Wednesday, September 24, 2008

एक पल की मौत.....


रोशनदान पर टुक-टुक करती चिडि़या अपनी जगह थी, नीम के पेड़ की कत्‍थई होती पत्तियां भी। कैम्‍पस के सबसे मोटे तने वाला पेड़ अपनी जगह से ज़रा भी नहीं हिला। यहां तक कि लोहे की बैंच भी अपनी जगह पर कायम रही। फ़ज़ल ताबिश का शेर और सिगरेट का ढेर सारा धुआं लौट-लौट कर कमरे पर दस्‍तक देता रहा....अंदर एक पल मर चुका था।

कौन रोता है एक पल की मौत पर...................।

Tuesday, September 23, 2008

मुझे याद रखना है......

मुझे जो याद रखना है उसमें नेरूदा भी हैं। हमेशा याद रखते हुए भी आज उन्‍हें  फिर से  याद करने का दिन है.....

चलिए  नेरूदा को याद करें इन दो कविताओं से गुज़रते हुए.........


पाब्‍लो नेरूदा 12 जुलाई 1904 से 23 सितंबर 1973

याद
सबकुछ मुझे याद रखना है,
घास की पत्तियों का पता रखना है और अस्‍त-व्‍यस्‍त
घटनाओं के सूत्रों का और
आवासों का, इंच-दर-इंच,
रेलगाडि़यों की लंबी पटरियों का,
और पीड़ा की शिकनों का।
अगर मैं गुलाब की एक भी झाड़ी ग़लत गिनूं
और रात और ख़रगोश के बीच फ़र्क़ न कर पाऊं,
या अगर एक पूरी की पूरी दीवार
मेरी याद में ढह जाए,
तो मुझे बनानी होंगी, फिर एक बार हवा,
भाप, प्रथ्‍वी, पत्तियां,
बाल और यहां तक ईंटें भी,
कांटे जो मुझे चुभे,
और भागने की रफ़तार ।
करुणा करो कवि पर।
भूलने में मैं हमेशा ही तेज़ रहा
और अपने उन हाथों में
अगोचर को ही पकड़ा,
परस्‍पर असंबंद़ध चीजें
चीजें जिन्‍हें छूना असंभव था,
जिनकी तुलना उनके
अस्तित्‍वहीनता के बाद ही संभव थी।
धुआं किसी खु़शबू की तरह रहा,
खु़शबू धुएं की तरह रही,
एक सोए हुए तन की त्‍वचा
जो मेरे चुम्‍बनों से जागा,
लेकिन मुझसे उस स्‍वप्‍न की तारीख़
या नाम मत पूछो जिसे मैंने देखा--
मेरे लिए वह रास्‍ता नाम लेना असंभव है
जिसका शायद कोई देश ही नहीं रहा,
या वह सत्‍य जो बदला,
या जिसे दिन ने शायद दबा दिया और उसे
अंधेरे में उड़ते जुगनू की तरह,
चकराती रोशनी में बदल दिया।
-मेमरी,  पाब्‍लो नेरूदा कविता संचयन,  अनुवाद चंद्रबली सिंह

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ताकि तुम मुझे सुन सको....

ताकि तुम मुझे सुन सको
मेरे शब्‍द
कभी-कभी इतने झीने हो जाते हैं
समुद्र तट पर बत्‍तख़ों के रास्‍ते सरीखे
कंठमाल, जैसे नशे में धुत्‍त एक घंटी
अंगूरों जैसे मुलायम तुम्‍हारे हाथों के लिए
और मैं बहुत दूर से अपने शब्‍दों को देखता हूं
मुझसे ज्‍़यादा वे तुम्‍हारे हैं
मेरी पुरातन यातना पर वे बेल की तरह चढ़ते जाते हैं
वह भीगी दीवारों पर भी इसी तरह चढ़ती है
इस क्रूर खेल का दोष तुम्‍हारा है
वे जा रहे हैं मेरी अंधेरी मांद छोड़कर
तुम हर चीज़ को भर रही हो, तुम हर चीज़ को भर रही हो
तुमसे पहले वे उस अकेलेपन में रहा करते थे जिसमें अब तुम हो
और उन्‍हें तुमसे ज्‍़यादा आदत है मेरी ख़ामोशी की
मैं चाहता हूं कि अब वे कहें जो मैं तुमसे कहना चाहता हूं
तुम्‍हें वह सुनाएं जैसे मैं चाहता हूं तुम मुझे सुनो
पीड़ा की हवा के थपेड़े अब भी उन पर पड़ते हैं सदा की तरह
कभी-कभी स्‍वप्‍नों के अंधड़ अब भी उन्‍हें उलटा देते हैं
मेरी दर्दभरी आवाज़ में तुम दूसरी आवाज़ें सुनती हो
पुरातन मुहों का रुदन, पुरातन यातनाओं का रक्‍त
मुझे प्रेम करो साथी, मुझे छोड़ो मत, मेरा पीछा करो
मेरा पीछा करो साथी, वेदना की इस लहर पर
लेकिन मेरे शब्‍दों पर तुम्‍हारे प्रेम के धब्‍बे लग जाते हैं
तुम हर चीज़ को भर रही हो, तुम हर चीज़ को भर रही हो
मैं उन्‍हें बदल रहा हूं एक अंतहीन हार में
तुम्‍हारे सफे़द, अंगूरों जैसे मुलायम हाथों के लिए
-बीस प्रेम कविताएं और उदासी का एक गीत से, अनुवाद अशोक पांडे का 

Friday, September 12, 2008

टेबल कैलेंडर पर चौमासा

बूंदें बाहर आकर भिगो तो नहीं डालेंगी.. और न ही सख़्त गर्मी की उमस आकर सांस को घोटना शुरू करेगी । गर्मी, जंगल, नदी और पहाड़ सब से बात की जा सकती है लेकिन इस ह्यूमिडिटी का क्या करूं, जो बारिश के बाद भी छंटती नहीं। और.. हवा कितनी भारी सी हो जाती है इन दिनों, मुझे हल्की हवा चाहिए, जो सांस में आराम से घुल जाए, मेहनत न करनी पड़े। आप कह सकते हैं कि कितनी फिजू़ल सोच है, हवा क्या ज़रूरत के मुताबिक़ हल्की और भारी की जा सकती है। सही है, सबकी तरह हवा की भी तो अपनी मर्जी है। तो ठीक है न, करे वो भी अपनी मर्जी़... पर ... इस टेबल कैलेंडर को तो मेरी मर्जी़ से ही चलना होगा। मैं इससे बिल्कुल नहीं डरती। महीना बदले और पन्ना भी बदलूं, ज़रूरी नहीं है। भूल भी सकती हूं। याद आने पर पिछले महीनों से माफ़ी भी क्यों मांगूं मैं....। जब तक वो मेरी बाईं टेबल पर पड़ा है, उसे मेरी मर्जी़ से ही चलना होगा। बाद में दिल करेगा, तो रद्दी में दबा दूंगी, न हुआ तो बालकनी से ऐसे उछालकर फेंक दूंगी कि दूर जाकर गिरेगा।

कैलेंडर की तारीख़ों पर लगे टिक हर बार ज़रूरी नहीं कि एक लंबी कहानी कहेंगे, उनके अंदर, ज़्यादा अंदर झांकने की ज़रूरत भी नहीं है। हो सकता है, जून की जिस तारीख़ पर आप टकटकी लगाकर कुछ डीकोड करना चाह रहे हैं, वहां धोबी को एडवांस दिए गए पैसों की ख़ुफि़या इबारत दर्ज हो। या फिर किसी ऐसे जन्मदिन की तारीख़, जिसे याद रखने का ज़रा सा भी मन नहीं था। अब ये साबित करने पर भी न तुल जाइए कि बेहद वाहियात किस्म की बातों को याद करके गोले लगाए गए हैं इस महीने की तारीख़ों के आगे। सोचने की ज़रूरत है कि इतनी गर्मी के बीच इस कैलेंडर पर टिकी हरियाली और पीला बसंत नकली होते हुए भी महीने भर अजीब सी राहत देता रहा है। कई बार नकली चीजे बड़ी राहत देती हैं, इसमें वाहियात क्या है....।

टेबल कैलेंडर कोई इंसान है क्या, जो बता देगा कि जुलाई में आप किन तारी़खों पर झगड़ते रहे और किन पर बिल्कुल शांत होकर अपना काम करते रहे। हां उसने देख लिया था आपके नथुनो को फूलते-पिचकते, कई बार गु़स्से में इतना जो़र से चिल्लाते कि बेचारा वो भी हिलकर रह गया, लेकिन तो भी वो ये सब बता तो नहीं सकता। एक नज़र डालते ही आपको याद आ गया न कि बारिश में छाता लिए इन बच्चों ने कितनी बार कहा था जाओ यार ऑफिस के बाहर निकलो, बारिश देखो, भीग लो ज़रा सा। नहीं माने न, अब तारीख़ों से बिल्कुल मत पूछिए उस कहानी को। कुछ नहीं मिलेगा वहां से। हां ख़ुद ही डूबते रहिए उस तारीख़ के गोले में, जब आपने घुटना-घुटना पानी में घर जाकर पकौड़े बनाए थे।

सावन और भादों का फ़र्क़ कम से कम इस कैलेंडर के जरिए समझने की ज़रूरत मुझे नहीं है। मेरा हिसाब अलग है। मैं अड़कर बैठी हूं कि चार महीने सिर्फ़ सावन होता है, जि़द पर अड़ा हुआ, अटका हुआ सावन। तारीखें झूठ न भी बोलें, तो भी मैं अपनी बात से नहीं हटने वाली। जन्माष्टमी और राखी को आना है, तो इसी सावन में आ जाएं। और भी अगर कोई आना चाहे, तो सावन अभी बाक़ी है। पर, तारीख पर लगा एक गोला जोर से चिल्लाकर मुझे महीनों पहले रची गई साजि़श का हिसाब क्यों गिनाता है। मैं दिन जोड़ती हूं, हां बिल्कुल ठीक निकलता है हिसाब। लेकिन इतने दिनों तक समझ क्यों नहीं आया, मेरा गणित शुरू से कमज़ोर रहा है, बड़ी शर्म की बात है। एक और गोला शर्मिंदगी का।

मुझसे कोई हिसाब नहीं दिया जाएगा। किसी धोबी, दूधवाले या काम वाली किसी का भी नहीं। पहले ही बता दिया था, गणित कमज़ोर है। इतिहास की बातें कर लेना, चाहो तो। सारी किताबें ज़बानी याद हैं। बिना गोले लगी तारीखों में भी ढूंढकर बता सकती हूं कि रजि़या ने किस दिन याक़ूत को हव्वा की नज़र से देखा था। उसके बाद की कहानी भी बिना किसी झोल के सुनाई जा सकती है। कोई ज़रूरी है क्या कि गोलों में क़ैद तारीखें ही सच बोलें। अगर ऐसा होता, तो इंडिया-पाकिस्तान के मैच के बाद देर रात पड़ोस के मियां-बीवी की ऐतिहासिक मारपीट वाली तारीख़ पर गोला न लग गया होता। या फिर उस रात की कहानी पर भी तो गोला लगाया ही जा सकता था, जब उसी मियां-बीवी को मैंने छत पर नाचते-गाते देखा था।

टेबल कैलेंडर पर बनाई तस्वीरें स्कूली बच्चों की हैं और तारीखों पर लगे गोले उन हाथों के, जिन्होंने कभी झूठ नहीं लिखा था।