वीर को देखो और दुनिया की किसी भी पतिव्रता के चेहरे से उसका मिलान कर लो, कहीं भी कोई भाव को उतार पाएगी क्या, जो अम्रता की आंखों में नजर आ रहा है। अमृता दाएं हाथ से थाली पकड़ा रही हैं और इमरोज़ दोनों हाथों से उसे स्वीकार कर रहे हैं। ये महज तस्वीर नहीं है, इसमें एक फ़लसफ़ा नज़र आ रहा है। किसी को खुद को सौंप देने का, किसी का उसे दोनों हाथों से स्वीकार कर लेने का, हमेशा-हमेशा के लिए। ग़ौर से देखेंगे, तो आप भी पाएंगे कि वहां रखे पतीले और चमचे से लेकर हर छोटी-बड़ी चीज़ बुलंद आवाज़ में बता रही है कि यहां किसी ऐसे सीमेंट की ज़रूरत नहीं है, जो इन दोनों को पक्के जोड़ में जकड़ दे। न ही किसी ऐसी भीड़ की ज़रूरत, जिसकी गवाही में इन दोनों को बताना पड़े कि हां हमें साथ रहना है अब। एक वक़्त की रोटी जब इस तरह साथ खाई जाती है, तो फिर जन्म भर क्या किसी और थाली से खाने की भूख रह जाती होगी....। इमरोज़ शायद इसीलिए कभी किसी और ठौर पर रोटी खाने नहीं गए होंगे।

अगली पोस्ट में जारी....

पीठ भी उसकी....साहिर भी उसी का

पिछली पोस्‍ट से जारी....
.... ये सोचना कई बार मुश्किल होता है कि क्‍या रब ने अमृता-इमरोज़ को इसी दुनिया के लिए बनाकर भेजा था.....। फिर ये भी लगता है कि दुनिया में प्‍यार का नाम बाक़ी रहे इसके लिए उसे कुछ न कुछ तो करना ही था न। पर क्‍या इन्‍हें बनाने के बाद रब ने सांचा ही तोड़ डाला....अगर नहीं, तो क्‍यों नहीं दिखते, और कहीं अमृता-इमरोज़...! मेरी सोच गहरी हो जाती, तो वे टोक कर कहते, मेरी नज्‍़मां नईं सुनदी......मैं फिर सुनने लगती ध्‍यान से। बताने लगे "हम एक बार ऐसे ही घूम रहे थे कि अमृता ने पूछा-पैलां वी किसी दे नाल तुरयां ए...(पहले भी कभी किसी के साथ घूमे हो) मैंने कहा-हां तुरयां हां, पर जागा किसे दे नाल नईं (हां, घूमा हूं लेकिन जागा किसी के साथ नहीं)। इसके बाद उसने मेरा हाथ ज़ोर से पकड़ लिया और इस तरह चल पड़ी जैसे सारी सरहदें पार करके आगे जाना हो।" इमरोज़ ने अपनी जाग को फिर कभी ऊंघने नहीं दिया, अमृता के सो जाने के बाद भी।

अमृता-साहिर.इमरोज़.........ये त्रिकोण होकर भी तिकोना नहीं दिखता....कैसी अजीब बात है। इसके कोनों को किसने घिसकर इतना रवां कर दिया कि वे किसी को चुभते ही नहीं। क्‍या था ऐसा.......इमरोज़ बताते हैं-साहिर उसकी मुहब्‍बत था, मैं उससे कैसे इन्‍कार करता...। बरसों से जो वो दिल में रखे थे उसे निकाल फेंकने की कू़वत मुझमें नहीं थी, शायद सच्‍चा इश्‍क़ करने वाले किसी भी इंसान में ऐसी कू़वत नहीं होती। वो तो बस सबकुछ सौंप देता है आंख्‍ा बंद करके, फिर सामने वाले की मर्जी़, वो चाहे जो करे। अमृता की किताबों में दर्ज कि़स्‍से को दोहराते हुए उन्‍होंने कहा "एक बार वो कहीं इंटरव्यू दे आई कि जब वो स्‍कूटर पर पीछे बैठती है तो मेरी पीठ पर उंगली से साहिर-साहिर लिखती रहती है। ये बात मुझे पता नहीं थी। इंटरव्यू आने के बाद लोग मुझसे सवाल करने लगे। मेरा जवाब था- लिखती है तो क्‍या हुआ....ये पीठ भी उसकी है और साहिर भी उसीका, वो चाहे जो करे"। क्‍या सचमुच इतना आसान रहा होगा इसे सहना......उन्‍होंने कहा-हां बिलकुल, मैंने उससे मिलने के बाद ही जाना कि अपने आप को सौंपते वक्‍़त किसी तरह की जिरह की कोई गुंजाइश उठाकर नहीं रखी जाती। खु़द को देना होता है पूरा का पूरा। कुछ भी बचाकर नहीं रखा जाता। कितना सच था इस बात में, वाक़ई कुछ उठाकर रख लेने से ही तो बदनीयती आती है।

वे एक साथ हौज़ख़ास वाले घर में रहे। मैं अंदाजा लगाना चाहती थी इस प्रेम के भौतिक स्‍वरूप का..उन्‍होंने भांपा और बोले-जब शरीर के साथ उस घर में मेरे साथ थी तो हम दोनों मिलकर ख़र्च करते थे। किचन का सामान भरते और साथ मिलकर ही बाक़ी ख़र्च चलाते। कभी पैसे को लेकर कोई सवाल आया ही नहीं। मुझे याद है कि जब मैं इंश्‍योरेंस करवा रहा था तो एजेंट ने पूछा नॉमिनी कौन.... ? मेरा उसके सिवा कौन था जो नाम लेता, कहा अमृता, एजेंट ने पूछा रिश्‍ता बताओ, मैंने वहां लिखवाया दोस्‍त.....क्‍योंकि उस जगह को भरने के लिए एक शब्‍द की ज़रूरत थी। हमारा रिश्‍ता इस शब्‍द का मोहताज नहीं था पर क़ाग़ज़ का पेट भरना ही पड़ा। एजेंट मेरी तरफ़ देखकर हैरान था कि क्‍या दोस्‍त को भी कोई नॉमिनी बनाता है। उसे मेरी बात समझ आनी नहीं थी इसलिए समझाया भी नहीं। बाद में जब वो पॉलिसी मेच्‍योर हुई उसका पैसा हमने साथ मिलकर ख़र्च किया। इमरोज़ फिर सुनाने लगे-दुनिया विच कोई प्राप्ति बणदी........जे मुहब्‍बत कामयाब न होवे....।

अगली पोस्‍ट में जारी..........

Friday, August 8, 2008

एक है अमृता... एक है इमरोज़

इस ब्लॉग की शुरुआत किसी और पोस्ट से होनी थी। जिसमें होता आज जैसे ही एक दिन का जि़क्र.... ताजमहल, बरसात, नाटक और असमय इस दुनिया से चले गए किसी दोस्त की याद... या फिर इमली के पेड़ और उबले हुए मसालेदार भुट्टे की बात... या फिर कोई ऐसा कि़स्सा जो लंबे रास्ते पर रुकी हुई एक किलोमीटर लंबी बारिश से जुड़ा हो... ऐसा हुआ नहीं, शायद होना नहीं था इसीलिए ही। सो, सब एक उधार की तरह दर्ज हो रहा है कहीं न कहीं, फि़लहाल जो लिखा जा सकता है, वो पढि़ए-




हम ऑनलाइन थे, लेकिन निरुपमा को अपनी बात कहने के लिए फोन करना ठीक लगता है। बताया... इमरोज़ आ रहे हैं. सात तारीख़ को दोपहर में तुम भी आ जाओ। पहुंची, तो देखा पूरा घर अमृता की पेंटिंग्स और स्केचेज़ से सजा था। जैसे बारात आई हो निरुपमा के घर और दूल्हा बने बैठे हों इमरोज़। तक़रीबन पंद्रह बरस के बाद देखा था उन्हें। लगा, जैसे उनका चेहरा अमृता जैसा होता जा रहा है, प्रेम का संक्रमण ऐसा भी होता है क्या...। थोड़ी देर में ही निरुपमा दत्त का घर दोस्तों से भर गया। इमरोज़ ने नज़्म पढ़ना शुरू किया। एक के बाद एक, पढ़ते गए। हाथ में फोटोस्टेट किए पचास से ज़्यादा काग़ज़ थे। सबमें अमृता। वो उसके अलावा कुछ और सोच सकते हैं क्या, मुझे लगा नहीं और कुछ सोचना भी नहीं चाहिए उन्हें।

एक थी अमृता... कहने से पहले ही इमरोज़ टोक देते हैं। फिर दुरुस्त कराते हैं- कहो एक है अमृता। हां, उनके लिए अमृता कहीं गई ही नहीं। कहने लगे- एक तसव्वुर इतना गाढ़ा है कि उसमें किसी ऐसी हक़ीक़त का ख़याल ही नहीं कर पाता, जिसमें मैं अकेला हूं। हम उस घर में जैसे पहले रहते थे, वैसे ही अब भी रहते हैं। लोग कहते हैं, अमृता नहीं रही... मैं कहता हूं- हां, उसने जिस्म छोड़ दिया, पर साथ नहीं। ये बात कोई और कहता, तो कितनी किताबी-सी लगती। उनके मुंह से सुना, तो लगा जैसे कोई इश्कि़या दरवेश एक सच्चे कि़स्से की शुरुआत करने बैठा है। उन्होंने सुनाया- प्यार सबतों सरल इबादत है...सादे पाणी वरगी। हां, ऐसा ही तो है, बिलकुल ऐसा ही, हम कह उठते हैं। लेकिन ये सादा पानी कितनों के नसीब में है... इस पानी में कोई न कोई रंग मिलाकर ही तो देख पाते हैं हम। वो ताब ही कहां है, जो इस पानी की सादगी को झेल सके।

घर के बाहर बरसात थी और अंदर भी। नज़्मों और रूह से गिरते उन आंसुओं की, जो कइयों को भिगो रहे थे। पहली मुलाक़ात का जि़क्र हमेशा से करते आए हैं, एक बार फिर सुनाने लगे- उसे एक किताब का कवर बनवाना था। मैंने उस दिन के बाद सारे रंगों को उसी के नाम कर दिया। जहां इमरोज़ बैठे थे, ठीक पीछे एक ब्लैक एंड व्हाइट फोटो रखा था। एक रेलिंग के सहारे हाथ में हाथ पकड़े उन दोनों को देखकर मैंने पूछा, ये कहां का है। उन्होंने बताया- जब हम पहली बार घूमने निकले, तो पठानकोट बस स्टैंड पर ये फोटो खिंचवाया था। इमरोज़ को रंगों से खेलना अच्छा लगता है, लेकिन अपनी जि़ंदगी में वे बहुत सीधे तौर पर ब्लैक एंड व्हाइट को तरजीह देते हैं। यहां तक कि अपने कमरे की चादरों में भी यही रंग पसंद हैं उन्हें, जबकि अमृता के कमरे में हमेशा रंगीन चादरों को देखा गया।

जारी... अगली पोस्ट में