Thursday, December 25, 2014

हिंदुस्तानी थिएटर की मलिका

बेगम क़ुदसिया ज़ैदी की सौवीं सालगिरह (23 दिसंबर) पर उन्हें याद करते हुए हमें समझना चाहिए इस बात को कि क्यों उन्होंने अंग्रेज़ी या उर्दू थिएटर की बात न करते हुए हिंदुस्तानी थिएटर की शुरुआत की। क्यों उन्होंने भारतीय और विदेशी क्लासिक्स को हिंदुस्तानी ज़ुबान में लोगों के सामने रखकर थिएटर की एक पुख़्ता शुरुआत करने के लिए क़दम बढ़ाया था...





हुक़्क़े की नली छूते हुए चांदी की चिलम हाथ में लेकर वे कहा करतीं- मैं दिल्ली में ब्रेख़्त, शॉ, कालिदास, शूद्रक, आगा हश्र कश्मीरी का बेहतरीन थिएटर लेकर आऊंगी। अभी यहां जो हो रहा है वो बहुत चलताऊ और हल्का है। मैं दिल्ली वालों को सिखाऊंगी कि अच्छा थिएटर होता क्या है... बेगम क़ुदसिया ज़ैदी ने ये कहा और करके भी दिखाया। एक आला ख़ानदान की बेगमों वाली नजाक़त-नफ़ासत और ये यलग़ाराना तेवर...बेशक हंगामा बरपा होता होगा। लेकिन बेगम तो बेगम थीं जो ठान लिया था उस पर अड़ी रहीं। न सेहत की फि़क्र न ज़माने की परवाह। 1954 में उनसे आ मिले हबीब तनवीर और इस तरह शुरू हुई आज़ाद हिंदुस्तान की पहली अर्बन प्रोफेशनल हिंदुस्तानी थिएटर कंपनी। बेगम की दो आंखों में एक ही ख़्वाब पलता था। हिंदुस्तानी थिएटर दुनिया-जहान तक पहुंचे। लिखना, अनुवाद करना और देशी-विदेशी क्लासिक्स को इस तरह पेश करना कि वो आने वाले ज़माने के लिए मिसाल बने।
बेगम क़ुदसिया के बारे में पहली बार मैंने बलवंत गार्गी की किताब पर्पल मूनलाइट में पढ़ा था। तक़रीबन तीन पन्नों में जो जानकारी उन्होंने दी थी वो काफ़ी थी इस बात को समझने के लिए कि इन्होंने हिंदुस्तानी थिएटर को कायम किया था। सच कहूं तो इसके बाद बहुत कम सुना और पढ़ा उनके बारे में। मेरी पीढ़ी के ज़्यादातर लोग शायद उनके बारे में इतना ही या इससे ज़रा सा कम ही जानते होंगे। फिर अचानक पूर्णा स्वामी के ब्लॉग (बेगम ज़ैदी इनकी परनानी होती हैं) पर बेगम की फैमिली से जुड़ी दिलचस्प जानकारी देखी। पता चला कि सौ साल पहले लाहौर के एक पुलिस अफसर ख़ान बहादुर अब्दुल्ला साहेब के आंगन में एक कली खिली। नाम रखा गया उम्मतुल क़ुद्दूस अब्दुल्ला। जो बाद में अम्तुल और उसके भी बाद में बेगम क़ुदसिया ज़ैदी के नाम से जानी गई। रामपुर के कर्नल बशीर हुसैन ज़ैदी से ब्याही बेगम दिल्ली की उन शख़्सियतों में शुमार की जाती थीं जो अदब और आर्ट की जानकार होने के साथ-साथ सलीकेमंद और रसूखदार भी थीं। यही बेगम क़ुदसिया शमा ज़ैदी की मां और एमएस सथ्यू की सास भी हैं। सथ्यू उन्हें याद करते हुए कहते हैं-उनमें ग़ज़ब की एनर्जी थी। वे हर वक़्त काम करती थीं। बहुत क्रिएटिव और डायनमिक। उन्होंने हिंदी-उर्दू थिएटर का सपना देखा और उसे पूरा करने के लिए काम भी किया। वे बहुत जल्दी दुनिया से चली गईं, ज़िंदा रहतीं तो क्या बात थी।
बेगम बहुत कुछ करना चाहती थीं लेकिन वक़्त ने उन्हें मोहलत न दी। वे 1960 में ही चल बसीं। उनकी सौवीं सालगिरह के मौक़े पर दिल्ली में 23 दिसंबर से नाटक और सेमिनार का एक फेस्टीवल शुरू हो रहा है। लोग उन्हें याद करेंगे, उनकी बात करेंगे...और महसूस करेंगे बेगम की वही आवाज़-मैं दिल्लीवालों को सिखाऊंगी अच्छा थिएटर किसे कहते हैं .. इन्हीं बेगम के बारे में इस्मत चुग़ताई ने लिखा था -उसका चेहरा ही उसका ज़ेवर था। यानी इतनी हसीन कि सजने के लिए किसी ज़ेवर तक की ज़रूरत न पड़े। 

पंडित नेहरू को भी चुप करा दिया था उन्होंने  


जब मिट्‌टी की गाड़ी का शो फाइन आट्रर्स थिएटर में शुरू हुआ तो पंडित नेहरू परफॉर्मेंस देखने आए। वे बेगम (कु़दसिया) के साथ तीसरी कतार में बैठे थे। हममें से कुछ उनके पीछे चौथी क़तार में बैठ गए। जब नाटक तीन घंटे से ज्यादा खिंच गया तो नेहरू कुछ बेचैन से दे अपनी रेडियम घड़ी देखते पाए गए। बेगम ज़ैदी ने उन्हें टोका-वाह पंडितजी आप पार्लियामेंट में लंबी तकरीरों से बोर नहीं होते ? घड़ी की तरफ़ न देखें, नाटक देखें।
नेहरू ने चुपचाप बात मान ली।
शो के बाद, नेहरू स्टेज पर गए और कलाकारों के साथ तस्वीर खिंचवाने लगे। तेज़ रोशनियों में आंखें मिचमिचाते हुए वे चिल्लाए-क़ुदसिया स्टेज पर आओ ...उन्होंने हाथ हिलाया और एक मुस्कान फेंककर बोलीं-ना पंडित जी, मैं नहीं आऊंगी। आप अपनी तस्वीरें खिंचवाएं, मैं नहीं। वे स्टेज पर नहीं गईं।
वे कलाकारों के साथ सफर करतीं, मिट्‌टी की गाड़ी नाटक अऔर शकुंतला की परफॉर्मेंस देतीं रहीं, गहरा आर्थिक दबाव उनकी सारी बचत को खा चट कर चुका था। वे धूल और गर्मी में, ठसाठस भरे थर्ड क्लास कंपार्टमेंट में सफर कर लेती थीं। उनका नाज़ुक मिजाज़ ये सख़्ती झेल नहीं पा रहा था। जब वे एक छोटे से शहर में रात के वक्त टुअर पर थीं तो उन्हें हार्ट अटैक हुआ और इससे पहले कि उनके पति वहां पहुंच पाते, वे वहीं ढेर हो गईं।

एनएसडी दिल्ली में बेगम क़ुदसिया थिएटर फेस्टीवल
23 दिसंबर 2014
चाचा छक्कन के कारनामे
24 दिसंबर 2014
आज़र का ख़्वाब
25 दिसंबर 2014
मुद्राराक्षस 


यह लेख 20 दिसंबर2014 को दैनिक भास्कर रसरंग में छपा। 

Saturday, September 13, 2014

आज तू जो पास नहीं ...

अजब धुन है। गाने और मन दोनों की। महीनों बीत जाएं, कुछ न सुने। सुनने पे आए तो रुकते न बने। ये ग़ज़ल पिछले बरस एेसे ही सर चढ़ बैठी थी। जैसे-तैसे पल्ला छुड़ाया। आज फिर टाकरा हो गया। टाकरा इसलिए क्योंकि ये टक्कर से कुछ आगे की चीज़ है। सो,  फिर से दर्जनों बार सुनी जाएगी। अब तक शायद दस बार तो सुनी जा चुकी है।
सुनते हुए अक्सर इसे शेयर करने से मैं खु़द को रोक नहीं पाती। इसका एक-एक बोल मुझे इतना क़ीमती और सच्चा लगता है कि रहा नहीं जाता इसके बारे में बात किए बगै़र। ज़ाहिर है कई दोस्तों के पास ये ग़ज़ल पहुंच चुकी है।
मैंने पहली बार इसे कब सुना था...शायद तीन साल पहले। या उसके बाद...कुछ ठीक से याद नहीं। पर इसका एक छोटा टुकड़ा कहीं सुना और फिर ढूंढकर पूरी ग़ज़ल सुनी। पता चला 1967  की पाकिस्तानी फिल्म वक़्त की पुकार से है। नासिर बज़्मी की तर्ज़ पर बोल हैं रईस अमरोहवी के। ये फिल्म फ्लॉप बताई जाती है।
खै़र, हमें फिल्म से ज़्यादा सरोकार नहीं। हां इस ग़ज़ल को सुनते हुए तय करना कठिन हो जाता है कि अल्फ़ाज़ और आवाज़ में से उन्नीस कौन है। बराबर बीस वाले इस जादू में जितना डूबो उतना ही उतरते हैं।
मेहदी हसन साहब की आवाज़ में देखें ... जी रहा हूं तेरे बगै़र भी मैं...यहां कैसी नामोशी है लहजे में, जैसे साथ जीने की क़सम को खा लेने के बाद उसे तोड़ दिया गया हो, जैसे गहरी शर्मिन्दगी दामन पकड़े खड़ी हो....आगे देखें...पी रहा हूं अगरचे प्यास नहीं ...कमाल बात है प्यास नहीं है पर आप पी रहे हैं, ये मजबूरी हर कोई कहां समझ पाता है। ये पीना जिंदगी को जीने जैसा भी तो है।

शामे फु़रक़त है और तन्हाई....यहां सुनिए ये सचमुच की तन्हाई जैसी है। कोई आवाज़ है जो इस तन्हाई को दुकेला कर सके, कंपा देने वाली बात ....और फिर दिलासे के बोल-आ के अब कोई आसपास नहीं। जैसे एक शरारत की बात बहुत उदास सुर में कही जाए और रूह को चैन आ जाए।
कुछ 11 मिनट के इस जादू में मैं बार-बार डूबी हूं।
https://www.youtube.com/watch?v=p7NLB843N0Q

शहनाज़ बेगम की अावाज़ में इसी ग़ज़ल को सुनिए...लगेगा घुंघुरुओं की एक पोटली शहद की कटोरी में डुबोकर देर तक रखी गई है। घुंघरू खुलकर बिखर रहे हैं.। इससे पहले मैंने शहनाज़ बेगम को कभी नहीं सुना। उन्होंने यूं गाया जैसे सामने खड़ी ग़ज़ल को हरा देना चाहती हैं। इतनी मिठास के साथ अल्फा़ज़ को जीने और जीत लेने की जि़द इस तरह कम जगह पाई जाती है। ध्यान दें....शामे फु़रक़त है और तन्हाई....में ये आवाज़ तन्हाई तक जाती है  और जैसे तसल्ली भरा हाथ कंधे पर रखकर कहती है-आ के अब कोई आसपास नहीं ...कमाल है ना।
यहां ये जादू साढ़े तीन मिनट का है ...
 https://www.youtube.com/watch?v=EEDGCz2QyWA

और जब जादू बनाए रखने की ये वजहें सामने हों तो कम से कम आज के लिए बाक़ी चीजों को उठाकर कल पर रखा जा सकता है।



Saturday, June 28, 2014

सपने में भी भेड़ प्‍यासी हैं


बचपन हमारे मन के सबसे अंदर वाले कमरे में रखे संदूक जैसा होता है। बड़े होना उस पर एक ताला लगा देने जैसा है। कई बार हम ताला खोलकर उसमें झांक लेते हैं तो कई बार चाभी को कहीं रखकर भूल जाते हैं। बड़े होते हैं और बुढ़ाते हुए मर भी जाते हैं। संदूक भी यूं ही बंद का बंद हमारे साथ चला जाता है। मुझे ये संदूक बहुत प्रिय है। मैंने इस पर कभी ताला नहीं लगाया। मैं इसमें खूब झांकती हूं। आज दोपहर वाली झपकी भी इस संदूक को छूकर गुज़री और सपने में मैं पहुंची मेरठ में अपने उस घर में जो अब हमारा नहीं है।
मैं दरअसल घर में नहीं पहुंची बल्कि घर के बाहर हूं। भेड़ ही भेड़ और बकरियां मेरा रास्‍ता रोक रही हैं। मैं हॉर्न बजाकर उन्‍हें हटाने की कोशिश करती हूं। वे हटती नहीं। आखिर मैं घर के पीछे वाले मैदान में पहुंचती हूं। मैदान एक नदी बन जाता है। जिसमें पानी की जगह भेड़ और बकरियां भरी हैं। वे मुझे रास्‍ता नहीं देतीं। मेरी आंख खुल जाती है। शदीद प्‍यास मुझे अपने होठों से लेकर गले तक महसूस होती है। काफी देर मैं यूं ही पड़ी रहती हूं। मुझे समझ आता है कि वे सारी भेड़ बकरियां प्‍यासी थीं। काफी देर तक मैं पानी नहीं पीती। ये मेरी कोशिश होती है उनकी प्‍यास में शरीक होने की।
ये सारी भेड़ बकरियां जो आज सपने में आईं, दरअसल मेरे बचपन का सच थीं। हमारे घर से कुछ दूर आर्मी का बूचड़खाना था और वहां काटे जाने के लिए अक्‍सर ट्रकों में भरकर भेड़ बकरियां लाई जाती थीं। ये ट्रक हमारे घर के पीछे वाले उस बड़े मैदान में अनलोड हुआ करते थे जो मेरठ कॉलेज की जमीन थी। ये वही मैदान है जहां किसान नेता महेंद्र सिंह टिकैत ने अपनी पहली ऐतिहासिक रैली की थी। लेकिन ये सब बाद की बाते हैं। मैं बता रही थी कि कैसे वहां ट्रक भर कर आया करते थे। अक्‍सर गर्मियों की रात को जब ये ट्रक अनलोड होते थे भेड़ो के चिल्‍लाने की आवाजें हमारे घर तक आतीं। कुछ भेड़ें बहुत बूढी तो कुछ गर्भवती तक होती थीं। कई बार बहुत छोटे मेमनों के साथ भी हम उन्‍हें देखा करते थे।
मुझे याद है कि जब जब ट्रक अनलोड होते हमारी मां की टेंशन बढ़ जाती। मैं मेरा भाई और मां हम सब मिलकर उन्‍हें पानी पिलाया करते थे। मां कहतीं...बेचारियां न जाने कब से भूखी प्‍यासी होंगी। जाने कब आखिरी बार पानी नसीब हुआ होगा। मरने से पहले कम से कम पानी तो पी लें। हमारे घर में उन दिनों हैंड पंप हुआ करता था। मैं और मेरा भाई नल चलाकर बारी बारी से बाल्‍टी भरते और मां जाकर उन्‍हें पिलाकर आतीं। ये सिलसिला बुरी तरह थक जाने तक चलता। मां दुआ मांगतीं...अल्‍लाह जल्‍दी से इस इलाके में पानी की लाइन बिछवा दे मैं कम से कम इन्‍हें पेटभर पानी तो पिला सकूं।
फिर...बचपन चला गया। हम उस घर से बहुत दूर आ गए। मैदान अब भी वहीं है। बूचड़ख़ाना भी!  भेड़ बकरियां शायद अब भी वहां आती हों। उस इलाके में अब पाइप लाइन भी आ गई हैं। लेकिन क्‍या उनकी प्‍यास को अब भी वहां कोई महसूस कर रहा होगा....। पता नहीं। मुझे लगता है आज ज़रूर वहां भेड़ प्‍यासी होंगी..... प्‍यास तो शाश्‍वत है ! उन्‍हें पानी कौन देता होगा पता नहीं..पर .मां अब सड़क पर घूमने वाली गायों को पानी पिलाया करती हैं।