Monday, April 27, 2009

मैं न सोने से डरती हूं....



मैं सोचती थी कि हम एक-दूसरे की आत्‍मा तक को देख सकते हैं, कि हम जुड़े हुए हैं, एक-दूसरे से....सियामी जुड़वाओं की तरह संबद़ध हैं। उसने ख़ुद को मुझसे दूर कर लिया था, मुझसे झूठ बोला था, और मैं यहां बैठी थी, कैफे़ की बेंच पर अकेली। मैं लगातार उसके चेहरे और आवाज़ को अपने ज़हन में लाती रही और उस क्रुद़ध नाराज़गी की आग को हवा देती रही, जिसमें मैं जले जा रही थी। यह वैसी बीमारी की तरह था, जिसमें आप ख़ुद ही अपनी पीड़ा निर्मित करते हैं- हर सांस आप के फेफड़ों को चिथड़े कर देती है, पर उसके बावजूद आप सांस लेने को मजबूर होते हैं....

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 मैं न सोने से डरती हूं, और सो जाने से भी डरती हूं। मेरे बिस्‍तर के बग़ल में वह ख़ाली बिस्‍तर, ये बेसिलवट ठंडी चादरें....मैं नींद की गोलियां लेती हूं, पर बेकार....क्‍योंकि मुझे सपने आ जाते हैं। सपनों में मैं अक्‍सर परेशानी से बेहोश हो जाती हूं। मैं न‍िश्‍चल और ज़माने भर का दुख अपने चेहरे पर लिए मॉरिस की निगाहों के सामने पड़ी रहती हूं। मुझे लगता है कि वह लपककर मेरे पास आएगा। वह उदासीनता से मेरी ओर देखता है और चल देता है। मैं जाग गई, अभी भी रात थी। मैं अंधेरे के बोझ को महसूस कर सकती थी। मैं कॉरीडोर में थी, मैं तेज़ी से उसमें चली जा रही थी, और वह संकरा, और संकरा होता जा रहा था। मैं सांस नहीं ले पा रही थी। फि़लहाल मुझे उसमें रेंगना होगा और मरने तक दो दीवारों के बीच फंसे रहना होगा। मैं चिल्‍ला पड़ी। मैं ज्‍़यादा हौले से उसे पुकारने लगी, और पुकारते हुए रोने लगी। मैं उसे हर रात पुकारती हूं। उसे नहीं दूसरे को, उसे, जो मुझे प्‍यार करता था। और मैं सोचने लगती हूं कि क्‍या उसका मर जाना मुझे ज्‍़यादा अच्‍छा नहीं लगेगा...।
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शायद सबके साथ ऐसा होता है कि कहीं किसी देशकाल, संदर्भ और मनोस्थिति में किसी लिखे गए गए को पढ़ते हुए आप ठिठक जाते हैं,  सोच में पड़ जाते हैं कि जो यहां लिखा दिख रहा है वह सिर्फ़ वहीं नहीं है, वह कहीं और भी है। कभी आपके इर्द-गिर्द तो कभी आपके बिल्‍कुल भीतर भी...जबकि आप तो वहां महज़ पाठक ही होते हैं, .फिर कैसे जुड़ते जाते हैं सारे शब्‍द और भाव.... हैरान ही होती हूं देखकर....।


खै़र उपरोक्‍त दो टुकड़े दिमाग़ में अटके थे, सिमोन वाली एक गुमशुदा औरत की डायरी से...।