Thursday, October 30, 2008

शहादत....

आज बस ये दो लाइनें पढ़ लें-


जा अपने ख़ून दे इल्‍ज़ाम तों तैनूं बरी कीता..
शहादत देन वाले दा कोई क़ा‍तल नहीं हुंदा ।
                      कविंदर चांद

Wednesday, October 22, 2008

ज़मीर को जगाने के लिए कौन सी धारा को संशोधित किया जा सकेगा....

(लिवइन रिलेशनशिप पर इमरोज़)
गुलज़ार की बात से शुरू करूं तो यह कहना क्या ग़लत है कि सिर्फ़ अहसास है ये रूह से महसूस करो...। यह भी कहा जा सकता हे कि सिर्फ़ महसूस करने से तो पेट नहीं भर जाता, लेकिन मैं तो अपना उदाहरण देकर ही बता सकता हूं कि अहसास सबसे बड़ी चीज़ है और अगर आपमें ईमानदारी और निष्ठा है तो फिर उस आदर्श जीवन की कल्पना आराम से की जा सकती है जिसमें किसी क़ानून की ज़रूरत हो ही नहीं। सारी बात अपने ज़मीर को जगाए रखने की है जिसमें मेरे ख़याल से क़ानून तो कोई मदद कर नहीं सकता।

ये कहना है इमरोज़ का। लिव इन पर चल रही चर्चा के तहत उनसे लंबी बातचीत हुई अखबार के लिए। थोड़ी सी फेर बदल के साथ यहां पेश है। लेख लंबा है, थोड़े धैर्य की ज़रूरत तो होगी ही-


हमारे दोस्त बताते हैं कि कुछ मुल्‍कों में ऐसा कानून है कि दो लोग दो साल या इससे ज्‍़यादा वक्‍़त तक एक साथ रह रहे हैं तो उनके बीच मियां-बीवी का रिश्ता मान लिया जाता है। अब मुंबई में इसके लिए क़ानून की धारा में संशोधन की बात चल रही है तो मैं एक ही बात सोच रहा 9हूं कि क्या रिश्तों को जोड़ने और तोड़ने के लिए किसी क़ानून की ज़रूरत होनी चाहिए....क्या इंसान के अंदर की ईमानदारी और कमिटमेंट निबाह लेने के लिए काफ़ी नहीं हैं...? लिव-इन हो या पक्के मंत्र पढ़कर बनाया गया साथ रहने का इंतज़ाम, दोनों में ही ’ज्‍़यादा ज़रूरी तो ईमानदारी ही है। अगर ईमानदारी और जिम्मेदारी व्यक्ति में है ही नहीं तो उसे पैदा करने के लिए किस धारा में संशोधन किया जा सकेगा...? ज़मीर को जगाने के लिए कौन का क़ानून बनाया जाएगा...।

मुझे लिव इन में एक अच्छी बात तो यही दिखती है कि कोई एक दूसरे का मालिक नहीं होता। एक साथ रहने का फै़सला इसलिए नहीं लिया गया होता कि वे किसी बंधन में हैं। इसके उलट विधिवत शादी में पहले दिन से पुरुष, स्त्री का स्वामी बन गया होता है। हैरान कर देने वाली बात यह भी है कि आज तक इस बात पर किसी ने एतराज़ भी नहीं जताया। किसी औरत ने पलटकर यह नहीं कहा कि यह शब्द हटाओ। मैं किसी की मिल्कियत नहीं हूं। मेरा कोई स्वामी नहीं है, हां साथी हो सकता है।

यह शादी है क्या....? तो दिखता है कि यह पूरी तरह एक क़ानून और व्यवस्था है, जिसके तहत दो अजनबियों को एकसाथ रहने की इजाज़त मिल जाती है। उनसे उम्मीद की जाती है शादी की पहली ही रात एक ऐसा संबंध बना लेने की जो एक और अजनबी को पैदा करके उनकी जिंदगी में अजनबियत का जंगल खड़ा कर दे। ऐसा ही होता भी है। तो इनके बीच में रिश्ता नहीं कानून रहता है। व्यवस्था रहती है और उस व्यवस्था को अक्सर निभाया ही जाता है, जिया नहीं जाता। इस बात से इत्तेफ़ाक़ न रखने वाले लोग काफ़ी हो सकते हैं लेकिन ध्यान से देखें तो सच यही दिखेगा। एक औरत और मर्द के बीच पहले रिश्ता हो और बाद में साथ रहने की व्यवस्था....क्या ऐसा होता है हमारे समाज में। रिश्ता जोड़ने के नाम पर ज्‍़यादा से ज्‍़यादा हम एक दूसरे को देखने जाते हैं शादी से पहले। परिवारों के बीच परिचय होता है, एक दूसरे की संपत्ति की पहचान करते हैं और इस बात तो मापते हैं कि इस तरह जुड़ने में कितने फ़ायदे और नुकसान हैं । शादी हो जाती है। बहुत हुआ तो इस बीच लड़के-लड़की को मिलने की इजाज़त मिल जाती है, जहां वे पूरी तरह से नकली होकर एक दूसरे को इम्प्रेस करने की कोशिश करते रहते हैं। इसका नतीजा क्या होता है....एक झूठ को आप सच समझने की भूल करते हैं और बाद में जब सच सामने आता है तो सब सपने टूटते लगते हैं। जब ऐसा ज्‍़यादातर मामलों में हो ही रहा है तो क्या अर्थ है उस व्यवस्था का जिसे शादी कहते हैं।

जिस का़नून की हम बात कर रहे हैं अगर वह बनता भी है तो उससे इतनी मदद होगी कि पुरुष, स्त्री को छोड़कर भागने से पहले एक बार सोचेगा ज़रूर, और अगर चला भी गया तो कम से कम पीछे छूट गई औरत उस सामाजिक प्रताड़ना से बच जाएगी जिससे वह अब गुज़रती है। लेकिन इसके बावजूद सवाल वहीं है कि जो आदमी किसी को छोड़कर भागता है क्‍या वह रिश्‍तों में ईमानदार था....अगर नहीं तो ऐसे आदमी की पत्नी कहलाने में किसे गौरव महसूस करना है। हां इसके आर्थिक पहलू ज़रूर मायने रखते हैं।

इस संदर्भ में एक बात और कही जा सकती है कि गै़र जि़म्मेदार और बेईमान आदमी चाहे लिव इन रिलेशनशिप में हो या शादी की व्यवस्था में...उसका कुछ नहीं किया जा सकता। सामर्थ्‍य पुरुष को अराजक बनाती है और वे चाहे छुपकर इस तरह के संबंध बनाएं या खुलकर उन्हें बहुत ज्‍़यादा फ़र्क़ नहीं पड़ता। मुंबई की ही बात लें तो दिखता नहीं है क्या कि किस तरह सक्षम लोग एक से ज्‍़यादा संबंध जीवन भर आराम से चलाते रहते हैं। उन्हें कभी न तो प्रताडि़त किया जाता है और न ही उन्हें किसी क़ानून की ज़रूरत होती है। क्योंकि ये सामर्थ्‍यवान हैं तो अपनी जिंदगी में आई औरत के लिए आर्थिक व्यवस्था कर देना इनके लिए मुश्किल नहीं होता।

यानी इस क़ानून की ज़रूरत मध्यम वर्ग के लिए ही हुई न। यही मध्यम वर्ग तो शादी को सात जनम का बंधन मानकर चलता है और अब लिव इन के नए खा़के में फि़ट होकर जिंदगी के अर्थ ढूंढना चाहता है। लेकिन अहम सवाल अब भी बाक़ी है अगर का़नून लिव इन को पति-पत्नी के दर्जे की स्वीकृति दे भी दे तो क्या इससे लोगों के अंदर ईमानदारी और जि़म्‍मेदारी पैदा हो जाएगी...? याद रख लेने की बात है कि एक ऐसी व्यवस्था का़नून ज़रूर दे सकता है जो साथ रहने को वैध कर दे लेकिन ऐसे जज्‍़बात तो अपने अंदर ही पैदा करने होंगे जो इस साथ को रिश्ते का नाम दे सकें। मैं तो यह भी कहता हूं कि ईमानदार सिर्फ़ साथ रहने में नहीं एक दूसरे का साथ छोड़ने में भी होनी चाहिए। अगर आप रिश्तों को निबाह पाने में असमर्थ हैं तो बेईमानी करने से बेहतर है कि साफ़ कह दिया जाए। लेकिन देखने में यही आता है कि लोग बरसों बरस उन रिश्तों को ओढ़ते-बिछाते रहते हैं जो दरअसल रिश्ते रह ही नहीं गए होते।

Sunday, October 19, 2008

एक सिगरेट देना कामरेड...


अंधेरे से डर लगता है....। अर्थ की गहराई समझ आने पर डर भी गहरा होता जाता है। ईमरे नॉज को जेल में बंद कर दिया गया। उसका चश्‍मा और पेन बाहर ही क़ब्‍जे़ में ले लिए गए थे। वो अकेला है, बहुत ऊंची छत के ऊपर वाले रोशनदान को भी बंद कर दिया गया...रोशनी अंदर न जाए...हवा अंदर न जाए...।  क़ब्‍ज़ा हो चुका है। वहां उतनी ही हवा है जितनी पहले से थी। बार-बार फे़फ़ड़ों तक जाएगी और वापस आएगी। लेकिन ईमरे को चश्‍मे के बिना दिखता नहीं....वो अंधेरे में है...उसे सांस नही आती... मैं भी अंधेरे में हूं, मुझे भी सांस नहीं आती। इनहेल करती हूं।
द मैन अनबरिड...127 मिनट की फि़ल्‍म शुरू होने के कुछ देर बाद ही मुझे घुटन होती है....बुरा लगता है। सांस लेना जब अपने हाथ में न हो तो कितनी बेबसी लग सकती है...फि़ल्‍म पर ध्‍यान देती हूं।

शुरू में ही एक सीन में आवाज़ आती है...एक सिगरेट देना कामरेड...एक दूसरे के मुंह पर धुंआ उड़ा सकने और अपने अंदर से घुटन को बाहर लाकर पटक सकने का विजयी भाव याद आता है जो अक्‍सर सिगरेट पीने वालों के चेहरे पर देखती हूं। ईमरे के पास सिगरेट नहीं है, खाना भी नहीं है, ज़हरीले मच्‍छर और सीलन भरी एक कोठरी का अकेलापन है। लेकिन उसकी सांस बहुत भारी है...जैसे चश्‍मा न होना उसकी सांस को बाधित कर रहा है, उसे भी रोशनी से ही सांस मिलती है मेरी तरह....एक और बार इनहेल करती हूं। 

फि़ल्‍म फ़लैशबैक में है....ब्‍लैक एंड व्‍हाइट...। यहां भी अंधेरा प्रॉब्लम है...फिर घुटन। ईमरे को चश्‍मा वापस मिल जाता है, कामरेड को रहम आ गया था, अब वह उस कोठरी को देख पा रहा है अच्‍छी तरह।  एक क़ाग़ज और पेन मांग रहा है...लिखने के लिए...न लिख पाना भी घुटन देता है, कोई सुनता नहीं उसकी बात...मोटी लोहे की दीवारें...मैं उसकी जगह जाकर खड़ी हो जाती हूं...मेरी आवाज़ सुन रहा है क्‍या कोई....उसके हाथ दीवारों पर पटकते रहने से लहुलुहान हो गए हैं...अपने हाथ देखती हूं..;साफ़ हैं कहीं कुछ नहीं लगा..;बस अंधेरा बढ़ रहा है...एक और बार इनहेलर लूं क्‍या...।

क्राइम अगेंस्‍ट स्‍टेट....ट्रायल शुरू हो गया....एक अकेली आवाज़ कितनी ही ताक़तवर हो, दबा दी जाती है झुंड के द्वारा। दोष साबित कर दिया जाता है। ईमरे अपने डॉक्‍टर से पूछता है मैं कैसे मरूंगा...वो बताता है-तुम्‍हें तकलीफ़ नहीं होगी....ज़रा सी देर का काम है। ईमरे अपने घरवालों के नाम पत्र देता है...अक्‍सर आत्‍मत्‍या से पहले ऐसा ही करते हैं सब....। क्‍यों करते हैं..सवाल मेरा ध्‍यान हटा देता है एक पल के लिए....खु़द ही जवाब भी देती हूं-जो बातें जीते जी नहीं सुनी जातीं शायद उन्‍हें ज़ोर से सुनाना ही है ख़त लिखना। फिर से फि़ल्‍म देखती हूं....फांसी का सीन....घुटन ज्‍़यादा होती है, कई चीजें़ याद आती हैं। सद़दाम हुसैन की कवरेज, फांसी से पहले और बाद के फोटो...लटकती हुई गर्दन...मुझे सांस लेना भारी हो रहा है, लगातार इनहेल करती हूं...।

ईमरे को शांति से फांसी दी जा रही है..मुंह पर काला कपड़ा डालने से पहले उसका चश्‍मा उतार लिया गया...उसकी घुटन का अंदाजा लगाना चाहती हूं....क्‍या चश्‍मा लगाए हुए ही फांसी नहीं दी जा सकती...? उसके हाथों में चश्‍मा है....मानों वो रोशनी को हाथ में रखना चाह रहा है..देर नहीं लगती फंदा खिंचने में..;चश्‍मा हाथ से गिर जाता है, दूसरे में हाथ में पकडी़ हुई वह थैलिया भी जिसमें उसके अपने घर की मिट़टी थी... ईमरे मरना नहीं चाहता था....हम भी कहां मरना चाहते हैं...।

क्‍या ईमरे को मरने से पहले एक सिगरेट नहीं दी जा सकती थी....घुटन कुछ कम हो जाती....मेरा मन बहुत घुट रहा है...एक सिगरेट मिलेगी क्‍या....? नहीं ऐसे ही कहा-पी नहीं सकती, सांस की दिक्‍़क़त है न...। कामरेड दुनिया में इतनी घुटन क्‍यों है कि सिगरेट की ज़रूरत महसूस होने लगे....कुछ करो...यार .?