मैंने अपनी पिछली पोस्ट में एक स्पेसिफिक हादसे का जिक्र किया जिसमें एक फेसबुक एंट्री शामिल थी। यह पूरी तरह से एक क्रूरता के जिक्र से उपजी व्यथा का मामला था। उसमें एक रिक्वेस्ट थी कि इस पोस्ट को अलग नजरिए और रोशनी में पढ़ा जाए। बहुत अफसोस हुआ ये देखकर कि उस रिक्वेस्ट को छोड़कर बाक़ी कंटेंट पर ख़ूब चर्चा हुई। कुछ लोगों ने इस मौके़ को लपका कि इस तरह मुझे तक़रीबन राष्ट्रविरोधी और सेना की मुखालफत करने वाला साबित कर दिया जाए, कुछ ने कोशिश की ये जताने की गोया वे सबसे बड़े वतनपरस्त हैं। कुछ ने मेरी संवेदनाओं को समझा और उस बच्चे के प्रति दुख जताया।
उस पोस्ट को पढ़ते हुए श्रीनगर में तैनात मेजर गौतम राजरिशी जो कि एक शायर और बहुत मकबूल हिंदी ब्लॉगर हैं, भी मुझ तक पहुंचे। उन्होंने जो कहा वो पिछली पोस्ट के कमेंट़स में दर्ज है। मेरी तकलीफ उस बच्चे को लेकर थी और मेजर ने बताया कि हादसा दूसरी तरह का था। बात खत्म हुई क्योंकि मेजर पर अविश्वास करने का कोई कारण था ही नहीं।
क्रूरता, अविश्वास, धोखा, नीचता और बदले की भावना, ये सारी चीजें किसी भी व्यक्ति में हो सकती हैं, होती भी हैं, इसलिए यहां भी मैं जर्नलाइनजेशन से बचना चाहती हूं। ये सब व्यक्तिगत दुर्गुण हो सकते हैं इसलिए किसी भी संप्रदाय, वर्ग, सेना या अन्य समूह को इसमें लपे ट लेना गलत है।
एक बात और समझ आई इस पोस्ट के बाद कि आप जो कहना चाहते हैं उसे उसी संदर्भ में वैसा ही कोई समझ ले ये जरूरी नहीं है। बहुत सहज, सादी और मन की बात को भी लोग प्रोपैगैंडा, राष्ट्रविरोध और अन्य रंगों से रंगकर देख सकते हैं।
खै़र जिसे जो जैसे देखना है देखे, मैं अपने लिए ईश्वर से हमेशा ये मांगती रही जो आज फिर से मांगती हूं मेरे प्रिय कवि विजयदेव नारायण साही की लाइनें हैं......
परम गुरु
दो तो ऐसी विनम्रता दो
कि अंतहीन सहानुभूति की वाणी बोल सकूँ
और यह अंतहीन सहानुभूति
पाखंड न लगे।
दो तो ऐसा कलेजा दो
कि अपमान, महत्वाकांक्षा और भूख
की गाँठों में मरोड़े हुए
उन लोगों का माथा सहला सकूँ
और इसका डर न लगे
कि कोई हाथ ही काट खाएगा।
दो तो ऐसी निरीहता दो
कि इसे दहाड़ते आतंक क बीच
फटकार कर सच बोल सकूँ
और इसकी चिन्ता न हो
कि इसे बहुमुखी युद्ध में
मेरे सच का इस्तेमाल
कौन अपने पक्ष में करेगा।
यह भी न दो
तो इतना ही दो
कि बिना मरे चुप रह सकूँ।
दो तो ऐसी विनम्रता दो
कि अंतहीन सहानुभूति की वाणी बोल सकूँ
और यह अंतहीन सहानुभूति
पाखंड न लगे।
दो तो ऐसा कलेजा दो
कि अपमान, महत्वाकांक्षा और भूख
की गाँठों में मरोड़े हुए
उन लोगों का माथा सहला सकूँ
और इसका डर न लगे
कि कोई हाथ ही काट खाएगा।
दो तो ऐसी निरीहता दो
कि इसे दहाड़ते आतंक क बीच
फटकार कर सच बोल सकूँ
और इसकी चिन्ता न हो
कि इसे बहुमुखी युद्ध में
मेरे सच का इस्तेमाल
कौन अपने पक्ष में करेगा।
यह भी न दो
तो इतना ही दो
कि बिना मरे चुप रह सकूँ।
नोट....दो साल की ब्लॉंगिंग में मैंने कभी अपनी पोस्ट पढ़वाने के लिए किसी से आग्रह नहीं किया लेकिन आज यहां एक आग्रह है कि जो रीडर्स यहां तक आए हैं वे अगले कुछ दिन और आते रहें, इस बहाने मैं कश्मीर पर कुछ और एक सीरीज के तहत कहना चाहूंगी।