Friday, January 30, 2009

कोई कह सकेगा उसे...

मुझे विश्‍वास होता जा रहा है कि इस श्राप का तोड़ जालंधर वाले बूढ़े के पास ही है....शाम से याद कर रही हूं लेकिन नाम याद नहीं आ रहा उसका। दो साल पहले जनवरी में ही तो मिला था पहली और शायद आखि़री बार भी...। वो अपने हर मिलने वाले को क़लम बांटा करता था। अपनी कमाई में से सिर्फ़ जीने-खाने लायक पैसा रखकर बाक़ी सारी रक़म के क़लम ख़रीद लिया करता और जो भी सामने आए उसे ही दे देता था,  बरसों से ऐसा ही कर रहा था। कहता था खु़द पढ़-लिख नहीं पाया इसलिए अब दूसरों को पैन देकर सुख पाता है...कितना अनोखा दिव्‍य भाव था यह...‍कि जो खु़द को नहीं मिला उसे दूसरों को देकर ही सुख पा लो....।

उन दिनों हमेशा मेरे पास चार रंग के पैन हुआ करते थे-लाल, नीला, काला और हरा। एक ख़ास कि़स्‍म के  क़लम इस्‍तेमाल करने की ऐसी धुन थी कि उस बूढ़े का दिया पैन लेकर बस यूं ही रख दिया था। कभी चलाकर नहीं देखा.....आज पुराने पर्स में वो रखा मिला ..चलाकर देखा...इंक शायद सूख चुकी थी, दो लाइन चलकर रुक गया...। लॉजिक दिया जा सकता है कि दो साल से रखे-रखे इंक सूख गई होगी इसलिए नहीं चला। लेकिन ऐसा तो कई दिन से हो रहा है, जो भी क़लम हाथ में लेती हूं कुछ देर चलता है और रुक जाता है। उस दिन जब नई किताबों पर नाम और तारीख़ लिखना चाह रही थी तो किसी से मांग लिया ..थोड़ी देर के बाद ही स्‍याही ख़त्‍म हो गई। बाद में जब डायरी पर नाम लिखना था तो भी ऐसा ही तो  हुआ...तब से ऐसा हर दिन यही हो रहा है...जो भी पैन हाथ में आता है...चलना बंद कर देता है...।

कोई नहीं मानेगा इस बात को लेकिन मेज़ की दराज़ में ऐसे ग्‍यारह क़लम पड़े हैं जो औरों के हाथ में चल रहे थे और मुझ तक आते ही चलना बंद कर चुके हैं....जैसे कोई श्राप है जो मेरे हाथ में आते ही रोक देता है उन्‍हें  चलने से....बहुत वाहियात सी सोच कही जा सकती है ये....लेकिन ऐसा सचमुच हो रहा है। पता नहीं क्‍यों ऐसा लग रहा है कि एक बार फिर वही बूढ़ा एक क़लम आकर देगा और यह श्राप टूट जाएगा... । क्‍या कोई बताएगा उसे कि अब मेरे पास ख़ास कि़स्‍म के चार रंगों वाले पैन नहीं हैं....कि  अब हर उस क़लम से काम चला लेती हूं जो सामने आ जाए...कि उसके दिए पैन का निरादर नहीं किया था मैंने, बस थोड़ी सी लापरवाही थी वो...कोई कह सकेगा उसे कि मुझे एक ऐसा क़लम लाकर दे दे...जो मेरे हाथ में आकर चलना बंद न कर दे...जिसकी स्‍याही मेरा हाथ लगते ही सूख न जाए...।


Saturday, January 17, 2009

कौन छिड़कता है निरंतर नमी


ऊपर चढ़ने के लिए पहली सीढ़ी पर पांव रखते ही तेज़ महक का अहसास होता है। बाक़ी सीढि़यां तय करना याद नहीं रहता....अहसास तेज़तर होता जाता है। बिना सांकल लगा दरवाजा खोलकर बैग रखने तक महक इतनी हावी हो जाती है कि सीधे किचन में जाकर देखना ही पड़ता है ढकी हुई कढ़ाही को। आलू-मेथी की सब्‍ज़ी....अपनी पूरी महक और स्‍वाद के साथ जैसे चुनौती दे रही है किसी भूख को...लेकिन इधर तो भूख को डपट दिया गया है। पानी की बोतल उठाते हुए.. अंतडि़यों में ज़बर्दस्‍ती चुप कराकर बिठा दी गई भूख अचानक उठ खड़ी होती है...पानी से भी कहीं पेट भरता होगा...मुंहज़ोर भूख...पूरी बेशर्मी से एक बार और कढ़ाही का ढक्‍कन पलटकर देखने पर मजबूर करती है....पांव बताते हैं....बिस्‍तर तक का रास्‍ता...जैसे कुछ रटा हुआ सिर्फ़ दोहराया जा रहा हो..। बिस्‍तर तक आने के बाद....किसी पसंदीदा किताब के पन्‍नों में मुंह गड़ा लेने के बाद...फि़ज़ूल की सर्फि़ग के बाद....हर कोशिश के बाद भी मेथी-आलू की सब्‍ज़ी की महक हटती नहीं।

 एक लड़ाई शुरू हो रही  है सब्‍ज़ी और भूख के बीच....कौन हारे...सब्‍ज़ी कढ़ाही से उतरकर थाली में रखी दिखती है....लेकिन किसके लिए....इस बीच, नींद या जाग जो भी स्थिति है ...उसमें मेथी की सब्‍ज़ी हरी पत्तियों में तब्‍दील होने लगती है। बारीक, कुरकुरी, हरी निर्दोष सी पत्तियां....आवाज़ लगाकर सब्‍ज़ी बेचते ठेले पर चली आ रही हैं....पत्तियां ऑटो में सिकुड़कर बैठे बुजु़र्ग के थैले से बाहर झांक रही हैं.....पत्तियां हरी हैं....नम कैसे रह पाती हैं...कौन छिड़क रहा है उनपर निरंतर नमी....सारी मुसीबतों और परेशानियों के बीच पत्तियां इतनी ताज़ा कैसे दिख पाती हैं...कैसे बचाकर रखती हैं अपनी महक और स्‍वाद....पत्तियां चुनी जा रही हैं....बिल्‍कुल हरी और ताज़ी.. डंठल फेंकने होंगे...। मेथी की पत्तियां....किसी भूखे और सूखे चेहरे के सामने शर्मिंदा सी होती हुई.........कुछ अघाए चेहरे याद करती हैं...।


Friday, January 16, 2009

यूं ही नहीं कहा जाता ऐसा


हार क्‍यों मानूं;..जबकि पता है कि शिल्‍प के सारे औज़ारों पर ख़ूब पैनी धार लगा रखी है मैंने। और ऐसा भी तो नहीं कि आज तक  कोई कविता लिखी ही न हो...चुटकियों में चमत्‍कार गढ़ता हूं...दुख, सुख, शोक, हर्ष सब को जीकर लिख सकने का हुनर साथ लिए फिरता हूं...लोग यूं ही तो नहीं कहते कि जादू है मेरे शब्‍दों में....यूं ही कैसे कोई किसी के लिए ऐसी बात कह सकता है...मुझे पता है यूं ही नहीं कहा जाता अक्‍सर ऐसा...। उसने भी तो यूं नहीं सुना होगा जब मैंने कहा कि नेरूदा की तरह 101 कविताएं लिखना चाहता हूं तुम्‍हारे लिए....उसने विश्‍वास किया मेरे कहे पर....तो मैंने भी झूठ कहां कहा....सचमुच लिखना चाहता हूं लेकिन सबसे ठंडी रात आए बगैर कैसे शुरू करूं...? मैं जैसे अटक सा गया हूं यहां....।

मेरे देश में कोहरा नहीं पड़ता....न ही ऐसी ठंड..। यहां आने पर पहले-पहल बहुत रूमानी लगता था रात में कोहरे को देखना...महसूस करना.। ये ऐसी बारिश थी जो त्‍वचा को पार करके खू़न तक गीला और ठंडा करती है....इतनी बारीक बूंदें चेहरे को छू जाती हैं कि उनके आकार की सिर्फ़ कल्‍पना करता रह जाता हूं....कोहरे की छुअन को मैं कोई नाम नहीं दे पाता..।  बस उदास होकर अपनी त्‍वचा की सतह से...गहरी सांसों से... इसे पीते रहने की इच्‍छा होती है। यहीं किसी किताब में पढ़ा था कि कोहरा दरअसल पहले स्‍वर्ग में ही रहा करता था....कविता को धरती तक पहुंचाने आया था और  यहीं रह गया..तब से हर साल सर्दी की सबसे ठंडी रात में कविता जब नभ से उतरती है तो कोहरा उसे लिवाने ऊपर तक जाता है...इसीलिए तो अक्‍सर आसमान तक कुछ नज़र नहीं आता.... कोहरा उसे पूरी तरह ढक लेता है...धरती पर आकर कविता एक कवि की हो जाती है और कोहरा फिर बरस भर उसका इंतजार करता है। इस कहानी पर  जितना विश्‍वास करना चाहता हूं उतना ही अविश्‍वास बढ़ता जाता है....। मैं इसे परखना चाहता हूं....छूकर जांच लेना चाहता हूं....।

कितना सच है इसमें कि जब कविता उतरती है...तो सबको नहीं दिखती...दिख जाए तो लेखनी को अमर बना देती है....मेरी उत्‍सुकता बढ़ती जाती है-कैसे उतरती है कोहरे में कविता...कैसे पहुंचेगी वो मुझ तक....। एक-दो रात नहीं बरसों.मैंने उसे गाढ़े कोहरे भरी रात में पुकारा है...जिस वक्‍़त सारी दुनिया गर्म घरों में दुबक जाती थी, मैं ठंडे कोहरे में भटकता रहा हूं। दोनों हाथ उठाकर मैंने  ईश्‍वर से मांगा है कविता का एक बार मुझ तक आना....सिर्फ़ एक बार वो मुझ तक आ जाए..कि..मैं उसे रच सकूं ...और उसके बाद पूरी कर सकूं 101 कविताएं...।


 डायरी से...








फोटो गूगल से

Thursday, January 15, 2009

सबसे ठंडी रात...


...तो  सूर्योत्‍सव बीत चला...और चतुर्थी भी अब बीती हुई ही तो है...। दिन बड़े होंने लगेंगे....शायद कुछ कम सर्द भी। लेकिन...सबसे ठंडी रात के आकर गुज़र जाने से पहले कैसे जा सकते हैं ये सब....कैसे जा सकते हैं...। सूर्य उत्‍तरायण में है....शुभ काम शुरू हो सकेंगे.....लेकिन सबसे शुभ रात के आकर जम जाने से पहले कैसे शुरू किया जा सकता है कोई और काम...। मैं नहीं कर सकता ...कम से कम ऐसा कोई काम तो हरगिज़ नहीं कर सकता जिसे शुभ कहा जा सके। मैं इंतज़ार करूंगा मौसम की सबसे ठंडी रात का ....उतनी ठंडी कि उसके बाद किसी और ठंड की गुंजाइश बाक़ी न रहे...। उस रात जब कोहरा बिल्‍कुल अंधा होकर बरसेगा.....मैं सर से लेकर पांव तक बर्फ़ हो जाऊंगा....मेरी उंगलियां सिगरेट पकड़ने की कोशिश में टेढ़ी होने होंगी....और  होंठ जमकर नीले पड़ जाएंगे...। होंठ ही नहीं मेरा सारा बदन नीला होने लगेगा... रगें जमी हुई सी.....मैं एक नाम पुकारना चाहूंगा लेकिन सांस ठंडी होकर उस नाम को जमा देगी...। ..ओवरकोट और जूते कोहरे की बारिश में पूरे भीग चुके होंगे......तब मैं एक कविता लिखूंगा...। .उसमें ऐसी आग भरूंगा कि वो सर्दियों का लोकगीत बन जाएगी..... प्रेम का ऐसा वर्णन होगा वहां,  कि लोग उसे तापकर मौसम बिता लिया करेंगे.....मैं उस कविता की देह में वो सारी उंसास रोप दूंगा जो अंतस में गरमाहट को छिपाए रखती हैं....उसे लिखते हुए अपने गाढ़े ठंडे लहू को इतना जलाऊंगा कि पढ़ने वाले हमेशा एक हरारत में डूबा हुआ महसूस किया करेंगे.....मौसम की सबसे ठंडी रात में एक कविता आसमान से उतरकर मुझ तक ज़रूर आएगी........। सबसे ठंडी रात का आना अभी बाक़ी है....कविता का मुझ तक आना अभी बाक़ी है...।


डायरी से...





फोटो गूगल से साभार