चलिए नेरूदा को याद करें इन दो कविताओं से गुज़रते हुए.........
पाब्लो नेरूदा 12 जुलाई 1904 से 23 सितंबर 1973
याद
सबकुछ मुझे याद रखना है,
घास की पत्तियों का पता रखना है और अस्त-व्यस्त
घटनाओं के सूत्रों का और
आवासों का, इंच-दर-इंच,
रेलगाडि़यों की लंबी पटरियों का,
और पीड़ा की शिकनों का।
अगर मैं गुलाब की एक भी झाड़ी ग़लत गिनूं
और रात और ख़रगोश के बीच फ़र्क़ न कर पाऊं,
या अगर एक पूरी की पूरी दीवार
मेरी याद में ढह जाए,
तो मुझे बनानी होंगी, फिर एक बार हवा,
भाप, प्रथ्वी, पत्तियां,
बाल और यहां तक ईंटें भी,
कांटे जो मुझे चुभे,
और भागने की रफ़तार ।
करुणा करो कवि पर।
भूलने में मैं हमेशा ही तेज़ रहा
और अपने उन हाथों में
अगोचर को ही पकड़ा,
परस्पर असंबंद़ध चीजें
चीजें जिन्हें छूना असंभव था,
जिनकी तुलना उनके
अस्तित्वहीनता के बाद ही संभव थी।
धुआं किसी खु़शबू की तरह रहा,
खु़शबू धुएं की तरह रही,
एक सोए हुए तन की त्वचा
जो मेरे चुम्बनों से जागा,
लेकिन मुझसे उस स्वप्न की तारीख़
या नाम मत पूछो जिसे मैंने देखा--
मेरे लिए वह रास्ता नाम लेना असंभव है
जिसका शायद कोई देश ही नहीं रहा,
या वह सत्य जो बदला,
या जिसे दिन ने शायद दबा दिया और उसे
अंधेरे में उड़ते जुगनू की तरह,
चकराती रोशनी में बदल दिया।
-मेमरी, पाब्लो नेरूदा कविता संचयन, अनुवाद चंद्रबली सिंह
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ताकि तुम मुझे सुन सको....
ताकि तुम मुझे सुन सको
मेरे शब्द
कभी-कभी इतने झीने हो जाते हैं
समुद्र तट पर बत्तख़ों के रास्ते सरीखे
कंठमाल, जैसे नशे में धुत्त एक घंटी
अंगूरों जैसे मुलायम तुम्हारे हाथों के लिए
और मैं बहुत दूर से अपने शब्दों को देखता हूं
मुझसे ज़्यादा वे तुम्हारे हैं
मेरी पुरातन यातना पर वे बेल की तरह चढ़ते जाते हैं
वह भीगी दीवारों पर भी इसी तरह चढ़ती है
इस क्रूर खेल का दोष तुम्हारा है
वे जा रहे हैं मेरी अंधेरी मांद छोड़कर
तुम हर चीज़ को भर रही हो, तुम हर चीज़ को भर रही हो
तुमसे पहले वे उस अकेलेपन में रहा करते थे जिसमें अब तुम हो
और उन्हें तुमसे ज़्यादा आदत है मेरी ख़ामोशी की
मैं चाहता हूं कि अब वे कहें जो मैं तुमसे कहना चाहता हूं
तुम्हें वह सुनाएं जैसे मैं चाहता हूं तुम मुझे सुनो
पीड़ा की हवा के थपेड़े अब भी उन पर पड़ते हैं सदा की तरह
कभी-कभी स्वप्नों के अंधड़ अब भी उन्हें उलटा देते हैं
मेरी दर्दभरी आवाज़ में तुम दूसरी आवाज़ें सुनती हो
पुरातन मुहों का रुदन, पुरातन यातनाओं का रक्त
मुझे प्रेम करो साथी, मुझे छोड़ो मत, मेरा पीछा करो
मेरा पीछा करो साथी, वेदना की इस लहर पर
लेकिन मेरे शब्दों पर तुम्हारे प्रेम के धब्बे लग जाते हैं
तुम हर चीज़ को भर रही हो, तुम हर चीज़ को भर रही हो
मैं उन्हें बदल रहा हूं एक अंतहीन हार में
तुम्हारे सफे़द, अंगूरों जैसे मुलायम हाथों के लिए
-बीस प्रेम कविताएं और उदासी का एक गीत से, अनुवाद अशोक पांडे का
7 comments:
बिलकुल याद रखने लायक कविताएं।
दोनों कविताएं जानदार। कई बार पढ़ीं। आज फिर पढ़ीं। इनमें कुछ पंक्तियां बार-बार पढ़ीं। दोनों कविताअों का अनुवाद भी जानदार।
इन्हें पढ़कर आज फिर उदास हूं।
अद्भुत रचनाएँ...वाह.
नीरज
ग़ज़ब .......... शुक्रिया.
आभार इस प्रस्तुति के लिए.
पाब्लो नरूदा विश्व कविता के सशक्त हस्ताक्षर हैं। उनकी कविताओं को प्रस्तुत करने का शुक्रिया।
pablo Niruda ki kavita achchhi lagi. Amlemdu Asthana
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