Wednesday, December 23, 2009

प्रेम भटकने नहीं देता

एक गडरिए ने अपनी सभी भेड़ों को चराने के बाद बाड़े में लाकर बंद कर दिया, सिवाय भेड़ के एक बच्‍चे के। जिसे वह कंधे पर बिठाकर लाया था। उसने उसे नहला-धुलाकर हरी घास खिलाई। उक्‍त नजारे को पास ही एक पेड़ के नीचे बैठे ईसा मसीह अपने शिष्‍यों सहित देख रहे थे। अंतत उन्‍होंने गडरिए से ऐसा करने का कारण पूछा, तो गडरिए ने उत्‍तर दिया-यह रोज भटक जाता है, इसलिए इसे इतना प्रेम देता हूं कि वह फिर से न भटके। यह सुनकर ईसा मसीह ने अपने शिष्‍यों से कहा-प्रेम के अभाव में ही लोग भटकते हैं और भटके हुए लोग प्रेम से ही रास्‍ते पर आते हैं, यह तुम गडरिए से सीखो।

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कितनी सुंदर बात यहां कितनी सादगी से कही गई है। इस मासूम से प्रसंग को 23 दिसंबर के दिन दैनिक भास्‍कर की साप्‍ताहिक पत्रिका मधुरिमा में पढ़ा। यहां बांटने से खुद को रोक नहीं पाई क्‍योंकि प्रेम के इतने सादे और सुंदर भाव बांटने के लिए ही होते हैं। वैसे सोचो तो प्रेम मेमने सा मासूम ही तो लगता है।

Tuesday, December 22, 2009

अब ईश्‍वर नहीं पहले की तरह उदार...


क्‍या बुरा था...भयानक ठंड और गाढ़े कोहरे के बीच, हाईवे पर हर रात सैकड़ों किलोमीटर गाड़ी चला सकने का जुनून...।
और, निहायत यूं ही सी एक छोटी सड़क आत्‍मविश्‍वास को पानी कर देती है...।
मित्र नहीं होते प्रतिभाओं और पागलों के...
अनसुना करते हुए एक बांई हथेली की अभ्‍यस्‍त जकड़ बताती है-सड़क हमेशा देखभाल कर पार करनी चाहिए...
अभिनय का अभ्‍यास उसे खूब था।
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आदत, देर नहीं लगाती, उंगली से दामन तक आने में.., फिर डर लगने लगता है हाईवे की भीड़ से।
अब कभी अकेले सड़क पार नहीं हो पाएगी...बुरा किया, आदत डाल ली...।
उड़ान भरो, ओ मेरे युवा बाज..
कहां गई उड़ान...कहां,
सड़क पर सारे लोग जैसे मार डालने के लिए ही तो उतरे हैं,
सांस ऐसे फूलती है जैसे पानी बस, डुबो ही लेगा,,,
अब ईश्‍वर नहीं रहा पहले की तरह उदार..
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सही कहा-प्रेम से अधिक, अप्रेम पर होता है आश्‍चर्य
अब मेरा घर और दफ़तर सड़क के एक ही तरफ़ है
सड़क पार न करने का विवशता नहीं, बस भय है
हाईवे के फि़तूर हवा हुए भी वक्‍़त हो चला....
हवाओं का क्‍या है...गूंजता रहे
मरीना, मुझे प्‍यार करती हो न...
बहुत।
सदा करती रहोगी...
हां।







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बोल्‍ड की गई लाइनें और शीर्षक आएंगे दिन कविताओं के / मरीना स्विताएवा, से। अनुवाद वरियाम सिंह का।

Wednesday, December 16, 2009

तुम सुधर नहीं सकतीं सिंड्रेला...


सर्दी बढ़ रही है...सुधर जाओ सिंड्रेला।
ज़रा ख़याल करो।
अपने पांव देखो...कितने खुरदरे और रूखे हैं,जैसे कभी कोमल थे ही नहीं।
कब तक राजकुमार पर बोझ बनी रहोगी...?
खिड़की पर सिर टिकाए, राह देखोगी कि वह आकर तुम्‍हारा हाल पूछे...?
बहुत समय बीता  उस बात को , जब उसने कांच के नाजु़क सैंडल लेकर लोगों को तुम्‍हारी तलाश में दौड़ा दिया था। 
मत सोचो कि वो सिर्फ तुम्‍हारे लिए बने थे, इत्‍तेफा़क़ भी तो हो सकता है, उनके नाप का सही होना।
चलो मान लिया, राजकुमार ने तुम्‍हें पांव ज़मीन पर न रखने की ताक़ीद की थी...
पर ये तो नहीं कहा था कि ज़मीन और पांव के बीच की सारी तकलीफों की किताब उसे ही पढ़नी होगी हमेशा...।
क्‍या ये याद रखना बहुत मुश्किल है कि पांव तुम्‍हारे हैं, इसलिए उनकी फटी बिवाइयों का दुख भी तुम्‍हें ही जानना चाहिए....।
जाओ सिंड्रेला अपने लिए एक जोड़ी जूते खरीद लो, राजकुमार के पास कुछ और नहीं है तुम्‍हारे लिए, और यूं भी नंगे पांव रहना, तुम्‍हें शोभता है क्‍या...? 
सिंड्रेला, इस बात का भी अब कोई भरोसा है क्‍या... कि राजकुमार के पास तुम्‍हारे साथ नाच लेने का वक्‍़त होगा ही।

सुनो, हो सके तो सीख लो, सर्दी को सहना, यही दरअसल सर्द नज़र को सीख लेने का पहला सबक़ है।
लेकिन मुझे पता है, तुमसे कुछ भी नहीं होगा....तुम सुधर नहीं सकतीं सिंड्रेला... क्‍या अब भी नहीं!

Monday, December 14, 2009

Go to the desrt and shout,


Who is indeed that I can say hello to? Mrs. Principal is dead, Haj Esmail is missing, my only daughter has fallen into the claws of a wolf....The cat died, coal tongs fell on the spider, and the spider died too...And now, what a snow is falling! Whenever it snows I get so depressed that I'd like to bang my head against the wall. The health insurance doctor said,'whenever you feel  sad and there's no one you can share your sadness with, talk to yourself loudly.' Meaning that you have to become your own agony aunt. He said,'Go to the desert and shout, swear at anybody you want to...'
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The health insurance doctor said,'swear loudly at anybody you want to, so that your head cools off.' And now my mouth is always full of curses. God only knows that i used to be a romantic; I used to like steams and trees and meadows and the moon in the sky.
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अवसाद और  अकेलेपन से मुक्ति पाने के लिए वह निटिंग करती है...लेकिन कितनी बार उधेड़ना और बुनना, इस मर्ज की  दवा हो सकता है..।.बे यारो-मददगार, एक औरत का होना और उस होने की यंत्रणा हर भाषा और हर मुल्‍क में लगभग एक जैसा ही क्‍यों है...। ईरानी लेखक Simin Daneshvar की शॉर्ट स्‍टोरी To Whom shall I say Hello? को पढ़ने के बाद इस अकेलेपन को और ज्‍़यादा गहराई से महसूस करते हुए ऊपर कॉपी किया कुछ लाइनों को।


;फोटो गूगल से।

Friday, November 27, 2009

उदास गिटार और एक स्‍थगित धुन


प्रेम तब भी बाक़ी थी जब एक परित्‍यक्‍त पल में गिटार सहेज कर रख दिया गया। उसकी उदासी हमारी आंखों से ज्‍़यादा नम थी। आवाज़  देकर अगर उसने रुकने को कहा होता तो शायद अच्‍छा था...। आहूत धुनों की शर्मिन्‍दगी से आंख बचाते हुए हमने सारी हरी कोमल पत्तियों को बुहार दिया....ये बहुत मुश्किल, पर  समझदारी का काम रहा। दिक्‍़क़त नहीं हुई उसे कपड़े में लपेटकर परछत्‍ती तक रख देने  में। हमें पता था उदास गिटार बोलते नहीं ..ज्‍यादातर चुप रहते हैं, जब तक कि किसी स्‍थगित धुन के लिए दी गई क़सम उसे याद न दिला दी जाए...।


फोटो-गूगल से।

Monday, November 23, 2009

लीविंग यू लॉस्‍ट एंड लोनली...



जादुई शीशा तोड़ने के अपराध में तुम्‍हें कटघरे में नहीं खड़ा किया जाएगा...न ही ये जवाब मांगा जाएगा कि बिखरी किरचों से खुद को बचाने का हुनर तुमने मुझसे क्‍यों नहीं बांटा. ..तुम्‍हें माफ़ कर दिया जाएगा इस क्रूरता के लिए । पीली आंख और बेरौनक चेहरे के  साथ अकेले न्रत्‍य करते रहने की यातना के बीच ही मैंने शीश्‍ो का खाली फ्रेम उतारकर नीचे रख दिया है...। तुम्‍हारे साथ रहते हुए जीवित ही स्‍वर्ग के द्वार तक पहुंच जाने की चाह को भी सहेजकर रख देने से मुझे गुरेज नहीं है...। मैं एक बार भी तुम्‍हें शर्मिन्‍दा नहीं करूंगी वो सब याद दिलाकर जिस तुमने काल्‍पनिक और बेमानी कहकर कल ही चिंदी करते हुए फेंक दिया था। बस  एक बार सामने आकर कहो कि अर्थशास्‍त्र और सांख्यिकी की किताब के कौन से पन्‍ने पर तुमने अपने नफ़े का सवाल हल किया था...कैसे तय किया था कि हमारा नुकसान अलग-अलग हो सकता है, .ये कहना ही होगा तुम्‍हें, इसके बाद मैं मान लूंगी कि वाकई तुममें कुछ बेहतर पाने की चाह रही थी।


फोटो. गूगल से साभार

Wednesday, November 11, 2009

कैसे उसका सामना करूं


आज  सुबह मैंने एक पाप किया। बच्‍चे पर अपना गुस्‍सा निकाला,  अपनी खीज और फ्रस्‍ट्रेशन उस पर उतार दी। वो रोकर स्‍कूल चला गया लेकिन मैं इतने गहरे अपराधबोध में धंसी हूं कि समझ नहीं आ रहा कैसे उसका  सामना कंरूं ..। उसकी शरारतों और गलतियों पर अब तक मैंने हमेशा हल्‍का-फुल्‍का थप्‍पड़ मारा है या फिर डांट दिया है। आज मैंने उसे गुस्‍से में मारा। मैंने जब उसे पहला थप्‍पड़ मारा तो शायद उसे मुझसे ये उम्‍मीद नहीं रही होगी...उसने हैरान होकर मेरी तरफ देखा और तब तक मैंने उसे दूसरा चांटा मार दिया था। ये सब बहुत बुरा था। क्‍या बड़े होते जाना मानवीयता को खोते जाने जैसा है, क्‍या हम उतने ही निर्दोष और मासूम नहीं रह सकते सारी उम्र, जितना बचपन में थे।
दोपहर में जब वो स्‍कूल से वापस आया तो सारी बात भूल चुका था,लेकिन मुझे तो याद था अपना अपराध। मैं उसका सामना नहीं कर सकी। घर से निकलते हुए आज मैंने उससे बात नहीं की, चुपचाप निकल आई। मैं कैसे इस ग्‍लानि और अपराधबोध से बाहर आ सकूंगी...क्‍या सबको ऐसा ही लगता है बच्‍चों को मारने के बाद...क्‍या सब ठीक हो जाएगा जल्‍दी ही...।


-ये बच्‍चा मेरे भाई का बेटा है, इसका नाम शान है जिसे हम प्‍यार से पिंगू कहते हैं। मैं इसके साथ रहती हूं।

Friday, October 30, 2009

मिलिए इस जांबाज़ से




झुग्‍गी में तीन प्राणी थे। पांच बरस का टाइगर, डेढ़ बरस का संदीप और 3 बरस का कुलदीप। टाइगर सबसे बड़ा था और उसकी जि़म्‍मेदारी भी सबसे ज्‍यादा थी। घर का मालिक हरीराम उसे जाते वक्‍़त कहकर जाता था-टाइगर, घर का ध्‍यान रखना और बच्‍चों का भी। हमेशा तो यही करता रहा वह,  लेकिन पिछले कल यानी 29 अक्‍टूबर का दिन इस घर के लिए क़हर बनकर आया। हरीराम और उसकी पत्‍नी गीता रोज़ की तरह काम पर चले गए और झुग्‍गी में टाइगर, बच्‍चों के साथ था। संदीप माचिस की डिब्‍बी से खेल रहा था और खेलते हुए उसने तीली जलाना शुरू कर दी। सरकंडों से बनी झुग्‍गी में किसी तरह आग फैली और सब कुछ जलने लगा। टाइगर की रस्‍सी जली और वह बाहर की तरफ भागा जबकि बच्‍चे बाहर नहीं निकल सके।
घर के बाहर भीड़ जमा हो चुकी थी और लोग कोशिश कर रहे थे कि किसी तरह आग पर काबू पाया जाए व  बच्‍चों को बाहर निकाला जा सके। टाइगर  ये सब देख रहा और एकाएक वह झुग्‍गी के अंदर की तरफ दौड़ गया। वापस लौटा संदीप को अपने मुंह से पकड़कर खींचता हुआ। उसे लोगों ने जब तक संभाला, वह दोबारा अदंर की ओर दौड़ा और दूसरी बार में इसी तरह कुलदीप को खींच कर साथ ले आया। वो बच्‍चों को जिंदा खींचकर लाया था मौत के मुंह से। झुलसे हुए बच्‍चों को अस्‍पताल पहुंचाया गया जहां बाद में उन्‍होंने ज्‍यादा जल जाने के कारण दम तोड़ दिया। टाइगर ने अपनी जान पर खेलकर उन्‍हें बचाने की कोशिश की लेकिन दुर्भाग्‍यवश बच्‍चो को बचाया नहीं जा सका।
ये कहानी नहीं है बल्कि एक हादसे का बयान है जो चंडीगढ में ही बसे एक गांव कैम्‍बवाला में हुआ। लोग एक तरफ टाइगर की हिम्‍मत का चर्चा कर रहे हैं तो दूसरी तरफ सबको दुख है उन दो मासूमों के न रहने का।
टाइगर भी बहुत उदास है। वो दुखी है अपने मालिक हरीराम के ग़म से। चाहकर भी वो उन दो बच्‍चों को नहीं बचा सका जिनकी जि़म्‍मेदारी उसे दी गई थी। उसका मुंह और शरीर जगह-जगह से जल गया है लेकिन उसकी तकलीफ इन चीजों को लेकर नहीं है।वह बार-बार उस जगह जाकर बैठ जाता है जहां हर रोज़ उसे हरीराम रस्‍सी से बांधकर जाते हुए कहा करता था-टाइगर घर की देखभाल करना और बच्‍चों की भी।
मुझे नहीं पता किस इस हादसे से लोग किस तरह का सबक़ ले सकते हैं लेकिन ये ज़रूर समझ आ रहा है कि हम सो कॉल्‍ड इंसानों को वफ़ादारी  सबक़ सीखने के लिए टाइगर जैसे प्राणियों की तरफ़ ज़रूर देखते रहना चाहिए।





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उपरोक्‍त जानकारी और तस्‍वीरें दैनिक भास्‍कर के क्राइम रिपोर्टर कुलदीप सिंह द्वारा।

Monday, October 26, 2009

चुनिन्दा तथ्यों को लिखने का रिवाज़ है


हम कितने ईमानदार होते हैं अक्‍सर...बायोडाटा, अपना प्रोफाइल और अन्‍या जानकारियां देते वक्‍त...। विस्वावा शिम्बोर्स्का की यह कविता यूं ही तो याद नहीं आ गई न...। खै़र पढि़ए, अनुवाद अशोक पांडे का है, हां वही कबाड़ख़ाना वाले।


बायोडाटा लिखना


क्या किया जाना है?
आवेदनपत्र भरो
और नत्थी करो बायोडाटा


जीवन कितना भी बड़ा हो
बायोडाटा छोटे ही अच्छे माने जाते हैं.


स्पष्ट, बढ़िया, चुनिन्दा तथ्यों को लिखने का रिवाज़ है
लैंडस्केपों की जगह ले लेते हैं पते
लड़खड़ाती स्मृति ने रास्ता बनाना होता है ठोस तारीख़ों के लिए.


अपने सारे प्रेमों में से सिर्फ़ विवाह का ज़िक्र करो
और अपने बच्चों में से सिर्फ़ उनका जो पैदा हुए


तुम्हें कौन जानता है
यह अधिक महत्वपूर्ण है बजाए इस के कि तुम किसे जानते हो.
यात्राएं बस वे जो विदेशों में की गई हों
सदस्यताएं कौन सी, मगर किसलिए - यह नहीं
प्राप्त सम्मानों की सूची, पर ये नहीं कि वे कैसे अर्जित किए गए.


लिखो, इस तरह जैसे तुमने अपने आप से कभी बातें नहीं कीं
और अपने आप को ख़ुद से रखा हाथ भर दूर.


अपने कुत्तों, बिल्लियों, चिड़ियों,
धूलभरी निशानियों, दोस्तों, और सपनों को अनदेखा करो.


क़ीमत, वह फ़ालतू है
और शीर्षक भी
अब देखा जाए भीतर है क्या
उसके जूते का साइज़
यह नहीं कि वह किस तरफ़ जा रहा है-
वह जिसे तुम मैं कह देते हो
और साथ में एक तस्वीर जिसमें दिख रहा हो कान
- उसका आकार महत्वपूर्ण है, वह नहीं जो उसे सुनाई देता है.
और सुनने को है भी क्या?
-फ़क़त
काग़ज़ चिन्दी करने वाली मशीनों की खटरपटर.




-चित्र गूगल से साभार

Sunday, October 25, 2009

रब से एक दुआ

आज रात मुझे कई काम करने थे। सोचा था एक अधूरी किताब पूरी कर सकूंगी। संडे को बुक फेयर जा सकने और उससे पहले सिर में तेल लगवाकर सिर धो सकने का वक्‍़त निकालने के लिए जैसे-तैसे सुबह होने से पहले सो सकूंगी....। लेकिन हमेशा तो यही हुआ है कि जो सोचा वो नहीं हो सका। सोना तो बहुत दूर की बात है मैं लेट भी नहीं पा रही हूं।  बार-बार बालकनी में जाकर उसे देख रही हूं और दुआ कर रही हूं कि किसी तरह इसका दुख दूर हो जाए। क्‍या दुख है इसका वो तक पता नहीं। ये एक गाय है दो घंटे से गली में रंभाती घूम रही है। इसकी आवाज़ में जो तकलीफ़ है वो सोने नहीं देगी, पक्‍का है।

पता नहीं ये किसी से बिछुड़ गई है, रास्‍ता भूली है या इसका बच्‍चा इससे दूर हो गया है....? दिमाग़ में कई तरह की बातें हैं, काश इसके लिए कुछ किया जा सकता। जब भी वो बालकनी के सामने सड़क से आवाज़ सी लगाती गुज़रती है उसे आवाज़ लगाती हूं,  लेकिन वो सुनती नहीं....मेरी आवाज़ शायद उस तक जा भी नहीं रही है। क्‍या उसकी आवाज़ वहां तक जा रही है जहां वो पहुंचाना चाहती हो.....ईश्‍वर तक तो जा ही रही होगी न....क्‍या सुन रहा है ईश्‍वर...? जब वो कुछ दूर तक चली जाती है और आवाज़ आना बंद हो जाए तो लगता है शायद इस बार लौटेगी नहीं लेकिन थोड़ी देर में ही फिर लौटती है। हर बार उसका लौटना दुख को और गहरा कर रहा है।

बचपन में सुनते थे कि कुत्‍ता, बिल्‍ली, तोता और गाय अपने घर और मालिक को बहुत अच्‍छी तरह पहचानते हैं। कभी खो जाएं या बिछड़ जाएं तो ढूंढते हुए वापस आ जाते हैं। ईश्‍वर इस गाय का दुख दूर कर दे, इसका जो भी खोया हो उसे इससे मिला दे, जहां से ये बिछड़ गई हो, वहां इसे पहुंचा दे, मैं उसके लिए रब से दुआ मांग रही हूं- मैंने अगर कोई अच्‍छा काम कभी किया हो तो प्‍लीज़   इस गाय का दुख दूर कर दे।

Monday, October 19, 2009

ख़याल भी सच हो जाते हैं


दिवाली मनाना हमेशा आपके हाथ में ही होता है क्या... कभी आप दिये लेकर बैठे रह जाते हैं और देहरी तक पहुंच नहीं पाते, कभी देहरी पर बैठे रात गुज़र जाती है और दिये ही राह भूल जाते हैं...लेकिन नीयत नेक हो तो अंधेरा एक दिन भाग ही जाता है, कम से कम मुझे इस पर बहुत भरोसा है। आज एक नेक नीयत इंसान का दिवाली कार्ड मिला, मेरा भरोसा और ज्यादा गहरा हो गया।
कार्ड के साथ इमरोज़ ने एक छोटा सा ख़त लिखा है-
डियर शायदा
ख़याल भी सच हो जाते हैं,

आम जिंदगी में
जिंदगी के
मुश्किल से एक दो फूल खिलते हैं
पर मुहब्‍बत की जिंदगी में
जिंदगी के सारे के सारे फूल
जिंदगी भर खिले रहते हैं

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Monday, October 12, 2009

किसी को याद है....हठकर बैठा चांद

बचपन अपने साथ बहुत सारी चीजें ले जाता है, जैसे ये कविता-
हठकर बैठा चांद एक दिन माता यह बोला,
सिलवा दे मुझे भी ऊन का मोटा एक
झिंगोला...
.अगर किसी के पास है पूरी कविता तो प्‍लीज भेज दें, काफी दिन से मैं इसे ढूंढ रही हूं।
मुझे सिर्फ इतनी याद है..

हठकर बैठा चांद एक दिन माता से यह बोला
सिलवा दे मुझे भी ऊन का मोटा एक झिंगोला
सन-सन चलती हवा रात भ्‍ार जाड़े में मरता हूं
ठिठुर ठिठुर कर किसी तरह से यात्रा पूरी करता हूं


यह कविता यूपी की प्राइमरी क्‍लासों में लगी थी कभी, आज लगती है या नहीं, पता नहीं। ऐसी ही एक कविता थी
अम्‍मा जरा देख तो ऊपर चले आ रहे हैं बादल,
ये भी मुझे पिछले दिनों ब्‍लॉग पर ही देखने को‍ मिली। उम्‍मीद है चांद वाली भी मिल ही जाएगी।

Wednesday, September 30, 2009

हमारे सपनो की भाषा क्‍या है....

पहली पोस्‍ट से जारी....

आज इतने वर्ष बाद सोचने पर लगता है हिंदी-उर्दू में फ़र्क़ कहां है। मेरे लिए तो सचमुच फ़र्क़ नहीं है। जिस दिन फ़र्क़ दिखेगा, मैं ईश्‍वर  से कहूंगा-
हे ईश्‍वर , मुझे उस शून्‍य की आरे से चलो..
मुझे पीछे मुड़कर देखने पर महसूस होता है, ईश्‍वर शायद  मेरी प्रार्थना का आखि़री हिस्‍सा ही सुन पाया।  वो मुझे ले गया, शून्‍य की ओर, एक शून्‍य से दूसरे शून्‍य तक। फिर  तीसरे-चौथे शून्‍य की ओर। अब सिर्फ महाशून्‍य बाक़ी है, जिसकी ओर मेरे क़दम तेज़ी से बढ़ रहे हैं।

लेकिन मैंने तो ईश्‍वर से कहा था, मुझे उस युग में ले चलो, जब शब्‍द नहीं थे, और अक्षर भी नहीं थे, जब भाषा भी नहीं थी और शून्‍य था। ईश्‍वर मुझे जिस युग में ले आया वहां शून्‍य ज़रूर है, मगर शब्‍द भी हैं और अक्षर भी, भाषा भी है। केवल संवेदनाएं नहीं है।

ख़ताओं और बेवफ़ाइयों के घटाटोप में मेरे अंदर साहस भी कहां रह गया है कि मैं अपने ईश्‍वर से कहूं-हे ईश्‍वर मुझे इस शून्‍य से उबारो और मेरी बेतरतीब चलनेवाली सांसों को विराम दो।
ईश्‍वर सुनता है, सबकी सुनता है, ऐसा मैंने किताबों में पढ़ा है। ईश्‍वर मेरी भी सुनेगा, ज़रूर सुनेगा।

एक दिन, किसी गोष्‍ठी में, मैंने अगंभीर लहजे में कहा था-मैं हिंदी और उर्दू दोनों भाषाओं में लिखता हूं। इसके पीछे एक छोटा सा राज़ है। दरअसल मुझे ये दोनों भाषाएं नहीं आती । हिंदी में इस कारण लिखता हूं कि ग़लती पकड़े जाने पर आसानी से कहकर निकल सकूं कि यह रचना उर्दू की है, उर्दू में मूलरूप से लिखी गई है। उर्दू में लिखते वक्‍़त दिमाग़ में यही ख़याल रहता है, कोई उस्‍ताद मेरी ग़लतियों की गिरफ़त कर ले तो मैं हिंदी का सहारा लेकर अपनी अज्ञानता और नादानी पर पर्दा डाल सकूं। हिंदी और उर्दू वाले मेरी इस नादानी से अच्‍छी तरह परिचित हैं। हिंदी वाले मुझे उर्दूवाला और उर्दू वाले मुझे हिंदीवाला मानकर मेरी भाषाई कमज़ोरियों को नज़रअंदाज़ कर देते हैं।

कभी-कभी लगता है, मेरी जड़ें कहां हैं, कोई भी मुझे अपना मानने को तैयार नहीं।

हिंदी हो या उर्दू, दोनों का हाल एक जैसा है। अपनी-अपनी जगह दोनों को तिरस्‍कार के कड़वे घूंट पीने पड़ रहे हैं। दोनों भाषाएं दोहरी बदकि़स्‍मती का शिकार हैं। इनके विरोधी इनके समर्थकों से ज्‍़यादा जागरूक हैं!  हमने इन्‍हें अपने दिलों में रच-बस जाने की इजाज़त नहीं दी है। हमारी अभिव्‍यक्ति इन  भाषाओं से कतराती है, इन्‍हें भरोसेमंद नहीं मानती।

लोग कहते हैं,राजसत्‍ताएं और कंपनियां बाज़ार में भाषा का मूल्‍य तय करती हैं। भाषा का ग्राफ़ इसी मूल्‍य पर ऊपर या नीचे की ओर आता-जाता रहता है। बाज़ार में खपत नहीं हो तो भाषाएं लुप्‍त होने लगती हैं। अंग्रेजी भाषा आज भी भारतीय बाज़ार की सबसे अधिक मूल्‍य वाली वस्‍तु है। हम इसे अपने सीने से लगाए रखने को आतुर रहते हैं।
अंग्रेजी भाषा के प्रति हमारी यह आतुरता ही हिंदी और उर्दू, दोनों भाषाओं के स्‍वभाविक विकास और फैलाव के रास्‍ते की रुकावट है। ऐसा मैं अंग्रेजी नहीं जानने या कम जानने के कारण नहीं कह रहा हूं।

मैं सपने देखने का आदी हूं। मेरी आंखों की झील में सांवले सपनो की छाया तैरती रहती है। सपने जो इंसान को इंसानों से जोड़ते हैं, शब्‍द को शब्‍दों से, अक्षर को अक्षरों से जोड़ते हैं, और रूह की गहराइयों तक उतरने में हमारी मदद करते हैं।

बचपन से लेकर आज तक, मैंने जितने सपने देखे हैं उनकी भाषा हिंदी रही है, या उर्दू। अंग्रेजी मेरे सपनों की भाषा कभी नहीं रही, आगे भी नहीं रहेगी। अंग्रेजी से मेरा लगाव मुझे बेचैन नहीं करता। मेरी बेचैनियां तो हिंदी और उर्दू को लेकर हैं।

-सितंबर 1995 
अतीत का चेहरा, जाबिर हुसैन की डायरी .।

Sunday, September 27, 2009

हमारे सपनों की भाषा क्‍या है....



 दफ़तर की लाइब्रेरी में कुछ और खोजते हुए हाथ लगी थी एक किताब अतीत का चेहरा, जाबिर हुसेन की डायरी। राजकमल ने इसे छापा है। पढ़ते हुए एक जगह मैं बार-बार अटकी हूं, कई बार पढ़ा इस प्रसंग को। मुझे लगा यहां बांट लेना चाहिए इसे, पढ़कर देखिए आप भी



मैंने हिंदी कैसे सीखी


मेरे हिंदी सीखने की दास्‍तान भी अजीब है।
मुझे नहीं मालूम बाबू त्रप्तिनारायाण सिंह इस समय कहां हैं पहले वन विभाग की सेवा में थे। मेरे पिता और वो एकसाथ चाईबासा में कार्यरत थेत्र अलग-अलग विभागों में रहने के बावजूद सरकार ने उन्‍हेंएक ही मकान के दो हिस्‍सों में जगह दे रखी थी। बीच में सिर्फ़ ढाई फीट का चौडा  दरवाज़ा था।
यह दरवाज़ा कुछ दिनों बंद रहा,फिर खुल गया। खुला तो ऐसा कि फिर कभी बंद नहीं हो पाया।
इन्‍हीं बाबू त्रप्तिनारायण सिंह की धर्मपत्‍नी को मैं आज स्‍मरण करना चाहता हूं। वो धार्मिक स्‍वभाव की महिला थीं। अपने मकान के एक कमरे को उन्‍होंने बाज़ाप्‍ता एक छोटे मंदिर का रूप दे रखा था। दिन रात, हर वक्‍त पूजा-पाठ  मे लगी रहती थीं। दो बच्‍चे थे उनके, एक बेटी और एक बेटा। बेटा बड़ी मिन्‍नतों से पैदा हुआ था। बड़ी-बड़ी जटाएं थीं उसकी और मां ने किसी तीर्थ स्‍थान जाने तक
 उसे यूं ही रखने की क़सम खाई थी।
तब मेरी उम्र तीन-चार वर्ष रही होगी।
अचानक एक दिन मकान के बग़ल वाले हिस्‍से में तांगे से बाबू त्रप्ति नारायण सिंह का परिवार उतरा। परिवार में दो बच्‍चे भी उतरे। हम अपनी बहनों समेत उस दालान की तरफ़ दौड़े जहां छोटी सी
गोपा अपने भाई के साथ खड़ी थी। कुछ क्षणों में ही  हम  दोस्‍ती के रिश्‍ते में बंध गए।
गोपा और उसके भाई को हिंदी पढ़ाने के लिए एक मास्‍टर बहाल किया गया। मकान के बाहरी दालान में एक चटाई पर हम तीनों तस्‍वीरों वाली एक रंगीन किताब से हिंदी पढ़ने लगे। हर रोज़ स्‍लेट और पेंसिल लेकर हम दालान में मास्‍टर के आने का इंतजार करते होते।
बाबू त्रप्ति नारायण सिंह हमें लगन से हिंदी पढ़ता देखकर खु़श होते थे। यह खु़शी उनके चेहरे से ज़ाहिर होती थी।
 एक दिन चाईबासा के किसी गांव में दंगों की आशंका पैदा हो गई और हमारे मकान के सामने वाले मैदान में हमारी सुरक्षा के लिए कुछ पुलिस के जवान तैनात कर दिए गए। हमें घर से
बाहर, दालान तक जाने से मनाही हो गई।
गोपा,  उसके भाई, बाबू त्रप्ति नारायण सिंह और उनकी पत्‍नी, सबका हमारी तरफ़ आना-जाना बंद हो गया। मेरी हिंदी की पढ़ाई भी रुक गई। मुझे अच्‍छी तरह याद है, मैं अपनी स्‍लेट और तस्‍वीरों वाली रंगीन किताब लिए घंटों उस दरवाज़े पर बैठा रहने लगा, जो हमारे और गोपा के मकानों को जोड़ता था।

एक दिन, उसी दरवाज़े पर मुझे बैठे-बैठे मुझे अचानक दूसरी तरफ़ से मास्‍टर साहेब की आवाज़ सुनाई थी। वो गोपा और उसके भाई को उसी तस्‍वीरों वाली किताब से हिंदी पढ़ा रहे थे।
पढ़ाई का काम दरवाले के ठीक उस तरफ़ वाले दालान में हो रहा था।
उस दिन से लेकर अगले चार सप्‍ताह तक मैं ठीक समय पर, दरवाजे़ की ओर अपने कान लगाए, अपनी स्‍लेट और किताब से हिंदी सीखता रहा। मास्‍टर साहेब के चले जाने पर मैं घंटों वहीं,
ज़मीन पर बैठा-बैठा  अ से आम, क से कौवा लिखने-बोलने का अभ्‍यास करता।
एक दिन हालात सामन्‍य होने की ख़बर आई और मैदान से पुलिस के ख़ेमे उठ गए। सबसे पहले बाबू त्रप्ति नारायण की पत्‍नी हमारे घर में आईं फिर गोपा और उसका भाई।

दूसरे दिन मास्‍टर साहेब आए, गोपा के दालान पर चटाई बिछी। गोपा की मां ने दोनों मकानों के बीच का पांच सप्‍ताहों से बंद दरवाज़ा अपने हाथों से खोला। सबसे पहले मुझे पुकारा,
 फिर मेरी बहन को। अपने हाथों से, प्‍यार  से, गोपा की मां ने हमें पूजा का प्रसाद खिलाया।
प्रसाद लेकर मैं बाहर दालान में आया। मास्‍टर साहेब ने मुझे देखकर कहा, तुम्‍हारी पढ़ाई छूट गई। कोई बात नहीं, मैं पिछला हिस्‍सा दोबारा पढ़ा दूंगा।

मैंने मास्‍टर साहेब के पांव छुए और धीमी आवाज़ में कहा, नहीं सर, आप आज का सबक़ पढ़ाएं। मैंने दरवाज़े के उस पार से कल तक का सबक़ पढ़ लिया है।
पास खड़ी गोपा की मां, मुझे अच्‍दी तरह याद है, फूट-फूट कर रोने लगी। इस क़दर  कि मेरी मां बावरचीख़ाने से बाहर आ गईं और तक़रीबन दौड़ती-भागती गोपा के दालान पहुंचीं।
मैंने भरी-भरी आंखों से अपनी और गोपा की मां को देखा। मेरे लिए यह तय करना मुश्किल था कि इनमें से सचमुच मेरी मां कौन सी है और गोपा की कौन सी।


contd....

Monday, August 24, 2009

फिर से एक बार हर एक चीज़ वही हो जो है....

दिन, किसी खूंटी पर टंगी क़मीज़ नहीं थे....तो भी उन्‍हें झटक कर पहनना सीख लिया मैंने।  हर सुबह घर से निकलते हुए साफ़ और बेदाग़ दिखता हूं,  जैसे देर रात इस्‍तरी से हर शिकन को मिटा दिया गया था......अब आदत हो गई है इसकी। कोसी आवाज़ में कोई पूछता है- आज क्‍या है?  दिमाग़ पर ज़ोर डाले बिना तारीख़ दिन और साल बताने लगता हूं। उसकी पीली आंखों में आंसू मटमैले होकर कोरों से बाहर आएं इससे पहले ही, खु़द को इस सारी स्थिति से झटक कर दूर करते हुए बाहर निकल जाता हूं। मुझे सफ़ेद रंग पसंद है, पीला और मटमैला नहीं। इससे पहले दिनभर मेरी कुर्सी के ठीक बाईं तरफ़ रास्‍ते के बीचोंबीच फर्श पर बिछी दो बाई दो की सफे़द टाइल मेरा मखौल उ़ड़ाती रहती है। वो पहली बार इसी जगह आकर खड़ी हुई थी मेरे सामने....कौन सा दिन था वह....मैं एक बार फिर क़मीज़ पर चिपके किसी दिन को झटकने का उपक्रम करता हूं। याद आ सकने की सारी गुंजाइशों को ख़ारिज करने की कामयाब कोशिश मुझे ख़ास कि़स्‍म की अमीरी से भर देती है। 
वापस लौटता हूं....दो बाई दो टाइल पर किसी पांव के निशान नहीं हैं, सफेद चमकती हुई बेदाग़ टाइल....उसका रंग मेरी क़मीज़ से ज्‍़यादा सफे़द नहीं है.... खु़द को तसल्‍ली देता हूं, लेकिन अगले ही पल उस टाइल पर दो पांव नज़र आते हैं,  चेहरा देखे बिना भी जानता हूं, वही है,  फिर से वही है। फिर पूछेगी.आज क्‍या है...मुझे गिनना होगा दिन, महीना और तारीख़। वो हमेशा आकर उसी जगह क्‍यों रुकती है....जैसे कदम नाप रखे हों.....ठीक उसी टाइल तक आने के लिए, न एक इंच इधर, न उधर....। जिस वक्‍़त कोई इस कमरे में नहीं होता, मैं आराम से उस जगह पर सिगरेट पीते हुए चहलक़दमी करना चाहता हूं....एक सावधानी हमेशा मेरे दिमाग पर टन्‍न से बजते हुए मुझसे दो क़दम आगे रहती है, आगाह करते हुए कि इस टाइल पर पांव मत रखना। कितनी भी हडबड़ी हो, कैसी भी बेख़याली हो मैं उस टाइल पर बरसों से जमकर खड़े हुए एक दिन से टकराता नहीं। वहां पांव पड़ना जैसे किसी अपशकुन के घेरे में जाने जैसा लगता है। यह दिन यहां कब से एक पिलर की तरह खड़ा है....जब ये इमारत बनी थी तब से...;नहीं शायद उससे भी पहले से, पता नहीं .दिमाग़ पर ज़ोर डालना चाहता हूं....कौन सा दिन रहा होगा वो.....।  हिसाब लगा लेना चाहता हूं कितने बरस हो गए सावधानी से चलते हुए,  अमीरी महसूस करने का एक मौक़ा हाथ से फिसल जाता है। इस फ़र्श को बदलना दूंगा  हूं.....टाइल समेत। चालाकियों को परे सरकाते हुए अपनी कमीज़ के अंदर झांकता हूं....आंख में मटमैले आंसू उतरने लगते हैं, बेहद ग़रीब से एक आंसू को उगंली के पोर पर रखकर फूंक से उड़ा देता हूं। उसकी हैसियत उड़ जाने भर की है.....। 
रो देना....किसी दिन को मिटा देने का पूरा और पुख्‍ता इलाज नहीं है। मैं हार जाना चाहता हूं, इस सफ़ेदी से...थोड़ा सा मैल और थोड़ी सी गर्द, कभी कफ़ और कॉलर पर नजर आ जाए.. दिनों के बंद सिरे को उधेड़कर, रेशा-रेशा धुनकर बिखेरते हुए दिन की धज्जियों को उड़ाकर कुछ देर खु़श हो जाना चाहता हूं। इतना ख़ुश कि मेरी आंखों से सारा गंदला पानी बह जाए....बाक़ी बची रहे साफ़ और बेगुनाह नमी....। ..सचमुच मेरी आंखों से पानी बहने लगता है....पोंछने के लिए रूमाल निकालता हूं...कब से धुला नहीं है, शायद तभी से जब मैंने साफ़ क़मीज़ पहननी शुरु की थी.....पत्‍नी को आवाज़ लगाता हूं-इस घर में मुझे एक साफ़ बेदाग़ रूमाल मिल सकेगा.....। जवाब नहीं आता, बस एक और रूमाल मुझ पर आ गिरता है उतना ही मटमैला जितना पहले से मेरे हाथ में है...।  

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.-एक पाई हुई डायरी का पीला पन्‍ना

Tuesday, July 7, 2009

उसकी आंख में बादल था

जिनकी आंख में बादल था...
उसने पांचवीं बार यही लाइन कही लेकिन पूरा होने से पहले ही इस बार भी लड़की ने उसे टोक दिया।
बोली-ये सब बाद में सुनाना बारह बजने से पहले अपने मोबाइल से दो एसएमस कर दो ताज के लिए...

नहीं, मैं नहीं करूंगा।

क्‍यों नहीं करोगे, तुम प्रेम विरोधी हो.....।

नहीं हूं, लेकिन एक भव्‍य स्‍मारक बनाने के लिए हजारों लोगों पर हुए जुल्‍म और उसे बनाने वाले संगतराश के हाथ काटे जाने की बात से द्रवित ज़रूर होता हूं।
ताजमहल के लिए वोट करना, एक तरह से उस सारी क्रूरता के पक्ष में खड़े होना है।

ओह...तुम्‍हारा आदर्शवाद, ये भी कोई बात हुई....।

बात हो या न हो, मैं नहीं करने वाला वोट।
बारह बजने वाले हैं कर दो प्‍लीज एसएमएस, हो सकता है हमारी वोट से ही ताज सेवल वंडर्स में आ जाए...।
ओके कर देता हूं लेकिन मैं इसके पक्ष में नहीं हूं...

अच्‍छा अब सुनो दो लाइनें....
जिनकी आंख में बादल था...

यार आज मेरा मन सिर्फ़ ताजमहल की बात करने का है। तुम साहिर क्‍यों नहीं सुनाते....।

साहिर की ताजमहल वाली ग़ज़ल,
मेरी महबूब कहीं और मिलाकर मुझसे,
ऐसे नहीं गाकर सुनाओ..।
गाकर नहीं सुना सकता, तुम्‍हें पता है न,
गाकर ही सुनाओ....
ओके; सुनो....मेरी महबूब कहीं और मिलाकर मुझसे...
और
ताजमहल उनके बीच आ बैठा था
सफे़द और ठंडा, उसे छूकर देखते हुए वो बोली
चलो आगरा चलते हैं न,,,
नहीं बनारस ठीक रहेगा,
ओहो आगरा, ठीक है पहले आगरा फिर बनारस...
ताजमहल दौड़ रहा था, सात अजूबों की रेस में
उसकी सांस तेज थी, बहुत तेज
प्रेम के स्‍मारक को जीतना ही होगा
सारी दुनिया इंतजार कर रही है,
पटाखे़, फुलझड़ी और रोशनियों के सारे इंतजाम करके
हमारा ताज ओह हमारा ताज
और जीत गया हमारा ताज....।

जीत की आतिशबाजि़यों के बीच लड़के ने एक बार फिर कहा
अब सुनोगी जो मैं कहना चाहता था...लड़की ने नहीं सुना.प्रेम के स्‍मारक का जीत का शोर बहुत था। लड़की सुन नहीं पा रही थी,

लड़के ने बुदबुदाया
जिनक आंख में बादल था
गालों पर बरसात हुई.......


बारिश सचमुच आ गई थी....उसने मुंह आसमान की तरफ़ किया और चुपचाप वापस हो लिया था।
.............................................

07/07/07
.आज से ठीक दो साल पहले, जब ताजमहल को विश्‍व के सात अजूबों में शामिल करने की मुहिम जो़रों पर थी तो यह द्रश्‍य दिखा था।

Saturday, June 20, 2009

फादर्स डे



बहुत दिन पहले की बात है. जंगल में एक शेर रहा करता था....अब नहीं रहता.


This May 7, 2009 photo provided by the Wildlife Conservation Society shows Bronx Zoo's lion M’wasi, left, and daughter Moxie enjoying a playful outing in the Zoo's African Plains exhibit in the Bronx Borough of New York. (AP Photo/Wildlife Conservation Society, Julie Larsen Maher)

Wednesday, June 17, 2009

तेरे हाथों के लिखे खत मैं जलाता कैसे......


गंगा मेरे घर से बहुत दूर थी। कई शहर दूर। उसके खतों को गंगा के हवाले नहीं कर सकता था। जला सकता था लेकिन जगजीत  और रहबर साहब  बार-बार आड़े आते रहे। तेरे खु़शबू में बसे खत मैं जलाता कैसे...शायद सौवीं बार मैं इस नज्म को सुन रहा था। हर बार आंख भर आने के बाद मैं कमज़ोर पड़ जाता था। नहीं जला सका...बहुत सोचने पर भी नहीं जला सका। किसी चीज़ को जला देना उसका अंतिम संस्कार है या उसे नष्ट कर देने की प्रक्रिया,  इस भेद में बहुत गहरे न जाते हुए भी मैं उन्हें आग में jhonk देने का साहस कभी नहीं कर पाया। हालांकि अरसे तक उस खु्शबू से परेशान रहा हूं जो उन्हें पढ़ते हुए मुझे लगातार महसूस हुआ करती थी। शुरु-शुरु में इसे वहम समझकर टालने की नीयत से मैंने उन्हें धूप में रखा कि अगर किसी गुलाब या perfumed कागज़ का असर हुआ तो खत्म हो जाएगा...लेकिन खु़शबू कहीं गई नहीं। मैंने उससे पूछा था कि हर दिन मुझे इतने लंबे खत को लिखते हुए वो कभी थकती नहीं और इनमें खु़शबू कहां से भरकर लाती है...उसने कभी मेरी बात का जवाब नहीं दिया.। ये बात तभी की है जब मैं इस ख़ुशबू में खो जाना चाहता था, बाद में मेरा मन उससे भर गया और एक दिन उन सबको एक बड़े लिफाफे में भरकर मैंने परछत्ती पर फेंक दिया।

मैं सुन रहा था...मुझको प्यारे थे जो अनमोल निशानी की तरह...और मेरी आंख छलक-छलक जाती थी। इस भावुकता का क्या अर्थ है जब मैंने अरसे से उन खतो को खोलकर देखा तक नहीं । परछत्ती की सफाई का zimma अगर न लिया होता तो शायद मुझे खयाल तक न आता कि उनका कोई वजूद अब है भी। नज्म का एक टुकड़ा आकर  दिल पर लगता है-जिनको एक उम्र कलेजे से लगाए रखा...साथ ही याद आ जाता है कि लंबे अरसे तक मैं हर रोज़ सारे खतों को एक बार पढ़कर सोया करता था। पूरी नींद खु़शबू से गमक जाती थी। बाद में जब मैंने इस खु़शबू को खारिज किया तो भी वो हर रोज मेरी डायरी के बीच एक खत रखकर जाती थी। फिर पूरा दिन मेरी तरफ इस उमीद से देखा करती कि अब मैं उसे पढ़ूंगा.. लेकिन मैंने उन्हें पढ़ना बंद कर दिया था।

नज्म को बार-बार सुनने के पीछे भावुक होकर उन खतों को सीने से लगा लेने का मेरा कोई इरादा नही था। मैं दरअसल इन खतों को बाइज्ज़त गंगा के सुपुर्द कर देने का जज्बा अपने अंदर पैदा करने की कोशिश कर रहा था। कितनी पवित्र qism का आइडिया है खतों को गंगा के हवाले कर देना...न मन पर किसी तरह का बोझ रहे और न ही उन्हें अपने साथ रखे रहने का टंटा बचे। मुझे vishwas था कि मैं अगर लगातार इसे सुनता रहूंगा तो  दो दिन की छुट्टी लेकर गंगा तक जाने का प्रोग्राम बना लूंगा। हर बार नज्म के शुरु होने पर मैं सोचता रहा कि इन्हें जला देना ठीक होगा और aakhir तक आते-आते उन्हें गंगा में बहा देने का मूड बन जाता।

लगातार तीसरे दिन नज्म को सुनते हुए मैंने वो लिफा़फा गाड़ी में रखा। तेरे खु़शबू में बसे खत मैं जलाता कैसे...सचमुच जलाना मेरे लिए मुश्किल है और गंगा तक जाने का वक्त वाकई मेरे पास नहीं है। मैंने गाड़ी शहर के बाहर वाली उस सड़क पर डाल दी जहां एक छोटा  राजबाहा जाकर आगे बड़ी नहर से मिलता है। हां इसमें गंगा का नाम कहीं नहीं है लेकिन इस वक्त मेरे पास इससे बेहतर और कोई रास्ता भी कहां है। मैंने पुल के ऊपर खड़े होकर वो लिफाफा खोला और उसका मुंह नीचे की तरफ कर दिया। सारे कागज़ पानी में गिर गए थे। बीच में रखे सूखे गुलाब के फूलों की कुछ पçत्तयां पानी के ऊपर नज़र आ रही थीं। दो मिनट खड़े होकर मैंने उन्हें देखा और वापस आकर गाड़ी में एक बार फिर वही नज्म सुनी।  खु़शबू अब भी गाड़ी में बाकी  थी।








-जगजीत सिंह और राजेंद्र नाथ रहबर से माफी चाहते हुए।






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Sunday, May 17, 2009

कैसी अफीम घुली थी उन दिनों में

कुछ तो ऐसा है जो मुझे समझ नहीं आता, जिसे डीकोड करने की कोशिश में अक्सर मैं उस जगह जाकर खड़ा होता हूं , जहां से पहली बार उसे आते हुए देखा था। अब वहां खड़ा होने पर मैं उसे नज़र नहीं आता... न ही वहां खड़े हुए उसका आना मैं देख पाता हूं। इस पहेली का सिरा कहां है...? कल देर तक इसे सुलझाने की कोशिश करते हुए  एक कड़वाहट और पल्ले पड़ ही गई। गाड़ी के धूल पर भरे शीशे पर लिखा एक शब्द अमली...मुझे काटने क्यों दौड़ा? इस नाम को तो कभी मैने खु़द अपने लिए तय किया था। पन्ने खोलने पड़ते हैं उन दिनों की तहों में जाने के लिए जब हर वक़्त एक नशे मंे रहने का सा अहसास होता था। मै उससे बाहर कब आना चाहता था? एक दिन मैंने गहरे डूबकर उससे कहा-तुम औरत नहीं अफीम हो...और साथ ही उसके मोबाइल के कॉन्टेक्ट ऑप्शन में जाकर अपने नाम के बदले अमली सेव कर दिया था। लंबे समय तक उसके फोन पर वहां अमली शब्द दिखता रहा...पता नहीं अब भी उसने बदला है या नहीं। लेकिन अपने दिमाग से मैं उस नशे और अमल...सब को डिलीट कर चुका हूं। एक उंगली से उकेरे गए इन नाम पर कभी मैं किस तरह न्यौछावर होने को उतावला था...आज उस उंगली को चूम लेने का खयाल एक अजीब सी koft से भर देता है।
कैसे बदल जाते हैं दिन....और क्यों बदल जाते हैं? मैं खु़द से हज़ार सवाल पूछते हुए हैरान होता हूं कि क्या ये मैं ही हूं जो आज यह सब कर रहा हूं जबकि कभी मैंने ही इस अफीम जैसी औरत को घूंट-घूंट चख लेने तक का सब्र नहीं किया था। मुझे बहुत जल्दी थी। उस नशे की बात बिल्कुल अकेलेपन में सोचते हुए भी शर्मसारी सिर चढ़ी जाती है। क्या जवाब दूंगा मै¡ अपनी उम्र के उन बरसों को जो मैंने उस नशे मंे बिता दिए..जिसका आज कोई मतलब नहीं। कल जब मैं लिखूंगा इन सबके बारे में तो शब्द मेरे पास आने से इनकार तो नहीं कर देंगे? अपने लेखन मंे उसे खारिज करने का काम मैंने काफी पहले कर दिया था। यहां तक कि जिन जगहों पर अफीम में डूबे उन दिनों का जि़क्र था उन्हें एक फलसफे का जामा पहनाकर दोबारा इस तरह दुरुस्त कर दिया है कि कोई पारखी वहां तक जाकर उसके असली रंग को देख नहीं सकेगा। लेकिन ये सब करते रहना क्या हमेशा आसान बना रह सकेगा मेरे लिए?
अपनी होशियारी पर कायल होना मुझे कभी भूलता नहीं। लेकिन उसे अपने सामने पाकर मेरे अंदर एक कॉप्लेक्स तो ज़रूर जागता है कि मेरी कोई होशियारी उससे छिप क्यों नहीं पाती? अपनी बढ़ाई हुई दाढ़ी के कारण भाव छिपा जाने की कला में मुझे महारत है, लेकिन वो न देखते हुए भी सब कैसे समझ लेती है। कई बार ऐसा लगता है जैसे मैं उसके सामने पारदर्शी हो गया हूं। मेरे अंदर की हर हलचल उसे दिख रही है। यहां तक कि मेरी सोच का सारा सर्किट उसकी नज़र मंे है और आंतों से लेकर ब्लड कॉपोनेंट तक की सारी तफसील उसके पास दर्ज है। इतना खुलापन...मैं इस सब से उकता गया हूं, इस हद तक कि अब लगता है बस...और नहीं। मैं छिपकर रहना चाहता हूं, अपने आप पर एक ऐसा parda चढ़ाकर जिसके परे सिर्फ वही दिखे जो मैं दिखाना चाहता हूं। काश कि मैं उसे कह सकूं वो उस हवा मंे सांस न ले जहां मैं ले रहा हूं...दूर चली जाए अपनी अफीम की महक वाली सारी सांसें लेकर ताकि मैं उन दिनों की सारी स्मृतियांे को जड़ से खुरच कर साफ कर सकूं।
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-इस पोस्ट का शीर्षक ब्लॉगर महेन मेहता की एक कविता की एक लाइन ही है। जब मैंने यह कविता पढ़ी तो ये लाइन अटक गई थी कहीं। खै़र यहां बिना पूछे लगा ली गई है, आभार सहित।
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ek diary ka panna

कैसी अफीम घुली थी उन दिनों मंे

कुछ तो ऐसा है जो मुझे समझ नहीं आता, जिसे डीकोड करने की कोशिश में अक्सर मैं उस जगह जाकर खड़ा होता हूं , जहां से पहली बार उसे आते हुए देखा था। अब वहां खड़ा होने पर मैं उसे नज़र नहीं आता... न ही वहां खड़े हुए उसका आना मैं देख पाता हूं। इस पहेली का सिरा कहां है...? कल देर तक इसे सुलझाने की कोशिश करते हुए aur  एक कड़वाहट और पल्ले पड़ ही गई। गाड़ी के धूल पर भरे शीशे पर लिखा एक शब्द अमली...मुझे काटने क्यों दौड़ा? इस नाम को तो कभी मैने खु़द अपने लिए तय किया था। पन्ने खोलने पड़ते हैं उन दिनों की तहों में जाने के लिए जब हर वक़्त एक नशे मंे रहने का सा अहसास होता था। मै उससे बाहर कब आना चाहता था? एक दिन मैंने गहरे डूबकर उससे कहा-तुम औरत नहीं अफीम हो...और साथ ही उसके मोबाइल के कॉन्टेक्ट ऑप्शन में जाकर अपने नाम के बदले अमली सेव कर दिया था। लंबे समय तक उसके फोन पर वहां अमली शब्द दिखता रहा...पता नहीं अब भी उसने बदला है या नहीं। लेकिन अपने दिमाग से मैं उस नशे और अमल...सब को डिलीट कर चुका हूं। एक उंगली से उकेरे गए इन नाम पर कभी मैं किस तरह न्यौछावर होने को उतावला था...आज उस उंगली को चूम लेने का खयाल एक अजीब सी koft  से भर देता है।
कैसे बदल जाते हैं दिन....और क्यों बदल जाते हैं? मैं खु़द से हज़ार सवाल पूछते हुए हैरान होता हूं कि क्या ये मैं ही हूं जो आज यह सब कर रहा हूं जबकि कभी मैंने ही इस अफीम जैसी औरत को घूंट-घूंट चख लेने तक का सब्र नहीं किया था। मुझे बहुत जल्दी थी। उस नशे की बात बिल्कुल अकेलेपन में सोचते हुए भी शर्मसारी सिर चढ़ी जाती है। क्या जवाब दूंगा मै¡ अपनी उम्र के उन बरसों को जो मैंने उस नशे मंे बिता दिए..जिसका आज कोई मतलब नहीं। कल जब मैं लिखूंगा इन सबके बारे में तो शब्द मेरे पास आने से इनकार तो नहीं कर देंगे? अपने लेखन मंे उसे खारिज करने का काम मैंने काफी पहले कर दिया था। यहां तक कि जिन जगहों पर अफीम में डूबे उन दिनों का जि़क्र था उन्हें एक फलसफे का जामा पहनाकर दोबारा इस तरह दुरुस्त कर दिया है कि कोई पारखी वहां तक जाकर उसके असली रंग को देख नहीं सकेगा। लेकिन ये सब करते रहना क्या हमेशा आसान बना रह सकेगा मेरे लिए?
अपनी होशियारी पर कायल होना मुझे कभी भूलता नहीं। लेकिन उसे अपने सामने पाकर मेरे अंदर एक कॉप्लेक्स तो ज़रूर जागता है कि मेरी कोई होशियारी उससे छिप क्यों नहीं पाती? अपनी बढ़ाई हुई दाढ़ी के कारण भाव छिपा जाने की कला में मुझे महारत है, लेकिन वो न देखते हुए भी सब कैसे समझ लेती है। कई बार ऐसा लगता है जैसे मैं उसके सामने पारदर्शी हो गया हूं। मेरे अंदर की हर हलचल उसे दिख रही है। यहां तक कि मेरी सोच का सारा सर्किट उसकी नज़र मंे है और आंतों से लेकर ब्लड कॉपोनेंट तक की सारी तफसील उसके पास दर्ज है। इतना खुलापन...मैं इस सब से उकता गया हूं, इस हद तक कि अब लगता है बस...और नहीं। मैं छिपकर रहना चाहता हूं, अपने आप पर एक ऐसा parda चढ़ाकर जिसके परे सिर्फ वही दिखे जो मैं दिखाना चाहता हूं। काश कि मैं उसे कह सकूं वो उस हवा मंे सांस न ले जहां मैं ले रहा हूं...दूर चली जाए अपनी अफीम की महक वाली सारी सांसें लेकर ताकि मैं उन दिनों की सारी स्मृतियांे को जड़ से खुरच कर साफ कर सकूं।

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-इस पोस्ट का शीर्षक ब्लॉगर महेन मेहता की एक कविता की एक लाइन ही है। जब मैंने यह कविता पढ़ी तो ये लाइन अटक गई थी कहीं। खै़र यहां बिना पूछे लगा ली गई है, आभार सहित।


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ek diary ka panna

Wednesday, May 13, 2009

अब कभी ऐसी खबर न मिले

मिल गए मुकुल शिवपुत्र। होशंगाबाद रेलवे स्टेशन से इन्हें लगभग उसी तरह नशे की हालत में पहचाना गया जैसा पिछले दिनों भोपाल में देखा गया था।  अखबार में खबर छपने के बाद वे वहां से चले गए थे। उनके दोस्त, मीडिया और सरकारी अधिकारी सभी उन्हें ढूंढने में लगे थे। ब्लॉग्स पर भी मुकुल की इस हालत के बाद लोगों की बेचैनी जाहिर हुई। संतोष की बात है कि वे मिल गए और उनके दोस्त अब उन्हें अपने साथ भोपाल ले आए हैं। मुकुल को वास्तव में बहुत सारे अपनेपन, भावनात्मक सहारे और मेडिकल हेल्प की ज़रूरत है। कुमार गंधर्व के बेटे और खु़द बेहद काबिल गायक के बारे में अब कभी ऐसी खबर न मिले और वे जल्दी ही इस स्थिति से उबरकर संगीत यात्रा को आगे बढ़ाएं ऐसी दुआ है।














जानकारी  दैनिक भास्कर से साभार।

Monday, April 27, 2009

मैं न सोने से डरती हूं....



मैं सोचती थी कि हम एक-दूसरे की आत्‍मा तक को देख सकते हैं, कि हम जुड़े हुए हैं, एक-दूसरे से....सियामी जुड़वाओं की तरह संबद़ध हैं। उसने ख़ुद को मुझसे दूर कर लिया था, मुझसे झूठ बोला था, और मैं यहां बैठी थी, कैफे़ की बेंच पर अकेली। मैं लगातार उसके चेहरे और आवाज़ को अपने ज़हन में लाती रही और उस क्रुद़ध नाराज़गी की आग को हवा देती रही, जिसमें मैं जले जा रही थी। यह वैसी बीमारी की तरह था, जिसमें आप ख़ुद ही अपनी पीड़ा निर्मित करते हैं- हर सांस आप के फेफड़ों को चिथड़े कर देती है, पर उसके बावजूद आप सांस लेने को मजबूर होते हैं....

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 मैं न सोने से डरती हूं, और सो जाने से भी डरती हूं। मेरे बिस्‍तर के बग़ल में वह ख़ाली बिस्‍तर, ये बेसिलवट ठंडी चादरें....मैं नींद की गोलियां लेती हूं, पर बेकार....क्‍योंकि मुझे सपने आ जाते हैं। सपनों में मैं अक्‍सर परेशानी से बेहोश हो जाती हूं। मैं न‍िश्‍चल और ज़माने भर का दुख अपने चेहरे पर लिए मॉरिस की निगाहों के सामने पड़ी रहती हूं। मुझे लगता है कि वह लपककर मेरे पास आएगा। वह उदासीनता से मेरी ओर देखता है और चल देता है। मैं जाग गई, अभी भी रात थी। मैं अंधेरे के बोझ को महसूस कर सकती थी। मैं कॉरीडोर में थी, मैं तेज़ी से उसमें चली जा रही थी, और वह संकरा, और संकरा होता जा रहा था। मैं सांस नहीं ले पा रही थी। फि़लहाल मुझे उसमें रेंगना होगा और मरने तक दो दीवारों के बीच फंसे रहना होगा। मैं चिल्‍ला पड़ी। मैं ज्‍़यादा हौले से उसे पुकारने लगी, और पुकारते हुए रोने लगी। मैं उसे हर रात पुकारती हूं। उसे नहीं दूसरे को, उसे, जो मुझे प्‍यार करता था। और मैं सोचने लगती हूं कि क्‍या उसका मर जाना मुझे ज्‍़यादा अच्‍छा नहीं लगेगा...।
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शायद सबके साथ ऐसा होता है कि कहीं किसी देशकाल, संदर्भ और मनोस्थिति में किसी लिखे गए गए को पढ़ते हुए आप ठिठक जाते हैं,  सोच में पड़ जाते हैं कि जो यहां लिखा दिख रहा है वह सिर्फ़ वहीं नहीं है, वह कहीं और भी है। कभी आपके इर्द-गिर्द तो कभी आपके बिल्‍कुल भीतर भी...जबकि आप तो वहां महज़ पाठक ही होते हैं, .फिर कैसे जुड़ते जाते हैं सारे शब्‍द और भाव.... हैरान ही होती हूं देखकर....।


खै़र उपरोक्‍त दो टुकड़े दिमाग़ में अटके थे, सिमोन वाली एक गुमशुदा औरत की डायरी से...।

Thursday, March 26, 2009

आखि़री रंग की नीलाई


ख्‍़वाब का दर शायद खुला रह गया था...पांव एक बार बाहर निकला और वापसी की राह धुंधला गई। बाहर की दुनिया में सात रंग थे..दिखते तभी थे जब उनपर नज़र रखो, पाबंदी इतनी कि आंखें झपक न जाएं। .उसने दोनों हाथों में भरकर उन्हें बंद कर लिया...इतना कसकर कि उड़ न सकें। पर हथेलियों को रंग छुपा सकने का हुनर कहां याद था और सीख सकने की सारी गुंजाइशों के रास्ते सपनो से होकर ही तो गुज़रते थे। आंख झपकी और पहला रंग हाथ से फिसलकर हवा में घुल गया। वो रंग के पीछे दौड़ती है...भला इस रंग का नाम क्या है...कोई बता सकेगा..? कोई बताता नहीं और एक अनचीन्ही धुन उसे खींचती है ... पांव पूरा करते हैं एक चक्कर...कोई गिन रहा है क्या..? एक और रंग फिर हाथ से छूटता है....हवा में बिखर जाने के बाद ..उसे पलकों से बुहार कर वापस हथे‍लियों तक लाने की सीख तो किसी ने दी ही नहीं...। रंगों की चटख़ आंखों को खुलने भी कहां देती है...।
सारंगी बजाती हुई जो छाया अभी-अभी पीछे छूटी है उस ने तो हांक लगाकर कहा था ...पांव के नीचे जब भी कांटा आए. या हाथ से छूटकर रंग उड़े तो एक बार..मुझे पुकार लेना..लेकिन पुकारने पर तो वो चुप ही रह गया...शायद अपनी धुन रहा होगा, सुन न पाया हो अपनी ही बात की प्रतिगूंज को। वो पीछे कैसे छूट गया... खु़द ही अपनी रफ़तार को धीमा क्‍यों कर लिया....सोच में डूबने से पहले ही रंग फिर हाथ से फिसल जाता है। बाहर की दुनिया में रंगों के बिना जीने की अनुमति है क्या...? बीन बजाती छाया से वो पूछना चाहती है...जवाब यहां भी नहीं मिलता... और आगे जाना होगा क्या..शायद वहीं तक जहां से वो आवाज आ रही है, एक रंग अब भी कसके पकड़ रखा है उसने ...लेकिन कितनी देर ।
कैसे छूटा उसके हाथ ये आखि़री रंग....नीलाई दूर तक फैली है...कुछ नज़र नहीं आता साफ़-साफ़.। कैसी .थकान है कि झुककर उन कांटों को भी नहीं निकाल पाती जिनसे पांव बिंधे हैं...। रेत पर कुछ निशान हैं...गिरे हुए रंगों के और लहूलुहान पांव के भी....रंग लगी ख़ाली हथेलियों से वो उस द्वारे को बार-बार टोह लेना चाहती है जो कहीं खो गया है....वही दर तो उसे ले जाएगा सपनों की उस दुनिया में वापस, वहां रंगहीन होने पर जी सकने की इजाज़त अब भी बाक़ी है ..।
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अंदर ख्‍़वाब विछोड़ा होया, ख़बर न पैंदी तेरी।
सुज्‍जी बन‍ विच लुट़टी साइयां, चोर शंग ने घेरी।

बुल्‍लेशाह कहते हैं- हम ख्‍़वाब में एक दूजे से बिछुड़ गए हैं, अब पता नहीं चलता कि तुम कहां हो। मेरे साईं मैं वन में अकेली लुट रही हूं, चोर-डाकुओं ने मुझे घेर रखा है।






नोट-तस्वीर में नीली रोशनी का यह जादू  कै़द किया हमारे सहयोगी सुनील कैंथवास ने।

Monday, February 23, 2009

सांड, टेपचू और एक उम्‍मीद के बहाने



...और जब किसी मनुष्‍य के पास स्‍वप्‍न न रह जाएं, फैंटेसी न रहे और मिथक नष्‍ट हो जाएं तो वह घनघोर व्‍यवहारिक, यर्थाथवादी आदमी के रूप में बचा रह जाता है। स्‍म्रतिहीन, आध्‍यात्‍मवंचित, स्‍वप्‍नशून्‍य, आदर्श विरत, सपाट, चौकोर, दुनियादार, तिकड़मी, घटिया आदमी.....।
....ज्ञान अब सिर्फ़ उसकी स्‍म्रतियों में संग्रहीत डाटा या तथ्‍य भर रह गया था। पहले की तरह भावुकता, आस्‍था और विमूढ़ सम्‍मोहन अब कहीं नहीं था। वह वस्‍तुपरक, व्‍यवहारिक और निपट वास्‍तविकतावादी हो गया था। (उदय प्रकाश की वॉरेन हेस्टिंग्‍स का सांड से ली गई पंक्तियां)


दुनियादार हो जाना बुरा नहीं है लेकिन उसे निभाने के लिए तिकड़मी हो जाना  अक्षम्‍य है ,  ख़ासतौर पर इंसान के संदर्भ में, जिसे बंजर ज़मीन पर सपने बीजने से लेकर, उनकी लहलहाती खेती के उल्‍लसित होने तक नाचते देखा हो। मैंने उसके सपनों की हरियाली बेल को सूखते और उसे स्‍वप्‍नशून्‍य होते भी देखा। फैंटेसी से लबालब एक जीवन को सपाट होते देखा। घोर व्‍यवहारिकता के जंगल में एक जिंदादिल इंसान को बेलौस दौड़ते देखा सुविधाओं और दुनियादारी के पीछे। उसके जीवन का सपाट हो जाना, दुनियादार और तिकड़मी हो जाना कितना दुखद है। एक मनुष्‍य का अमानुष हो जाना उससे भी ज्‍़यादा त्रासद लगता है। उसने बहुत जल्‍दी स्‍वीकार किया सपनों के मर जाने को, लेकिन मैं याद दिलाना चाहती हूं कि सपने कभी मरते नहीं। उनकी सूखी हुई बेल को उखाड़कर जला डालो तो भी हरे हो उठते हैं, राख बनकर हवा में घुल जाएं तो भी जिंदा रहते हैं। ये पोस्‍ट सपनों और उम्‍मीदों के नाम ही है। साथ ही हार मान बैठे उस इंसान के नाम भी जिसके पास सलामत पांव, हाथ और दिमाग़ था जबकि उसने कहा कि मैं थक कर गिर चुका हूं हमेशा के लिए।

हां, मुझे बिल्‍कुल मंजूर नहीं है जिंदगी को इस तरह सपाट कर लेना। ऊबड़-खाबड़ और पथरीली जिंदगी पर बार-बार जख्‍़मी होना, थककर गिर जाना मैं बेहतर समझती हूं। मैं खिलाफ़ हूं इस तरह दुनियादार हो जाने के। मुझे तकलीफ़ होगी उस बैल को देखकर जो दो वक्‍़त का चारा आराम से खा सकने के लिए जीवन भ्‍ार आंख के आसपास लगे उस पतरे को सहता रहता है जो उसे एक ही दिशा में देखने की इजाज़त देता है। मैं उस बिगड़ैल सांड के पक्ष में हूं जो इम्‍पीरियल बग्‍घी को चकनाचूर कर देता है, बिना इस बात की परवाह किए कि उसे इम्‍पीरियल आर्मी की टुकड़ी गोली मार देगी। बख्‍शा नहीं जाएगा।

मैं इंसान बने रहना चाहती हूं इसीलिए मुझे यक़ीन है सांड के जिंदा होने पर, टेपचू के पोस्‍टमार्टम के वक्‍़त आंख खोलकर देखने पर और उस उम्‍मीद पर जो पूरी तरह टूट चुकी हो, चूर-चूर होकर रेत हो चुकी हो लेकिन थकी आंखों के झपकने से पहले ही पूरी की पूरी आपके सामने आकर जिंदा हो जाए। मैं कायल हूं ऐसी उम्‍मीद की जो कभी मरती नहीं, किसी भी स्थिति में हार नहीं मानती और परि‍स्थितियों को पूरा मौका देती है अपना दम-ख़म आज़मा लेने का। उम्‍मीद को कोई कैंसर कहे, जिन्‍न कहे, हारी हुई बाज़ी कहे या फिर रेत में मुंह छिपा लेने की आदत ...मैं नहीं मान सकती कि उम्‍मीद की मौत कभी होती है। वो तो जि़दा रहती है बेड़ा ग़र्क हो जाए तो भी।









नोट- ठीक एक साल पहले आज के दिन खू़ब सर्दी थी और अवसाद भी। मैं दफ़तर से पंजाब यूनिवर्सिटी तक पैदल ही चली गई थी। एक वादा पूरा करना था जो कुछ माह पहले हमने इंडियन थिएटर डिपार्टमेंट के प्रोफेसर जी कुमारवर्मा से किया था, जब वे उदयप्रकाश की कहानी वॉरेन हेस्टिंग्‍स का सांड पर नाटक करने के शुरुआती प्रोसेस में थे। बाद में हमने इस बात को भुला दिया लेकिन प्रोफेसर को याद रहा। एक दिन उनका फ़ोन आया कि नाटक देखने ज़रूर आएं। नाटक तभी देखा था और टेपचू कहानी बाद में पढ़ी। मैंने इन दोनों क्रतियों में जिस चीज़ को बहुत गहरे तक महसूस किया वह है ऐसी उम्‍मीद का हर हाल में जिंदा रह जाना जो इंसान के मर जाने पर भी मरती नहीं। फरवरी की उस शाम मैं मर सकने लायक उदास थी लेकिन नाटक देखने के बाद मुझे अपनी उम्‍मीद का पता मिल गया था।

Saturday, February 21, 2009

वो क्‍यों नहीं किसी के साथ भाग जाती....

मुझे सचमुच इस चीज़ से फ़र्क नहीं पड़ता कि उसे कैसा लगता है मेरे बिना...खा़सतौर पर मैं उन दिनों से सीधे-सीधे आंख बचाकर निकल जाता हूं जिन पर हमने अपने नाम लिखकर उड़ा दिए थे। मैं वाकई नहीं जानना चाहता कि उड़ते रहने वाले वे दिन जब उसकी आंखों में उतर कर धुंआं घोलते हैं कि कितनी कड़वाहट होती है, दरअसल मैं उसकी तरफ़ देखता ही नहीं। क्‍यों देखूं जबकि मुझे पता है कि न देखने की क़सम मैंने ही खाई है, और क्‍यों फिर जाऊं अपनी क़सम से जबकि मुझे पता है कि इससे मेरी जि़दगी में कितना आराम आया है। कवि होने का यह अर्थ तो हरगिज़ नहीं निकाला जाना चाहिए कि सारी चिरकुटई की जि़म्मेदारी मैंने ही ली है, अरे जिसे जो महसूस करना है करे, मैं तो अपनी जिंदगी को ठीक करना चाहता हूं, कर भी रहा हूं।

ये वेलेंटाइन-डे था और मैं उस सारी मनहूसियत का सामना नहीं करना चाहता था जो उसके चेहरे से बरसती रहती है, तो भी मेरा रास्‍ता काटकर ही गई न। बाद में हरे कांच से बाहर झांकती रही शायद ये सोचकर कि मैं उसे देख रहा हूं। मेरा ईश्‍वर जानता है कि मैंने एक बार नज़र भर कर उसकी तरफ़ नहीं देखा लेकिन वो शायद मुझे चिढ़ा देना चाहती थी, तभी तो वही झुमके पहनकर आई थी जो मैंने अपनी मूर्खता की पराकाष्‍ठा को छूते हुए उसे लाकर दिए थे। अब कितनी कोफ़त होती है ये सोचकर कि मैंने झुमके ख़रीदने के लिए अपनी बीवी का क्रेडिट कार्ड इस्तेमाल किया, जबकि घर में लंबे समय से इस बात को लेकर तकरार थी कि मैं घरवाली के लिए कोई तोहफ़ा लाता ही नहीं। कवि हूं तो क्‍या इस शर्मिंदगी को महसूस करना भी बंद कर दूं कि जीवन का एक पहला वेलेंटाइन वही था जब मैंने अपनी पत्‍नी के अलावा किसी और को गुलाब का फूल भी लाकर दिया था।

कितने बरस गुज़र गए लेकिन हर साल इस दिन अब भी घर में उस ग़लती के लिए ताना सुनना पड़ता है और काम पर आओ तो ये बेवकूफ़ औरत हमेशा अपना बेसुरा प्रेमगीत अलापती घूमती है। मैं सचमुच इस सब से ऊब चुका हूं, ये औरत कहीं चली क्‍यों नहीं जाती....क्‍यों नहीं किसी और के प्रेम में पड़ जाती, क्‍यों नहीं किसी के साथ भाग जाती, क्‍यों मेरे प्रेम को माथे पर इश्‍तेहार की तरह चिपकाए घूमती है, बिना ये सोचे कि मुझे कितनी परेशानी होती है इस ख़याल से भी कि कभी मैंने उसी माथे को चूमकर कुछ कहा था। मैं सचमुच चाहता हूं कि वो बेवफ़ा हो जाए, मैं उसे किसी के साथ इस तरह देख लूं कि उसे सरे राह दो झापड़ रसीद कर सकूं.... रंगे हाथों इस तरह धर दबोचूं कि वो मिमियाकर, दुम दबाकर मेरे सामने से हमेशा के लिए दफ़ा हो जाए। कुछ ऐसा देख लेना चाहता हूं कि दोस्‍तों के बीच खड़े होकर उसे चार गालियां दे सकूं....मैं सचमुच चाहता हूं कि वो मुझे धोखा दे दे....सचमुच का धोखा।




-एक  डायरी se..

Thursday, February 12, 2009

मौसम किसी का उधार नहीं रखते





ये बारिश कहीं और की थी...बर्फ़ भी शायद यहां की नही थी....किसी और जगह बरसना और बिखरना था इन्‍हें...। तो यहां क्‍यों आए....हां शायद कोई उधार बाक़ी रह गया था किसी का...ज़रूरी नहीं है कि भीगकर और छूकर ही कहा जाए कि मौसम किसी का उधार नहीं रखते...यूं भी समझ आ ही रहा है कि मौसम इंसान नहीं होते....बस मौसम होते हैं। कभी आने में देर भले ही कर दें लेकिन आने का वादा तो निभाते ही हैं।

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इस बार सर्दियों में बारिशें कम हुईं और शिमला जैसी जगहों पर मौसम की बर्फ़ के लिए भी लगभग तरसना ही पड़ा...अब जबकि लगने लगा था कि क्‍या बारिशें होंगी, क्‍या बर्फ़ गिरेगी, अचानक मौसम ने जता दिया कि ये उसकी अपनी मर्जी है कि वो कब कहां जाए।
बारिश की तस्‍वीर चंडीगढ़ में दफ़तर के बाहर हमारे सहयोगी रविकुमार ने ली और शिमला मे गिरी बर्फ़ की फ़ोटो एपी से ली गई है, फ़ोटोग्राफ़र हैं अनिल दयाल।

Tuesday, February 3, 2009

तुम नेपोलियन नहीं हो...

लोगों को सोने से रोकना बहुत भयानक होता है...इससे वे पागल हो सकते हैं। मुझसे यह बर्दाश्‍त नहीं होता, सात साल हो गए मैं सड़ रही हूं, यहां बिलकुल अकेली, एक अछूत की तरह और वह गंदा झुंड हंस रहा है मुझ पर...इतने ऋणी तो तुम मेरे हो कि बदला लेने में मेरी मदद करो। मुझे कहने दो...जानते हो, मेरे ढेरों क़र्ज़ हैं तुम पर, क्‍योंकि तुम्‍हीं ने मुझे प्‍यार में पागल होने का झूठ दिया। मैंने फ़लोरेंत को छोड़ा, दोस्‍तों से बिगाड़ी और अब मुझे यूं चित्‍त छोड़ जाओगे...तुम्‍हारे सारे दोस्‍त मेरी ओर देखते ही पीठ फेर लेते हैं। तुमने मुझसे प्‍यार का नाटक क्‍यों किया। कभी-कभी मैं सोचती हूं, कहीं वह साजि़श तो नहीं थी...हां, एक साजि़श। इस पर बिलकुल विश्‍वास नहीं होता, वह हैरतअंगेज़ प्‍यार और अब मुझे छोड़ देना...क्‍या तुम्‍हें इसका अहसास नहीं होता...।
मुझे फिर से यह मत बताओ कि मैंने लालच में तुमसे ब्‍याह किया, मेरे पास फ़लोरेंत था। मुझे ठेला भर लोग मिल सकते थे, और साफ़ समझ लो कि तुम्‍हारी पत्‍नी बनने के ख़याल से मैं क़तई चमत्‍क्रत नहीं हुई...तुम नेपोलियन नहीं हो। तुम जो कुछ सोचते हो मुझे फिर कभी मत बताना, वरना मैं चिल्‍लाऊंगी। तुमने कहा कुछ भी नहीं है, पर मैं तुम्‍हें मुंह ही मुंह में उन लफ़ज़ों को चुभलाते सुन सकती हूं। यह झूठ है, यह बहुत बड़ा झूठ है चिल्‍लाने का मन होता है। तुमने मुझे प्‍यार में पागल होने की बकवास सुनाई और मैं उसके चक्‍कर में आ गई...नहीं बोलो नहीं। सुनो, मुरियेल मेरे लिए मुझे तुम्‍हारे जवाब याद हो गए हैं। तुम उन्‍हें सैकड़ों बार दोहरा चुके हो। हंसो मत, इससे मेरे भीतर अब कुछ नहीं उतरता। ये गु़स्‍सैल निगाह अपने पास रखो...हां मैंने कहा, गु़स्‍सैल निगाह, मैं तुम्‍हें रिसीवर में से देख सकती हूं....।
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एक गुमशुदा औरत की डायरी-सिमोन द बोउवा की लंबी कहानियां से
अनुवाद ललित कार्तिकेय।

शाम भर चांद-फि़ज़ा प्रसंग से जूझते हुए देर रात इस इस किताब को पढ़ने के बाद यूं ही सी पोस्‍ट।

Friday, January 30, 2009

कोई कह सकेगा उसे...

मुझे विश्‍वास होता जा रहा है कि इस श्राप का तोड़ जालंधर वाले बूढ़े के पास ही है....शाम से याद कर रही हूं लेकिन नाम याद नहीं आ रहा उसका। दो साल पहले जनवरी में ही तो मिला था पहली और शायद आखि़री बार भी...। वो अपने हर मिलने वाले को क़लम बांटा करता था। अपनी कमाई में से सिर्फ़ जीने-खाने लायक पैसा रखकर बाक़ी सारी रक़म के क़लम ख़रीद लिया करता और जो भी सामने आए उसे ही दे देता था,  बरसों से ऐसा ही कर रहा था। कहता था खु़द पढ़-लिख नहीं पाया इसलिए अब दूसरों को पैन देकर सुख पाता है...कितना अनोखा दिव्‍य भाव था यह...‍कि जो खु़द को नहीं मिला उसे दूसरों को देकर ही सुख पा लो....।

उन दिनों हमेशा मेरे पास चार रंग के पैन हुआ करते थे-लाल, नीला, काला और हरा। एक ख़ास कि़स्‍म के  क़लम इस्‍तेमाल करने की ऐसी धुन थी कि उस बूढ़े का दिया पैन लेकर बस यूं ही रख दिया था। कभी चलाकर नहीं देखा.....आज पुराने पर्स में वो रखा मिला ..चलाकर देखा...इंक शायद सूख चुकी थी, दो लाइन चलकर रुक गया...। लॉजिक दिया जा सकता है कि दो साल से रखे-रखे इंक सूख गई होगी इसलिए नहीं चला। लेकिन ऐसा तो कई दिन से हो रहा है, जो भी क़लम हाथ में लेती हूं कुछ देर चलता है और रुक जाता है। उस दिन जब नई किताबों पर नाम और तारीख़ लिखना चाह रही थी तो किसी से मांग लिया ..थोड़ी देर के बाद ही स्‍याही ख़त्‍म हो गई। बाद में जब डायरी पर नाम लिखना था तो भी ऐसा ही तो  हुआ...तब से ऐसा हर दिन यही हो रहा है...जो भी पैन हाथ में आता है...चलना बंद कर देता है...।

कोई नहीं मानेगा इस बात को लेकिन मेज़ की दराज़ में ऐसे ग्‍यारह क़लम पड़े हैं जो औरों के हाथ में चल रहे थे और मुझ तक आते ही चलना बंद कर चुके हैं....जैसे कोई श्राप है जो मेरे हाथ में आते ही रोक देता है उन्‍हें  चलने से....बहुत वाहियात सी सोच कही जा सकती है ये....लेकिन ऐसा सचमुच हो रहा है। पता नहीं क्‍यों ऐसा लग रहा है कि एक बार फिर वही बूढ़ा एक क़लम आकर देगा और यह श्राप टूट जाएगा... । क्‍या कोई बताएगा उसे कि अब मेरे पास ख़ास कि़स्‍म के चार रंगों वाले पैन नहीं हैं....कि  अब हर उस क़लम से काम चला लेती हूं जो सामने आ जाए...कि उसके दिए पैन का निरादर नहीं किया था मैंने, बस थोड़ी सी लापरवाही थी वो...कोई कह सकेगा उसे कि मुझे एक ऐसा क़लम लाकर दे दे...जो मेरे हाथ में आकर चलना बंद न कर दे...जिसकी स्‍याही मेरा हाथ लगते ही सूख न जाए...।


Saturday, January 17, 2009

कौन छिड़कता है निरंतर नमी


ऊपर चढ़ने के लिए पहली सीढ़ी पर पांव रखते ही तेज़ महक का अहसास होता है। बाक़ी सीढि़यां तय करना याद नहीं रहता....अहसास तेज़तर होता जाता है। बिना सांकल लगा दरवाजा खोलकर बैग रखने तक महक इतनी हावी हो जाती है कि सीधे किचन में जाकर देखना ही पड़ता है ढकी हुई कढ़ाही को। आलू-मेथी की सब्‍ज़ी....अपनी पूरी महक और स्‍वाद के साथ जैसे चुनौती दे रही है किसी भूख को...लेकिन इधर तो भूख को डपट दिया गया है। पानी की बोतल उठाते हुए.. अंतडि़यों में ज़बर्दस्‍ती चुप कराकर बिठा दी गई भूख अचानक उठ खड़ी होती है...पानी से भी कहीं पेट भरता होगा...मुंहज़ोर भूख...पूरी बेशर्मी से एक बार और कढ़ाही का ढक्‍कन पलटकर देखने पर मजबूर करती है....पांव बताते हैं....बिस्‍तर तक का रास्‍ता...जैसे कुछ रटा हुआ सिर्फ़ दोहराया जा रहा हो..। बिस्‍तर तक आने के बाद....किसी पसंदीदा किताब के पन्‍नों में मुंह गड़ा लेने के बाद...फि़ज़ूल की सर्फि़ग के बाद....हर कोशिश के बाद भी मेथी-आलू की सब्‍ज़ी की महक हटती नहीं।

 एक लड़ाई शुरू हो रही  है सब्‍ज़ी और भूख के बीच....कौन हारे...सब्‍ज़ी कढ़ाही से उतरकर थाली में रखी दिखती है....लेकिन किसके लिए....इस बीच, नींद या जाग जो भी स्थिति है ...उसमें मेथी की सब्‍ज़ी हरी पत्तियों में तब्‍दील होने लगती है। बारीक, कुरकुरी, हरी निर्दोष सी पत्तियां....आवाज़ लगाकर सब्‍ज़ी बेचते ठेले पर चली आ रही हैं....पत्तियां ऑटो में सिकुड़कर बैठे बुजु़र्ग के थैले से बाहर झांक रही हैं.....पत्तियां हरी हैं....नम कैसे रह पाती हैं...कौन छिड़क रहा है उनपर निरंतर नमी....सारी मुसीबतों और परेशानियों के बीच पत्तियां इतनी ताज़ा कैसे दिख पाती हैं...कैसे बचाकर रखती हैं अपनी महक और स्‍वाद....पत्तियां चुनी जा रही हैं....बिल्‍कुल हरी और ताज़ी.. डंठल फेंकने होंगे...। मेथी की पत्तियां....किसी भूखे और सूखे चेहरे के सामने शर्मिंदा सी होती हुई.........कुछ अघाए चेहरे याद करती हैं...।


Friday, January 16, 2009

यूं ही नहीं कहा जाता ऐसा


हार क्‍यों मानूं;..जबकि पता है कि शिल्‍प के सारे औज़ारों पर ख़ूब पैनी धार लगा रखी है मैंने। और ऐसा भी तो नहीं कि आज तक  कोई कविता लिखी ही न हो...चुटकियों में चमत्‍कार गढ़ता हूं...दुख, सुख, शोक, हर्ष सब को जीकर लिख सकने का हुनर साथ लिए फिरता हूं...लोग यूं ही तो नहीं कहते कि जादू है मेरे शब्‍दों में....यूं ही कैसे कोई किसी के लिए ऐसी बात कह सकता है...मुझे पता है यूं ही नहीं कहा जाता अक्‍सर ऐसा...। उसने भी तो यूं नहीं सुना होगा जब मैंने कहा कि नेरूदा की तरह 101 कविताएं लिखना चाहता हूं तुम्‍हारे लिए....उसने विश्‍वास किया मेरे कहे पर....तो मैंने भी झूठ कहां कहा....सचमुच लिखना चाहता हूं लेकिन सबसे ठंडी रात आए बगैर कैसे शुरू करूं...? मैं जैसे अटक सा गया हूं यहां....।

मेरे देश में कोहरा नहीं पड़ता....न ही ऐसी ठंड..। यहां आने पर पहले-पहल बहुत रूमानी लगता था रात में कोहरे को देखना...महसूस करना.। ये ऐसी बारिश थी जो त्‍वचा को पार करके खू़न तक गीला और ठंडा करती है....इतनी बारीक बूंदें चेहरे को छू जाती हैं कि उनके आकार की सिर्फ़ कल्‍पना करता रह जाता हूं....कोहरे की छुअन को मैं कोई नाम नहीं दे पाता..।  बस उदास होकर अपनी त्‍वचा की सतह से...गहरी सांसों से... इसे पीते रहने की इच्‍छा होती है। यहीं किसी किताब में पढ़ा था कि कोहरा दरअसल पहले स्‍वर्ग में ही रहा करता था....कविता को धरती तक पहुंचाने आया था और  यहीं रह गया..तब से हर साल सर्दी की सबसे ठंडी रात में कविता जब नभ से उतरती है तो कोहरा उसे लिवाने ऊपर तक जाता है...इसीलिए तो अक्‍सर आसमान तक कुछ नज़र नहीं आता.... कोहरा उसे पूरी तरह ढक लेता है...धरती पर आकर कविता एक कवि की हो जाती है और कोहरा फिर बरस भर उसका इंतजार करता है। इस कहानी पर  जितना विश्‍वास करना चाहता हूं उतना ही अविश्‍वास बढ़ता जाता है....। मैं इसे परखना चाहता हूं....छूकर जांच लेना चाहता हूं....।

कितना सच है इसमें कि जब कविता उतरती है...तो सबको नहीं दिखती...दिख जाए तो लेखनी को अमर बना देती है....मेरी उत्‍सुकता बढ़ती जाती है-कैसे उतरती है कोहरे में कविता...कैसे पहुंचेगी वो मुझ तक....। एक-दो रात नहीं बरसों.मैंने उसे गाढ़े कोहरे भरी रात में पुकारा है...जिस वक्‍़त सारी दुनिया गर्म घरों में दुबक जाती थी, मैं ठंडे कोहरे में भटकता रहा हूं। दोनों हाथ उठाकर मैंने  ईश्‍वर से मांगा है कविता का एक बार मुझ तक आना....सिर्फ़ एक बार वो मुझ तक आ जाए..कि..मैं उसे रच सकूं ...और उसके बाद पूरी कर सकूं 101 कविताएं...।


 डायरी से...








फोटो गूगल से

Thursday, January 15, 2009

सबसे ठंडी रात...


...तो  सूर्योत्‍सव बीत चला...और चतुर्थी भी अब बीती हुई ही तो है...। दिन बड़े होंने लगेंगे....शायद कुछ कम सर्द भी। लेकिन...सबसे ठंडी रात के आकर गुज़र जाने से पहले कैसे जा सकते हैं ये सब....कैसे जा सकते हैं...। सूर्य उत्‍तरायण में है....शुभ काम शुरू हो सकेंगे.....लेकिन सबसे शुभ रात के आकर जम जाने से पहले कैसे शुरू किया जा सकता है कोई और काम...। मैं नहीं कर सकता ...कम से कम ऐसा कोई काम तो हरगिज़ नहीं कर सकता जिसे शुभ कहा जा सके। मैं इंतज़ार करूंगा मौसम की सबसे ठंडी रात का ....उतनी ठंडी कि उसके बाद किसी और ठंड की गुंजाइश बाक़ी न रहे...। उस रात जब कोहरा बिल्‍कुल अंधा होकर बरसेगा.....मैं सर से लेकर पांव तक बर्फ़ हो जाऊंगा....मेरी उंगलियां सिगरेट पकड़ने की कोशिश में टेढ़ी होने होंगी....और  होंठ जमकर नीले पड़ जाएंगे...। होंठ ही नहीं मेरा सारा बदन नीला होने लगेगा... रगें जमी हुई सी.....मैं एक नाम पुकारना चाहूंगा लेकिन सांस ठंडी होकर उस नाम को जमा देगी...। ..ओवरकोट और जूते कोहरे की बारिश में पूरे भीग चुके होंगे......तब मैं एक कविता लिखूंगा...। .उसमें ऐसी आग भरूंगा कि वो सर्दियों का लोकगीत बन जाएगी..... प्रेम का ऐसा वर्णन होगा वहां,  कि लोग उसे तापकर मौसम बिता लिया करेंगे.....मैं उस कविता की देह में वो सारी उंसास रोप दूंगा जो अंतस में गरमाहट को छिपाए रखती हैं....उसे लिखते हुए अपने गाढ़े ठंडे लहू को इतना जलाऊंगा कि पढ़ने वाले हमेशा एक हरारत में डूबा हुआ महसूस किया करेंगे.....मौसम की सबसे ठंडी रात में एक कविता आसमान से उतरकर मुझ तक ज़रूर आएगी........। सबसे ठंडी रात का आना अभी बाक़ी है....कविता का मुझ तक आना अभी बाक़ी है...।


डायरी से...





फोटो गूगल से साभार