Friday, September 12, 2008

टेबल कैलेंडर पर चौमासा

बूंदें बाहर आकर भिगो तो नहीं डालेंगी.. और न ही सख़्त गर्मी की उमस आकर सांस को घोटना शुरू करेगी । गर्मी, जंगल, नदी और पहाड़ सब से बात की जा सकती है लेकिन इस ह्यूमिडिटी का क्या करूं, जो बारिश के बाद भी छंटती नहीं। और.. हवा कितनी भारी सी हो जाती है इन दिनों, मुझे हल्की हवा चाहिए, जो सांस में आराम से घुल जाए, मेहनत न करनी पड़े। आप कह सकते हैं कि कितनी फिजू़ल सोच है, हवा क्या ज़रूरत के मुताबिक़ हल्की और भारी की जा सकती है। सही है, सबकी तरह हवा की भी तो अपनी मर्जी है। तो ठीक है न, करे वो भी अपनी मर्जी़... पर ... इस टेबल कैलेंडर को तो मेरी मर्जी़ से ही चलना होगा। मैं इससे बिल्कुल नहीं डरती। महीना बदले और पन्ना भी बदलूं, ज़रूरी नहीं है। भूल भी सकती हूं। याद आने पर पिछले महीनों से माफ़ी भी क्यों मांगूं मैं....। जब तक वो मेरी बाईं टेबल पर पड़ा है, उसे मेरी मर्जी़ से ही चलना होगा। बाद में दिल करेगा, तो रद्दी में दबा दूंगी, न हुआ तो बालकनी से ऐसे उछालकर फेंक दूंगी कि दूर जाकर गिरेगा।

कैलेंडर की तारीख़ों पर लगे टिक हर बार ज़रूरी नहीं कि एक लंबी कहानी कहेंगे, उनके अंदर, ज़्यादा अंदर झांकने की ज़रूरत भी नहीं है। हो सकता है, जून की जिस तारीख़ पर आप टकटकी लगाकर कुछ डीकोड करना चाह रहे हैं, वहां धोबी को एडवांस दिए गए पैसों की ख़ुफि़या इबारत दर्ज हो। या फिर किसी ऐसे जन्मदिन की तारीख़, जिसे याद रखने का ज़रा सा भी मन नहीं था। अब ये साबित करने पर भी न तुल जाइए कि बेहद वाहियात किस्म की बातों को याद करके गोले लगाए गए हैं इस महीने की तारीख़ों के आगे। सोचने की ज़रूरत है कि इतनी गर्मी के बीच इस कैलेंडर पर टिकी हरियाली और पीला बसंत नकली होते हुए भी महीने भर अजीब सी राहत देता रहा है। कई बार नकली चीजे बड़ी राहत देती हैं, इसमें वाहियात क्या है....।

टेबल कैलेंडर कोई इंसान है क्या, जो बता देगा कि जुलाई में आप किन तारी़खों पर झगड़ते रहे और किन पर बिल्कुल शांत होकर अपना काम करते रहे। हां उसने देख लिया था आपके नथुनो को फूलते-पिचकते, कई बार गु़स्से में इतना जो़र से चिल्लाते कि बेचारा वो भी हिलकर रह गया, लेकिन तो भी वो ये सब बता तो नहीं सकता। एक नज़र डालते ही आपको याद आ गया न कि बारिश में छाता लिए इन बच्चों ने कितनी बार कहा था जाओ यार ऑफिस के बाहर निकलो, बारिश देखो, भीग लो ज़रा सा। नहीं माने न, अब तारीख़ों से बिल्कुल मत पूछिए उस कहानी को। कुछ नहीं मिलेगा वहां से। हां ख़ुद ही डूबते रहिए उस तारीख़ के गोले में, जब आपने घुटना-घुटना पानी में घर जाकर पकौड़े बनाए थे।

सावन और भादों का फ़र्क़ कम से कम इस कैलेंडर के जरिए समझने की ज़रूरत मुझे नहीं है। मेरा हिसाब अलग है। मैं अड़कर बैठी हूं कि चार महीने सिर्फ़ सावन होता है, जि़द पर अड़ा हुआ, अटका हुआ सावन। तारीखें झूठ न भी बोलें, तो भी मैं अपनी बात से नहीं हटने वाली। जन्माष्टमी और राखी को आना है, तो इसी सावन में आ जाएं। और भी अगर कोई आना चाहे, तो सावन अभी बाक़ी है। पर, तारीख पर लगा एक गोला जोर से चिल्लाकर मुझे महीनों पहले रची गई साजि़श का हिसाब क्यों गिनाता है। मैं दिन जोड़ती हूं, हां बिल्कुल ठीक निकलता है हिसाब। लेकिन इतने दिनों तक समझ क्यों नहीं आया, मेरा गणित शुरू से कमज़ोर रहा है, बड़ी शर्म की बात है। एक और गोला शर्मिंदगी का।

मुझसे कोई हिसाब नहीं दिया जाएगा। किसी धोबी, दूधवाले या काम वाली किसी का भी नहीं। पहले ही बता दिया था, गणित कमज़ोर है। इतिहास की बातें कर लेना, चाहो तो। सारी किताबें ज़बानी याद हैं। बिना गोले लगी तारीखों में भी ढूंढकर बता सकती हूं कि रजि़या ने किस दिन याक़ूत को हव्वा की नज़र से देखा था। उसके बाद की कहानी भी बिना किसी झोल के सुनाई जा सकती है। कोई ज़रूरी है क्या कि गोलों में क़ैद तारीखें ही सच बोलें। अगर ऐसा होता, तो इंडिया-पाकिस्तान के मैच के बाद देर रात पड़ोस के मियां-बीवी की ऐतिहासिक मारपीट वाली तारीख़ पर गोला न लग गया होता। या फिर उस रात की कहानी पर भी तो गोला लगाया ही जा सकता था, जब उसी मियां-बीवी को मैंने छत पर नाचते-गाते देखा था।

टेबल कैलेंडर पर बनाई तस्वीरें स्कूली बच्चों की हैं और तारीखों पर लगे गोले उन हाथों के, जिन्होंने कभी झूठ नहीं लिखा था।

11 comments:

MANVINDER BHIMBER said...

SHAYDA ji,
bahut gahri baatein hain jo celender ke golo se pre hain....unka samjhana ....kabhi kabhi kisi khaas sadi mai ho pata hai....
khair , mai itna hi kahungi ki post mai kahi gai baatain khoobsurti se bachchon ki jholi mai daal di gai hai...

मोहन वशिष्‍ठ said...

वाह मैडम जी जिस चीज पर किसी का ध्‍यान नहीं जाता उस पर आपने इतना अच्‍छी रजा दी धन्‍यवाद व बधाई हो आपको

Anonymous said...

shayda ji khatarnak tewar dikh rahe hain aapke vaakai bahut achcha lekh likha hai aapne

डॉ .अनुराग said...

कभी एक त्रिवेणी लिखी थी शायदा जी आपको पढ़ा तो आज उसे दोहरा रहा हूँ...


उठायो ख़वाहिशे ओर रख दो लाल घेरे मे
दीवार पर टॅंगी दूर से नज़र आती है......

बदलो सफ्हा कॅलंडर का ये महीना भी गया


आप कम क्यों लिखती है बस यही शिकायत दर्ज कर लीजिये..

Vivek Gupta said...

अच्छा लिखा है आपने | बधाई हो आपको |

Manish Kumar said...

jab bhi aapko padha hai aapke lekhan mein ek gehrayi payi hai. Achcha likhti hain aap ab aapko niymit roop se padhnee ki koshish karoonga.

फ़िरदौस ख़ान said...

सुब्हान अल्लाह...बहुत ही अच्छा लिखा है आपने...

Arun Aditya said...

अच्छा लिखा है।

vijaymaudgill said...

अरे यार क्या बात, क्या है आपको। क्या आपने हमें गहराई में दबाने का ठेका ले रखा है। जब देखो तब गहरा, जब देखो तब गहरा। जितना गहरा आपने हमें पढ़ा-पढ़ा कर पहुंचा दिया है, लगता है कि अब अगर हमसे कोई पाताल की गहराई भी पूछे तो हम बता सकते हैं। पर सच कहूं, जो विजूअल आपके पास मैंने देखा है, वो इस ब्लाग जगत में बहुत ही कम लोगों के पास है। सच में आपके लिखे को समझने के लिए ब्रह्मा की खोपड़ी होनी चाहिए, या फिर नारदमुनि होना चाहिए। ख़ैर मैं हर बार की तरह आपको ये तो नहीं कहूंगा कि बहुत ख़ूब लिखा है, क्योंकि हीरे को उसकी चमक नहीं बताई जाती। वैसे मैंने आपका ये पूरा का पूरा ब्लाग पढ़ डाला है।
बधाई स्वीकार करें।

Dr. Chandra Kumar Jain said...

टेबल कैलेंडर पर बनाई तस्वीरें स्कूली बच्चों की हैं और तारीखों पर लगे गोले उन हाथों के, जिन्होंने कभी झूठ नहीं लिखा था।

आपने बिल्कुल सच लिखा है
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शुक्रिया
डॉ.चन्द्रकुमार जैन

Dr. Nazar Mahmood said...

badhiya lekh.