Monday, February 23, 2009

सांड, टेपचू और एक उम्‍मीद के बहाने



...और जब किसी मनुष्‍य के पास स्‍वप्‍न न रह जाएं, फैंटेसी न रहे और मिथक नष्‍ट हो जाएं तो वह घनघोर व्‍यवहारिक, यर्थाथवादी आदमी के रूप में बचा रह जाता है। स्‍म्रतिहीन, आध्‍यात्‍मवंचित, स्‍वप्‍नशून्‍य, आदर्श विरत, सपाट, चौकोर, दुनियादार, तिकड़मी, घटिया आदमी.....।
....ज्ञान अब सिर्फ़ उसकी स्‍म्रतियों में संग्रहीत डाटा या तथ्‍य भर रह गया था। पहले की तरह भावुकता, आस्‍था और विमूढ़ सम्‍मोहन अब कहीं नहीं था। वह वस्‍तुपरक, व्‍यवहारिक और निपट वास्‍तविकतावादी हो गया था। (उदय प्रकाश की वॉरेन हेस्टिंग्‍स का सांड से ली गई पंक्तियां)


दुनियादार हो जाना बुरा नहीं है लेकिन उसे निभाने के लिए तिकड़मी हो जाना  अक्षम्‍य है ,  ख़ासतौर पर इंसान के संदर्भ में, जिसे बंजर ज़मीन पर सपने बीजने से लेकर, उनकी लहलहाती खेती के उल्‍लसित होने तक नाचते देखा हो। मैंने उसके सपनों की हरियाली बेल को सूखते और उसे स्‍वप्‍नशून्‍य होते भी देखा। फैंटेसी से लबालब एक जीवन को सपाट होते देखा। घोर व्‍यवहारिकता के जंगल में एक जिंदादिल इंसान को बेलौस दौड़ते देखा सुविधाओं और दुनियादारी के पीछे। उसके जीवन का सपाट हो जाना, दुनियादार और तिकड़मी हो जाना कितना दुखद है। एक मनुष्‍य का अमानुष हो जाना उससे भी ज्‍़यादा त्रासद लगता है। उसने बहुत जल्‍दी स्‍वीकार किया सपनों के मर जाने को, लेकिन मैं याद दिलाना चाहती हूं कि सपने कभी मरते नहीं। उनकी सूखी हुई बेल को उखाड़कर जला डालो तो भी हरे हो उठते हैं, राख बनकर हवा में घुल जाएं तो भी जिंदा रहते हैं। ये पोस्‍ट सपनों और उम्‍मीदों के नाम ही है। साथ ही हार मान बैठे उस इंसान के नाम भी जिसके पास सलामत पांव, हाथ और दिमाग़ था जबकि उसने कहा कि मैं थक कर गिर चुका हूं हमेशा के लिए।

हां, मुझे बिल्‍कुल मंजूर नहीं है जिंदगी को इस तरह सपाट कर लेना। ऊबड़-खाबड़ और पथरीली जिंदगी पर बार-बार जख्‍़मी होना, थककर गिर जाना मैं बेहतर समझती हूं। मैं खिलाफ़ हूं इस तरह दुनियादार हो जाने के। मुझे तकलीफ़ होगी उस बैल को देखकर जो दो वक्‍़त का चारा आराम से खा सकने के लिए जीवन भ्‍ार आंख के आसपास लगे उस पतरे को सहता रहता है जो उसे एक ही दिशा में देखने की इजाज़त देता है। मैं उस बिगड़ैल सांड के पक्ष में हूं जो इम्‍पीरियल बग्‍घी को चकनाचूर कर देता है, बिना इस बात की परवाह किए कि उसे इम्‍पीरियल आर्मी की टुकड़ी गोली मार देगी। बख्‍शा नहीं जाएगा।

मैं इंसान बने रहना चाहती हूं इसीलिए मुझे यक़ीन है सांड के जिंदा होने पर, टेपचू के पोस्‍टमार्टम के वक्‍़त आंख खोलकर देखने पर और उस उम्‍मीद पर जो पूरी तरह टूट चुकी हो, चूर-चूर होकर रेत हो चुकी हो लेकिन थकी आंखों के झपकने से पहले ही पूरी की पूरी आपके सामने आकर जिंदा हो जाए। मैं कायल हूं ऐसी उम्‍मीद की जो कभी मरती नहीं, किसी भी स्थिति में हार नहीं मानती और परि‍स्थितियों को पूरा मौका देती है अपना दम-ख़म आज़मा लेने का। उम्‍मीद को कोई कैंसर कहे, जिन्‍न कहे, हारी हुई बाज़ी कहे या फिर रेत में मुंह छिपा लेने की आदत ...मैं नहीं मान सकती कि उम्‍मीद की मौत कभी होती है। वो तो जि़दा रहती है बेड़ा ग़र्क हो जाए तो भी।









नोट- ठीक एक साल पहले आज के दिन खू़ब सर्दी थी और अवसाद भी। मैं दफ़तर से पंजाब यूनिवर्सिटी तक पैदल ही चली गई थी। एक वादा पूरा करना था जो कुछ माह पहले हमने इंडियन थिएटर डिपार्टमेंट के प्रोफेसर जी कुमारवर्मा से किया था, जब वे उदयप्रकाश की कहानी वॉरेन हेस्टिंग्‍स का सांड पर नाटक करने के शुरुआती प्रोसेस में थे। बाद में हमने इस बात को भुला दिया लेकिन प्रोफेसर को याद रहा। एक दिन उनका फ़ोन आया कि नाटक देखने ज़रूर आएं। नाटक तभी देखा था और टेपचू कहानी बाद में पढ़ी। मैंने इन दोनों क्रतियों में जिस चीज़ को बहुत गहरे तक महसूस किया वह है ऐसी उम्‍मीद का हर हाल में जिंदा रह जाना जो इंसान के मर जाने पर भी मरती नहीं। फरवरी की उस शाम मैं मर सकने लायक उदास थी लेकिन नाटक देखने के बाद मुझे अपनी उम्‍मीद का पता मिल गया था।

Saturday, February 21, 2009

वो क्‍यों नहीं किसी के साथ भाग जाती....

मुझे सचमुच इस चीज़ से फ़र्क नहीं पड़ता कि उसे कैसा लगता है मेरे बिना...खा़सतौर पर मैं उन दिनों से सीधे-सीधे आंख बचाकर निकल जाता हूं जिन पर हमने अपने नाम लिखकर उड़ा दिए थे। मैं वाकई नहीं जानना चाहता कि उड़ते रहने वाले वे दिन जब उसकी आंखों में उतर कर धुंआं घोलते हैं कि कितनी कड़वाहट होती है, दरअसल मैं उसकी तरफ़ देखता ही नहीं। क्‍यों देखूं जबकि मुझे पता है कि न देखने की क़सम मैंने ही खाई है, और क्‍यों फिर जाऊं अपनी क़सम से जबकि मुझे पता है कि इससे मेरी जि़दगी में कितना आराम आया है। कवि होने का यह अर्थ तो हरगिज़ नहीं निकाला जाना चाहिए कि सारी चिरकुटई की जि़म्मेदारी मैंने ही ली है, अरे जिसे जो महसूस करना है करे, मैं तो अपनी जिंदगी को ठीक करना चाहता हूं, कर भी रहा हूं।

ये वेलेंटाइन-डे था और मैं उस सारी मनहूसियत का सामना नहीं करना चाहता था जो उसके चेहरे से बरसती रहती है, तो भी मेरा रास्‍ता काटकर ही गई न। बाद में हरे कांच से बाहर झांकती रही शायद ये सोचकर कि मैं उसे देख रहा हूं। मेरा ईश्‍वर जानता है कि मैंने एक बार नज़र भर कर उसकी तरफ़ नहीं देखा लेकिन वो शायद मुझे चिढ़ा देना चाहती थी, तभी तो वही झुमके पहनकर आई थी जो मैंने अपनी मूर्खता की पराकाष्‍ठा को छूते हुए उसे लाकर दिए थे। अब कितनी कोफ़त होती है ये सोचकर कि मैंने झुमके ख़रीदने के लिए अपनी बीवी का क्रेडिट कार्ड इस्तेमाल किया, जबकि घर में लंबे समय से इस बात को लेकर तकरार थी कि मैं घरवाली के लिए कोई तोहफ़ा लाता ही नहीं। कवि हूं तो क्‍या इस शर्मिंदगी को महसूस करना भी बंद कर दूं कि जीवन का एक पहला वेलेंटाइन वही था जब मैंने अपनी पत्‍नी के अलावा किसी और को गुलाब का फूल भी लाकर दिया था।

कितने बरस गुज़र गए लेकिन हर साल इस दिन अब भी घर में उस ग़लती के लिए ताना सुनना पड़ता है और काम पर आओ तो ये बेवकूफ़ औरत हमेशा अपना बेसुरा प्रेमगीत अलापती घूमती है। मैं सचमुच इस सब से ऊब चुका हूं, ये औरत कहीं चली क्‍यों नहीं जाती....क्‍यों नहीं किसी और के प्रेम में पड़ जाती, क्‍यों नहीं किसी के साथ भाग जाती, क्‍यों मेरे प्रेम को माथे पर इश्‍तेहार की तरह चिपकाए घूमती है, बिना ये सोचे कि मुझे कितनी परेशानी होती है इस ख़याल से भी कि कभी मैंने उसी माथे को चूमकर कुछ कहा था। मैं सचमुच चाहता हूं कि वो बेवफ़ा हो जाए, मैं उसे किसी के साथ इस तरह देख लूं कि उसे सरे राह दो झापड़ रसीद कर सकूं.... रंगे हाथों इस तरह धर दबोचूं कि वो मिमियाकर, दुम दबाकर मेरे सामने से हमेशा के लिए दफ़ा हो जाए। कुछ ऐसा देख लेना चाहता हूं कि दोस्‍तों के बीच खड़े होकर उसे चार गालियां दे सकूं....मैं सचमुच चाहता हूं कि वो मुझे धोखा दे दे....सचमुच का धोखा।




-एक  डायरी se..

Thursday, February 12, 2009

मौसम किसी का उधार नहीं रखते





ये बारिश कहीं और की थी...बर्फ़ भी शायद यहां की नही थी....किसी और जगह बरसना और बिखरना था इन्‍हें...। तो यहां क्‍यों आए....हां शायद कोई उधार बाक़ी रह गया था किसी का...ज़रूरी नहीं है कि भीगकर और छूकर ही कहा जाए कि मौसम किसी का उधार नहीं रखते...यूं भी समझ आ ही रहा है कि मौसम इंसान नहीं होते....बस मौसम होते हैं। कभी आने में देर भले ही कर दें लेकिन आने का वादा तो निभाते ही हैं।

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इस बार सर्दियों में बारिशें कम हुईं और शिमला जैसी जगहों पर मौसम की बर्फ़ के लिए भी लगभग तरसना ही पड़ा...अब जबकि लगने लगा था कि क्‍या बारिशें होंगी, क्‍या बर्फ़ गिरेगी, अचानक मौसम ने जता दिया कि ये उसकी अपनी मर्जी है कि वो कब कहां जाए।
बारिश की तस्‍वीर चंडीगढ़ में दफ़तर के बाहर हमारे सहयोगी रविकुमार ने ली और शिमला मे गिरी बर्फ़ की फ़ोटो एपी से ली गई है, फ़ोटोग्राफ़र हैं अनिल दयाल।

Tuesday, February 3, 2009

तुम नेपोलियन नहीं हो...

लोगों को सोने से रोकना बहुत भयानक होता है...इससे वे पागल हो सकते हैं। मुझसे यह बर्दाश्‍त नहीं होता, सात साल हो गए मैं सड़ रही हूं, यहां बिलकुल अकेली, एक अछूत की तरह और वह गंदा झुंड हंस रहा है मुझ पर...इतने ऋणी तो तुम मेरे हो कि बदला लेने में मेरी मदद करो। मुझे कहने दो...जानते हो, मेरे ढेरों क़र्ज़ हैं तुम पर, क्‍योंकि तुम्‍हीं ने मुझे प्‍यार में पागल होने का झूठ दिया। मैंने फ़लोरेंत को छोड़ा, दोस्‍तों से बिगाड़ी और अब मुझे यूं चित्‍त छोड़ जाओगे...तुम्‍हारे सारे दोस्‍त मेरी ओर देखते ही पीठ फेर लेते हैं। तुमने मुझसे प्‍यार का नाटक क्‍यों किया। कभी-कभी मैं सोचती हूं, कहीं वह साजि़श तो नहीं थी...हां, एक साजि़श। इस पर बिलकुल विश्‍वास नहीं होता, वह हैरतअंगेज़ प्‍यार और अब मुझे छोड़ देना...क्‍या तुम्‍हें इसका अहसास नहीं होता...।
मुझे फिर से यह मत बताओ कि मैंने लालच में तुमसे ब्‍याह किया, मेरे पास फ़लोरेंत था। मुझे ठेला भर लोग मिल सकते थे, और साफ़ समझ लो कि तुम्‍हारी पत्‍नी बनने के ख़याल से मैं क़तई चमत्‍क्रत नहीं हुई...तुम नेपोलियन नहीं हो। तुम जो कुछ सोचते हो मुझे फिर कभी मत बताना, वरना मैं चिल्‍लाऊंगी। तुमने कहा कुछ भी नहीं है, पर मैं तुम्‍हें मुंह ही मुंह में उन लफ़ज़ों को चुभलाते सुन सकती हूं। यह झूठ है, यह बहुत बड़ा झूठ है चिल्‍लाने का मन होता है। तुमने मुझे प्‍यार में पागल होने की बकवास सुनाई और मैं उसके चक्‍कर में आ गई...नहीं बोलो नहीं। सुनो, मुरियेल मेरे लिए मुझे तुम्‍हारे जवाब याद हो गए हैं। तुम उन्‍हें सैकड़ों बार दोहरा चुके हो। हंसो मत, इससे मेरे भीतर अब कुछ नहीं उतरता। ये गु़स्‍सैल निगाह अपने पास रखो...हां मैंने कहा, गु़स्‍सैल निगाह, मैं तुम्‍हें रिसीवर में से देख सकती हूं....।
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एक गुमशुदा औरत की डायरी-सिमोन द बोउवा की लंबी कहानियां से
अनुवाद ललित कार्तिकेय।

शाम भर चांद-फि़ज़ा प्रसंग से जूझते हुए देर रात इस इस किताब को पढ़ने के बाद यूं ही सी पोस्‍ट।