Friday, November 27, 2009

उदास गिटार और एक स्‍थगित धुन


प्रेम तब भी बाक़ी थी जब एक परित्‍यक्‍त पल में गिटार सहेज कर रख दिया गया। उसकी उदासी हमारी आंखों से ज्‍़यादा नम थी। आवाज़  देकर अगर उसने रुकने को कहा होता तो शायद अच्‍छा था...। आहूत धुनों की शर्मिन्‍दगी से आंख बचाते हुए हमने सारी हरी कोमल पत्तियों को बुहार दिया....ये बहुत मुश्किल, पर  समझदारी का काम रहा। दिक्‍़क़त नहीं हुई उसे कपड़े में लपेटकर परछत्‍ती तक रख देने  में। हमें पता था उदास गिटार बोलते नहीं ..ज्‍यादातर चुप रहते हैं, जब तक कि किसी स्‍थगित धुन के लिए दी गई क़सम उसे याद न दिला दी जाए...।


फोटो-गूगल से।

Monday, November 23, 2009

लीविंग यू लॉस्‍ट एंड लोनली...



जादुई शीशा तोड़ने के अपराध में तुम्‍हें कटघरे में नहीं खड़ा किया जाएगा...न ही ये जवाब मांगा जाएगा कि बिखरी किरचों से खुद को बचाने का हुनर तुमने मुझसे क्‍यों नहीं बांटा. ..तुम्‍हें माफ़ कर दिया जाएगा इस क्रूरता के लिए । पीली आंख और बेरौनक चेहरे के  साथ अकेले न्रत्‍य करते रहने की यातना के बीच ही मैंने शीश्‍ो का खाली फ्रेम उतारकर नीचे रख दिया है...। तुम्‍हारे साथ रहते हुए जीवित ही स्‍वर्ग के द्वार तक पहुंच जाने की चाह को भी सहेजकर रख देने से मुझे गुरेज नहीं है...। मैं एक बार भी तुम्‍हें शर्मिन्‍दा नहीं करूंगी वो सब याद दिलाकर जिस तुमने काल्‍पनिक और बेमानी कहकर कल ही चिंदी करते हुए फेंक दिया था। बस  एक बार सामने आकर कहो कि अर्थशास्‍त्र और सांख्यिकी की किताब के कौन से पन्‍ने पर तुमने अपने नफ़े का सवाल हल किया था...कैसे तय किया था कि हमारा नुकसान अलग-अलग हो सकता है, .ये कहना ही होगा तुम्‍हें, इसके बाद मैं मान लूंगी कि वाकई तुममें कुछ बेहतर पाने की चाह रही थी।


फोटो. गूगल से साभार

Wednesday, November 11, 2009

कैसे उसका सामना करूं


आज  सुबह मैंने एक पाप किया। बच्‍चे पर अपना गुस्‍सा निकाला,  अपनी खीज और फ्रस्‍ट्रेशन उस पर उतार दी। वो रोकर स्‍कूल चला गया लेकिन मैं इतने गहरे अपराधबोध में धंसी हूं कि समझ नहीं आ रहा कैसे उसका  सामना कंरूं ..। उसकी शरारतों और गलतियों पर अब तक मैंने हमेशा हल्‍का-फुल्‍का थप्‍पड़ मारा है या फिर डांट दिया है। आज मैंने उसे गुस्‍से में मारा। मैंने जब उसे पहला थप्‍पड़ मारा तो शायद उसे मुझसे ये उम्‍मीद नहीं रही होगी...उसने हैरान होकर मेरी तरफ देखा और तब तक मैंने उसे दूसरा चांटा मार दिया था। ये सब बहुत बुरा था। क्‍या बड़े होते जाना मानवीयता को खोते जाने जैसा है, क्‍या हम उतने ही निर्दोष और मासूम नहीं रह सकते सारी उम्र, जितना बचपन में थे।
दोपहर में जब वो स्‍कूल से वापस आया तो सारी बात भूल चुका था,लेकिन मुझे तो याद था अपना अपराध। मैं उसका सामना नहीं कर सकी। घर से निकलते हुए आज मैंने उससे बात नहीं की, चुपचाप निकल आई। मैं कैसे इस ग्‍लानि और अपराधबोध से बाहर आ सकूंगी...क्‍या सबको ऐसा ही लगता है बच्‍चों को मारने के बाद...क्‍या सब ठीक हो जाएगा जल्‍दी ही...।


-ये बच्‍चा मेरे भाई का बेटा है, इसका नाम शान है जिसे हम प्‍यार से पिंगू कहते हैं। मैं इसके साथ रहती हूं।