Friday, August 29, 2008

बस इश्‍क़... मुहब्‍बत... अपनापन...

आंखों मे गुस्ताख़ी, प्यार कर लेने की। कुफ़्र सर लेने की। जिंदगी,  इश्क़ में बसर कर देने की। बसर करने से पहले ही अंधे कुएं में जिंदा  दफ़न होने पर भी प्यार से तौबा न करने की। इसी गुस्ताख़ी का नाम है अनाकरली। जिसने इश्क़ किया महलों की दीवारों को झकझोर कर, हिंदोस्तान के तख्त़ को हिलाकर और हारकर भी जीत गई महाबली अकबर से। इतिहास में इसका कोई जिक्र नहीं है। कहानी सुनी-सुनाई, फिल्मी पर्दे पर देखी-दिखाई हो सकती है लेकिन क्या करेंगे अनारकली के उस मक़बरे का जो सैकड़ों बरसों से एक ही रट लगाए है कि यहीं जिंदा दफ़न है अनाकरकली। गुस्ताख़ नज़रों वाली अनारकली, सैकड़ों बरस गुज़र जाने पर भी जिसका सिर्फ़ जिस्म ही खा़क हो सका। वो आंखें आज भी जिंदा हैं, हां नही दिख पाती हरेक को। उन्हें देखने के लिए दीदावर चाहिए जो बदकिस्मती से पैदा ही न हो सका। और अगर हुआ भी होगा तो न पहुंच सका उस जगह जहां दफ़न है एक कली अनार की, जो आखिरी सांस तक कहती रही- इसे मजा़र मत कहो, ये महल है प्यार का।

साहिबे आलम का इंतजार अनारकली को सदियों से है, लेकिन शहजा़दे की लाचारी फिर भी अपनी जगह कायम है। बेचारी अनारकली दीवार में चुनवा दी गई या एक अंधेरे कुएं में जिंदा दफ़न कर दी गई, रही तो कनीज़ ही। शहजा़दे की कि़स्मत में तवारीख़ का हिस्सा बनना तो लिखा था, अनारकली के तो वजूद को भी नकार दिया गया। भला हो उस इश्क़ का, जो किसी भी वजूद से बड़ा था, जिसने तवारीख़ में नहीं लेकिन लोगों के दिलों में अनारकली को जगह दी। अनारकली का जि़क्र दरअसल बात है उस इंतजा़र की जो धड़कता है लाहौर में अनारकली बाजार में बने मजा़र से लेकर हर उस दिल में जहां प्यार का बूटा उगता है। वही इंतजा़र जो अनारकली की गुस्ताख़ आंखों की सियाही को और काला कर गया होगा, मौत से बस एक पल पहले,  सांस घुटने तक ये इंतजा़र कायम रहा होगा और इसी इंतजा़र के पीछे रही होगी वो उम्मीद जिसमें शहजा़दा आकर उसे गले लगाने वाला था। सदियों के बावजूद अगर वो जि़क्र बाकी है, तो यकीनन बाकी होगा अनाकरकली का इंतजा़र भी।

इंतजा़र बहुत जानलेवा होता है, खा़सतौर पर उस वक्त़ जब सिर्फ एक फरीक़ इंतजा़र में हो और दूसरे को ये अहसास भी न हो कि उसे कहीं पहुंचना भी है। ऐसा ही इंतजा़र तो था अनारकली का।  ईंट-दर-ईंट जब उसे मिटाया जा रहा था तो शहजा़दा सलीम को कहां पता था कि उसे कहीं पहुंचना है.... कोई है !  जो उसके इंतजार में मिट जाने वाला है। कोई है,  जो हर गुज़रने वाले पल के साथ मौत के और ज़्यादा क़रीब होता जा रहा है। वजह चाहे जो रही हो लेकिन नतीजा तो यही था कि सलीम वहां नहीं पहुंच पाया।
अनारकली महज़ एक कि़स्सा नहीं है, एक कहानी नहीं है बल्कि एक जज़्बा है खुद को कुर्बान कर देने का। इसी जज़्बे को पिछले साठ बरस में अलग-अलग अंदाज में पर्दे पर उतारा गया। बीना राय, नूरजहां और मधुबाला और ईमान अली, सबने अनारकली के दर्द को पर्दे पर अलग-अलग अंदाज में बयां किया, लेकिन एक चीज हर जगह कॉमन थी और वो था अनारकली का इंतजार। इस इंतजार का प्रोजेक्शन सोचा-समझा नहीं था, बल्कि ये था इस कैरेक्टर का असली रंग। बीना राय ने कहा- जो दिल यहां न मिल सके, मिलेंगे उस जहान में, उसका इंतजार सात आसमान के पार तक का था। मधुबाला कहती रही- उनकी तमन्ना दिल में रहेगी, शम्मा इसी महफिल में रहेगी और मरते दम तक वो एक और इंतजा़र में मुब्तिला रही। अगर बात करें 2003 में शोएब मंसूर वाले सुप्रीम इश्क़ अलबम की, तो उसमें ईमान अली कहती हैं- साहिबे आलम कहां रुके हो, कली तुम्हारी मुरझा रही है.. यानी अलग-अलग वक्‍़त और लोगों ने जब अनारकली को अपने-अपने अंदाज़ में पेश किया, तो भी उसके कैरेक्टर में बसे दर्द और इंतजा़र को अलग नहीं कर पाए। यही कामयाबी है अनारकली के इश्क़ की और इसी वजह से हमेशा कायम रहेगा इश्क़, मोहब्बत अपनापन, बेशक दुनिया कहती रहे कि वो हकीकत नहीं एक फ़साना भर थी।

(यह पाकिस्‍तान के सबसे महंगे म्‍यूजिक वीडियो में से एक था. संगीत और निर्देशन शोएब मंसूर का है और आवाज़ वहां की मशहूर गायिका शबनम मजीद की. नीचे बोल भी दिए हैं. फ़ारसी हिज्‍जों या शब्‍दों में ग़लती हो सकती है, वह मुझे नहीं आती.)






इश्‍क़ रो हसरत परस्‍तो हर परी
असफ़रोजे अर्श ओ तख्तो सरी
शर हे इश्‍क गरमान बेगोये
सद के योमत...

ये, दू, से, चो


शहंशाह ए मन, महाराज ए मन
ना ही तख्‍त ना ही ताज ना
शाही नाज़र ना धन
बस इश्‍क़ मुहब्‍बत अपनापन

जरा फ़रामोश करदीके ऊ या कनीज़ाज़
वले कबीरो नाज के मलिका ए शरद मलिका ए हिंदुस्‍तान
क़सम बादौलते हिंदूज़ीन ई तुर ना खाद शाद
क़सम बी जमाल ए अनारकली ईन शनीन खाद शाद


मुग़ल ए आज़म जि़ल्‍ले इलाही
महाबली तेरी देख ली शाही
ज़ंजीरों से कहां रुके हैं
प्‍यार सफ़र में इश्‍क़ के राही
गातें फिरेंगे जोगी बन बन
इश्‍क़ मुहब्‍बत अपनापन

जि़ंदगी हाथों से जा रही है
शाम से पहले रात आ रही है
साहिब ए आलम कहां रुके हो
कली तुम्‍हारी मुरझा रही है
जाते जाते भी गा रही है
बस इश्‍क़ मुहब्‍बत अपनापन.

Monday, August 11, 2008

अपने-अपने इमरोज़




पहली पोस्ट पर अपने कमेंट में घुघूती जी ने लिखा था...हम सब अपने-अपने इमरोज़ को ढूँढ रही हैं। परन्तु क्या इतने इमरोज़ इस संसार ने पैदा किये हैं?....ऐसे ही सवाल निरुपमा में घर में भी उठे थे उस दिन। लंबी बातचीत के बीच कभी कोई कह उठती हमें इमरोज़ क्यों नहीं मिला.. तो किसी ने कहा- हमारे हिस्से का इमरोज़ कहां है....? कहां है वो शख्स जो अपनी पीठ पर एक गै़र नाम की इबारत को महसूस करते हुए भी पीठ नहीं दिखाता? एक हाथ से दी गई थाली को दो हाथों से स्वीकार करते हुए अपने चेहरे पर एक शिकन तक आने नहीं देता... कहां है वो प्रेम जो खु़द को मिटा देने की बात करता है.... कहां है वो इंसान जो किसी के चले जाने के बाद भी उसके साथ होने की बात करता है? हम सब ढूंढती हैं पर वो कहीं नहीं दिखता। शायद इसलिए कि ऐसे इमरोज़ को पाने से पहले अमृता हो जाना पड़ता है। दुनियादारी की चादर को इस तरह तह करके रखकर भूल जाना होता है कि उसकी याद तक न आए। उस चादर को बिना बरते जिंदगी गुज़ार सकने की हिम्मत पैदा कर लेनी होती है। हो सकता है, बहुत सारे अमृता और इमरोज एक ही वक़्त पर एक ही जगह इसलिए भी न दिख पाते हों कि उन्हें याद ही नहीं रहा है दुनियादारी और दुश्वारियों की चादर को कैसे तह करके रखा जाता है।

खै़र अपनी-अपनी चादरों की संभाल के बीच भी अपने-अपने इमरोज़ को ढूंढते रहा जा सकता है, क्योंकि ईश्वर अभी भी है कहीं...। मैंने उनसे इजाज़त ली और एक बार फिर ये नज़्म सुनाने को कहा-


साथ

उसने जिस्म छडया है, साथ नहीं
ओह हुण वी मिलदी है
कदे बदलां छांवे
कदे तारेयां दी छांवे
कदे किरणां दी रोशनी विच
कदे ख्यालां दे उजाले विच
असी रल के तुरदे रैंदे वां।

दुख-सुख, इक दूजे नूं वेख-वेख
कुझ कैंदे रैंदे आं
कुझ सुणदे रैंदे आं।
बगीचे विच सानूं
तुरदेयां वेख के
फुल्ल हर वार सानूं बुला लेंदे हण
असी फुल्लां दे घेरे विच बैठ के
फुल्लां नूं वी
अपणा-अपणा कलाम सुनादें आं।

ओ अपनी अनलिखी कविता सुनांदी है
ते मैं वी अपणी अनलिखी नज़म सुनांदा वा
कोल खड़ा वक्त
एह अनलिखी शायरी सुनदा-सुनदा
अपणा रोज दा
नेम भुल जांदा ए।
जदों वक्त नूं
वक्त याद आंदा ए
कदे शाम हो गई होंदी है
कदे रात उतर आई होंदी है
ते कदे दिन चढ़या आया होंदा है।

उसने जिस्‍म छडया है साथ नहीं...

- इमरोज़

Sunday, August 10, 2008

इस बार तू पहले ब्याह मत करना

पिछली पोस्‍ट से आगे

सच को दूर से देखो तो उस पर सहज ही विश्वास हो जाता है। सामने आकर खड़ा हो जाए तो उसे छूकर, परख लेने का जी होता है। शायद हम तसल्ली कर लेना चाहते हैं कि सच को छूना ऐसा होता है, उसे जान लेना ऐसा होता है। अमृता-इमरोज़ का प्रेम ऐसा सच है जो पूरा का पूरा उजागर है। कहीं कुछ छिपा हुआ नहीं दिखता... तो भी इमरोज़ को सामने पाकर इच्छा होती है जान लेने कि फलां बात कैसे शुरू हुई थी, फलां वक़्त क्या गुज़री थी उनपर। यही वजह थी दोपहर से लेकर शाम तक इमरोज अमृता की ही बातें करते रहे। ये सारी बातें वही थीं जो हम अब तक कई बार पढ़ चुके थे, सुन चुके थे।

इमरोज़ सुनाने लगे- उड़दे क़ाग़ज़ ते मैं उसनूं नज्मां लिखदा रहंदा हां, जदों वी कोई पंछी आके मेरे बनेरे ते आ बैठदा, मैं जवाब पढ़ लेंदा हां....। नज़्मों का अमृता तक जाना और उसके जवाब का आ जाना... ये बात शायद किसी के लिए एक ख़याल भर हो सकती है, लेकिन इमरोज़ के लिए उतना ही सच है, जितना उनके आंगन में खिले वो हरे बूटे जिन्हें पानी देते हुए वे अक्सर 'बरकते...' कहकर अमृता को पुकारा करते थे। उनमें से कुछ पौधों ने उन्हें साथ देखा ही होगा न, और उस बनेरे ने भी... जिस पर आकर पंछी बैठते हैं। मुझे लगा कि उन्हें साथ देखकर ही किसी दिन पंछी और बनेरे के बीच तय हुआ होगा इस संदेस के ले जाने और लाने का मामला।

इमरोज़ उस घर में रहते हैं जहां अमृता का परिवार है। जब मैंने पहली बार वो घर देखा तो ऊपरी तरफ़ कुछ विदेशी लड़कियां किराए पर रहती थीं। और नीचे की जगह में 'नागमणि' का दफ़्तर था। अब वहां क्या है...? इमरोज़ बताते हैं- अब नीचे भी किराए पर दे दी है जगह। अपनी जेब से इमरोज़ काग़ज़ का पैकेट सा निकालते हैं। पता चला वे चमड़े का बटुवा नहीं रखते। एक काग़ज के लिफ़ाफे़ में पैसे रखकर उस पर कुछ टेलीफोन नंबर लिखते हैं जिन्हें इमरजेंसी में कॉल किया जा सके। ये नंबर उनके हैं जो अमृता के बच्चे हैं। इमरोज़ और अमृता के नहीं। इतना साथ, इतना प्यार, इतना समर्पण, तो इन दोनों के बच्चे क्यों नहीं.....? इमरोज़ बताते हैं- अमृता तो पहले ही दो बच्चों की मां थी। हमने मिलकर तय किया था कि इनके अलावा हम और कुछ नहीं सोचेंगे। लेकिन क्या तय कर लेना भर काफ़ी था, अपनी इच्छाओं के आगे...? उन्होंने कहा- काफ़ी नहीं था पर हमने इसे मुमकिन कर लिया था। एक बार मैंने उसे कहा- अगली बार जब मिलेंगे, तो हम अपने बच्चे पैदा करेंगे... बस इस बार तू मुझसे पहले ही ब्याह मत कर लेना। अमृता ने जाते-जाते भी मुझसे यही कहा है न- मैं तैनूं फेर मिलांगीं...





इमरोज़ उस तस्वीर को देख रहे थे जिसमें अमृता उनके हाथ में खाने की थाली पकड़ा रही हैं। तस्वीर का सच उनके चेहरे पर उतर कर आ बैठा था। मानो कह रहा हो, कितने मूर्ख हो तुम सब, जो इस रिश्ते को परिभाषा में बांधने की बात करते हो। इस तस्वीर को देखो और दुनिया की किसी भी पतिव्रता के चेहरे से उसका मिलान कर लो, कहीं भी कोई भाव को उतार पाएगी क्या, जो अम्रता की आंखों में नजर आ रहा है। अमृता दाएं हाथ से थाली पकड़ा रही हैं और इमरोज़ दोनों हाथों से उसे स्वीकार कर रहे हैं। ये महज तस्वीर नहीं है, इसमें एक फ़लसफ़ा नज़र आ रहा है। किसी को खुद को सौंप देने का, किसी का उसे दोनों हाथों से स्वीकार कर लेने का, हमेशा-हमेशा के लिए। ग़ौर से देखेंगे, तो आप भी पाएंगे कि वहां रखे पतीले और चमचे से लेकर हर छोटी-बड़ी चीज़ बुलंद आवाज़ में बता रही है कि यहां किसी ऐसे सीमेंट की ज़रूरत नहीं है, जो इन दोनों को पक्के जोड़ में जकड़ दे। न ही किसी ऐसी भीड़ की ज़रूरत, जिसकी गवाही में इन दोनों को बताना पड़े कि हां हमें साथ रहना है अब। एक वक़्त की रोटी जब इस तरह साथ खाई जाती है, तो फिर जन्म भर क्या किसी और थाली से खाने की भूख रह जाती होगी....। इमरोज़ शायद इसीलिए कभी किसी और ठौर पर रोटी खाने नहीं गए होंगे।

अगली पोस्ट में जारी....

पीठ भी उसकी....साहिर भी उसी का

पिछली पोस्‍ट से जारी....
.... ये सोचना कई बार मुश्किल होता है कि क्‍या रब ने अमृता-इमरोज़ को इसी दुनिया के लिए बनाकर भेजा था.....। फिर ये भी लगता है कि दुनिया में प्‍यार का नाम बाक़ी रहे इसके लिए उसे कुछ न कुछ तो करना ही था न। पर क्‍या इन्‍हें बनाने के बाद रब ने सांचा ही तोड़ डाला....अगर नहीं, तो क्‍यों नहीं दिखते, और कहीं अमृता-इमरोज़...! मेरी सोच गहरी हो जाती, तो वे टोक कर कहते, मेरी नज्‍़मां नईं सुनदी......मैं फिर सुनने लगती ध्‍यान से। बताने लगे "हम एक बार ऐसे ही घूम रहे थे कि अमृता ने पूछा-पैलां वी किसी दे नाल तुरयां ए...(पहले भी कभी किसी के साथ घूमे हो) मैंने कहा-हां तुरयां हां, पर जागा किसे दे नाल नईं (हां, घूमा हूं लेकिन जागा किसी के साथ नहीं)। इसके बाद उसने मेरा हाथ ज़ोर से पकड़ लिया और इस तरह चल पड़ी जैसे सारी सरहदें पार करके आगे जाना हो।" इमरोज़ ने अपनी जाग को फिर कभी ऊंघने नहीं दिया, अमृता के सो जाने के बाद भी।

अमृता-साहिर.इमरोज़.........ये त्रिकोण होकर भी तिकोना नहीं दिखता....कैसी अजीब बात है। इसके कोनों को किसने घिसकर इतना रवां कर दिया कि वे किसी को चुभते ही नहीं। क्‍या था ऐसा.......इमरोज़ बताते हैं-साहिर उसकी मुहब्‍बत था, मैं उससे कैसे इन्‍कार करता...। बरसों से जो वो दिल में रखे थे उसे निकाल फेंकने की कू़वत मुझमें नहीं थी, शायद सच्‍चा इश्‍क़ करने वाले किसी भी इंसान में ऐसी कू़वत नहीं होती। वो तो बस सबकुछ सौंप देता है आंख्‍ा बंद करके, फिर सामने वाले की मर्जी़, वो चाहे जो करे। अमृता की किताबों में दर्ज कि़स्‍से को दोहराते हुए उन्‍होंने कहा "एक बार वो कहीं इंटरव्यू दे आई कि जब वो स्‍कूटर पर पीछे बैठती है तो मेरी पीठ पर उंगली से साहिर-साहिर लिखती रहती है। ये बात मुझे पता नहीं थी। इंटरव्यू आने के बाद लोग मुझसे सवाल करने लगे। मेरा जवाब था- लिखती है तो क्‍या हुआ....ये पीठ भी उसकी है और साहिर भी उसीका, वो चाहे जो करे"। क्‍या सचमुच इतना आसान रहा होगा इसे सहना......उन्‍होंने कहा-हां बिलकुल, मैंने उससे मिलने के बाद ही जाना कि अपने आप को सौंपते वक्‍़त किसी तरह की जिरह की कोई गुंजाइश उठाकर नहीं रखी जाती। खु़द को देना होता है पूरा का पूरा। कुछ भी बचाकर नहीं रखा जाता। कितना सच था इस बात में, वाक़ई कुछ उठाकर रख लेने से ही तो बदनीयती आती है।

वे एक साथ हौज़ख़ास वाले घर में रहे। मैं अंदाजा लगाना चाहती थी इस प्रेम के भौतिक स्‍वरूप का..उन्‍होंने भांपा और बोले-जब शरीर के साथ उस घर में मेरे साथ थी तो हम दोनों मिलकर ख़र्च करते थे। किचन का सामान भरते और साथ मिलकर ही बाक़ी ख़र्च चलाते। कभी पैसे को लेकर कोई सवाल आया ही नहीं। मुझे याद है कि जब मैं इंश्‍योरेंस करवा रहा था तो एजेंट ने पूछा नॉमिनी कौन.... ? मेरा उसके सिवा कौन था जो नाम लेता, कहा अमृता, एजेंट ने पूछा रिश्‍ता बताओ, मैंने वहां लिखवाया दोस्‍त.....क्‍योंकि उस जगह को भरने के लिए एक शब्‍द की ज़रूरत थी। हमारा रिश्‍ता इस शब्‍द का मोहताज नहीं था पर क़ाग़ज़ का पेट भरना ही पड़ा। एजेंट मेरी तरफ़ देखकर हैरान था कि क्‍या दोस्‍त को भी कोई नॉमिनी बनाता है। उसे मेरी बात समझ आनी नहीं थी इसलिए समझाया भी नहीं। बाद में जब वो पॉलिसी मेच्‍योर हुई उसका पैसा हमने साथ मिलकर ख़र्च किया। इमरोज़ फिर सुनाने लगे-दुनिया विच कोई प्राप्ति बणदी........जे मुहब्‍बत कामयाब न होवे....।

अगली पोस्‍ट में जारी..........

Friday, August 8, 2008

एक है अमृता... एक है इमरोज़

इस ब्लॉग की शुरुआत किसी और पोस्ट से होनी थी। जिसमें होता आज जैसे ही एक दिन का जि़क्र.... ताजमहल, बरसात, नाटक और असमय इस दुनिया से चले गए किसी दोस्त की याद... या फिर इमली के पेड़ और उबले हुए मसालेदार भुट्टे की बात... या फिर कोई ऐसा कि़स्सा जो लंबे रास्ते पर रुकी हुई एक किलोमीटर लंबी बारिश से जुड़ा हो... ऐसा हुआ नहीं, शायद होना नहीं था इसीलिए ही। सो, सब एक उधार की तरह दर्ज हो रहा है कहीं न कहीं, फि़लहाल जो लिखा जा सकता है, वो पढि़ए-




हम ऑनलाइन थे, लेकिन निरुपमा को अपनी बात कहने के लिए फोन करना ठीक लगता है। बताया... इमरोज़ आ रहे हैं. सात तारीख़ को दोपहर में तुम भी आ जाओ। पहुंची, तो देखा पूरा घर अमृता की पेंटिंग्स और स्केचेज़ से सजा था। जैसे बारात आई हो निरुपमा के घर और दूल्हा बने बैठे हों इमरोज़। तक़रीबन पंद्रह बरस के बाद देखा था उन्हें। लगा, जैसे उनका चेहरा अमृता जैसा होता जा रहा है, प्रेम का संक्रमण ऐसा भी होता है क्या...। थोड़ी देर में ही निरुपमा दत्त का घर दोस्तों से भर गया। इमरोज़ ने नज़्म पढ़ना शुरू किया। एक के बाद एक, पढ़ते गए। हाथ में फोटोस्टेट किए पचास से ज़्यादा काग़ज़ थे। सबमें अमृता। वो उसके अलावा कुछ और सोच सकते हैं क्या, मुझे लगा नहीं और कुछ सोचना भी नहीं चाहिए उन्हें।

एक थी अमृता... कहने से पहले ही इमरोज़ टोक देते हैं। फिर दुरुस्त कराते हैं- कहो एक है अमृता। हां, उनके लिए अमृता कहीं गई ही नहीं। कहने लगे- एक तसव्वुर इतना गाढ़ा है कि उसमें किसी ऐसी हक़ीक़त का ख़याल ही नहीं कर पाता, जिसमें मैं अकेला हूं। हम उस घर में जैसे पहले रहते थे, वैसे ही अब भी रहते हैं। लोग कहते हैं, अमृता नहीं रही... मैं कहता हूं- हां, उसने जिस्म छोड़ दिया, पर साथ नहीं। ये बात कोई और कहता, तो कितनी किताबी-सी लगती। उनके मुंह से सुना, तो लगा जैसे कोई इश्कि़या दरवेश एक सच्चे कि़स्से की शुरुआत करने बैठा है। उन्होंने सुनाया- प्यार सबतों सरल इबादत है...सादे पाणी वरगी। हां, ऐसा ही तो है, बिलकुल ऐसा ही, हम कह उठते हैं। लेकिन ये सादा पानी कितनों के नसीब में है... इस पानी में कोई न कोई रंग मिलाकर ही तो देख पाते हैं हम। वो ताब ही कहां है, जो इस पानी की सादगी को झेल सके।

घर के बाहर बरसात थी और अंदर भी। नज़्मों और रूह से गिरते उन आंसुओं की, जो कइयों को भिगो रहे थे। पहली मुलाक़ात का जि़क्र हमेशा से करते आए हैं, एक बार फिर सुनाने लगे- उसे एक किताब का कवर बनवाना था। मैंने उस दिन के बाद सारे रंगों को उसी के नाम कर दिया। जहां इमरोज़ बैठे थे, ठीक पीछे एक ब्लैक एंड व्हाइट फोटो रखा था। एक रेलिंग के सहारे हाथ में हाथ पकड़े उन दोनों को देखकर मैंने पूछा, ये कहां का है। उन्होंने बताया- जब हम पहली बार घूमने निकले, तो पठानकोट बस स्टैंड पर ये फोटो खिंचवाया था। इमरोज़ को रंगों से खेलना अच्छा लगता है, लेकिन अपनी जि़ंदगी में वे बहुत सीधे तौर पर ब्लैक एंड व्हाइट को तरजीह देते हैं। यहां तक कि अपने कमरे की चादरों में भी यही रंग पसंद हैं उन्हें, जबकि अमृता के कमरे में हमेशा रंगीन चादरों को देखा गया।

जारी... अगली पोस्ट में