Monday, September 27, 2010

अकेला घर करीम का.....

वो देश का सबसे बड़ा अल्‍पसंख्‍यक है। उसकी गिनती ख़ुद से शुरू होती है और वहीं ख़त्‍म भी हो जाती है। पूरे गांव में अकेला मुसलमान, करीमबख्‍़श। उम्र पिचासी पार जाने लगी है और अब बस ख्‍वाहिश इतनी ही बची है कि इसी मिट़टी पर दम निकले, जहां पैदा हुआ था। 1947 का बंटवारा भी उसे इस ज़मीन से जुदा नहीं कर सका था। जिस रात गांव के सारे मुसलमानों ने पाकिस्‍तान जाने का फ़ैसला किया तो करीम बख्‍़श अपने ननिहाल भाग गया। तब उसकी उम्र 22 बरस की थी। बताते हैं उसकी मंगनी हो चुकी थी और फ़साद न होते तो जल्‍दी ब्‍याह भी हो जाता।

खै़र, कुछ अमन हुआ और करीम अपने गांव लौटा तो सारे घर जले हुए थे। असबाब लूटे जा चुके थे और जो बाक़ी थी उसे भी अपना नहीं कहा जा सकता था। पाकिस्‍तान से उजड़कर आए लोगों को ये गांव अलॉट किया जा रहा था। और तो और वो मस्जिद भी करीम की अपनी नहीं रही थी जिसमें वो अज़ान दिया करता था। वहां गुरुग्रंथ साहिब का प्रकाश किया जा चुका था। ये सब तरेसठ साल की बाते हैं।

इतना लंबा वक्‍त बीता और आज तक कभी करीम ने इस गांव से कोई शिकायत नहीं की। दुनिया बदली लेकिन ये इंसान वही रहा जो था। उसने कभी पलटकर ये नहीं कहा कि इस मस्जिद में मैंने नमाज़ पढ़ी है, इसलिए अब वाहेगुरू की फतेह बुलाने से मुझे परहेज़ है। वो कहता है' वो भी रब का नाम था ये भी रब का नाम है। बहुत सहज मन और निर्दोष आवाज में ये बात कहते हुए करीम बख्‍श एक पल में उन सारे मर्मज्ञों को पीछे छोड़ देता है जो इस बात को साबित करने में जीवन लगा गए कि ईश्‍वर एक है, उसे किसी भी भाषा  या स्‍वर में पुकारो, वो सुन ही लेता है। इसी जगह पंद्रह बरस से ग्रंथी के तौर पर रह रहे जरनैल सिंह का कहना है, जब ये मस्जिद थी तो भी रब का घर थी और आज गुरुद्वारा है तो भी रब का घर ही है। यहां आकर लोग सिर झुकाते हैं बस मैं इतना ही जानता हूं।

पूरे गांव के बीच एक अकेला, ग़रीब मुसलमान अपने सेक्‍युलरिज्‍़म के साथ सब पर भारी पड़ता है। करीम का दिल जितना बड़ा है गांव के लोगों ने भी उसे उसी तरह अपनाया है। किसी के घर ग़म हो या खुशी सबसे पहले करीम वहां पाया जाता है। उसकी उम्र के बाक़ी बुजु़र्ग कहते हैं; न ये हमसे अलग है और न ही हम इससे। इसके बेटे शहर में रहते हैं, ये वहां जाता है और वापस आ जाता है। इसका मन यहीं रमता है।

करीमबख्‍श सचमुच इस गांव को छोड़कर कहीं नहीं जा सकता। वो यहीं जी रहा है और एक दिन यहीं मर जाएगा। हां, ये ख़बर पाकर उसके बेटे एक गाड़ी लेकर आएंगे ताकि उसे दफ़नाने के लिए शहर में ले जाया जा सके, करीम के गांव में उसके जीने के लिए तो जगह है, कब्र के लिए नहीं। मुसलमान चले गए थे तो कब्रिस्‍तान की ज़रूरत भी ख़त्‍म हो गई थी। अब वहां मुर्दे नही लोग रहते हैं।

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पंजाब में पटियाला जि़ले के ढकौंदा गांव में रहता है ये शख्‍स करीम बख्‍श। इन दिनों जो माहौल है उसमें कुछ ऐसे लोगों की कहानी ढूंढने की कोशिश में मुलाकात हुई इनसे, जो सचमुच रब के बंदे हैं, जिनका ईश्‍वर इमारतों में नहीं रहता।
ये खबर 26 सितंबर 2010 को दैनिक भास्‍कर में प्रकाशित हुई।

Thursday, September 2, 2010

A room of one's own ...


Restorer Ella Hendriks shows pictures of the various stages of restoration of Vincent Van Gogh's 'The Bedroom' painting, rear left on easel, at the Van Gogh museum in Amsterdam, Netherlands, Thursday Aug. 27, 2010. Vincent van Gogh must have been horrified when he returned to his studio from hospital early in 1889 to find one of his favorite paintings damaged by moisture. He pressed newspaper to the canvas to protect it from further deterioration, rolled it up and sent it to his brother Theo in Paris. Ella Hendriks could still see traces of newsprint when she looked at "The Bedroom" under a microscope, as she picked and scraped at earlier restorations of the canvas and removed yellowing varnish that had been brushed on 80 years ago. Hendriks has completed a painstaking six-month restoration of the masterpiece, which returns to its place on the wall of the Van Gogh Museum on Friday. (AP Photo/Peter Dejong)

note...see this link www.vangoghmuseum.nl/blog/slaapkamergeheimen/en/the-bloggers/ if want to read more about the bedroom masterpiece.