Friday, January 16, 2009

यूं ही नहीं कहा जाता ऐसा


हार क्‍यों मानूं;..जबकि पता है कि शिल्‍प के सारे औज़ारों पर ख़ूब पैनी धार लगा रखी है मैंने। और ऐसा भी तो नहीं कि आज तक  कोई कविता लिखी ही न हो...चुटकियों में चमत्‍कार गढ़ता हूं...दुख, सुख, शोक, हर्ष सब को जीकर लिख सकने का हुनर साथ लिए फिरता हूं...लोग यूं ही तो नहीं कहते कि जादू है मेरे शब्‍दों में....यूं ही कैसे कोई किसी के लिए ऐसी बात कह सकता है...मुझे पता है यूं ही नहीं कहा जाता अक्‍सर ऐसा...। उसने भी तो यूं नहीं सुना होगा जब मैंने कहा कि नेरूदा की तरह 101 कविताएं लिखना चाहता हूं तुम्‍हारे लिए....उसने विश्‍वास किया मेरे कहे पर....तो मैंने भी झूठ कहां कहा....सचमुच लिखना चाहता हूं लेकिन सबसे ठंडी रात आए बगैर कैसे शुरू करूं...? मैं जैसे अटक सा गया हूं यहां....।

मेरे देश में कोहरा नहीं पड़ता....न ही ऐसी ठंड..। यहां आने पर पहले-पहल बहुत रूमानी लगता था रात में कोहरे को देखना...महसूस करना.। ये ऐसी बारिश थी जो त्‍वचा को पार करके खू़न तक गीला और ठंडा करती है....इतनी बारीक बूंदें चेहरे को छू जाती हैं कि उनके आकार की सिर्फ़ कल्‍पना करता रह जाता हूं....कोहरे की छुअन को मैं कोई नाम नहीं दे पाता..।  बस उदास होकर अपनी त्‍वचा की सतह से...गहरी सांसों से... इसे पीते रहने की इच्‍छा होती है। यहीं किसी किताब में पढ़ा था कि कोहरा दरअसल पहले स्‍वर्ग में ही रहा करता था....कविता को धरती तक पहुंचाने आया था और  यहीं रह गया..तब से हर साल सर्दी की सबसे ठंडी रात में कविता जब नभ से उतरती है तो कोहरा उसे लिवाने ऊपर तक जाता है...इसीलिए तो अक्‍सर आसमान तक कुछ नज़र नहीं आता.... कोहरा उसे पूरी तरह ढक लेता है...धरती पर आकर कविता एक कवि की हो जाती है और कोहरा फिर बरस भर उसका इंतजार करता है। इस कहानी पर  जितना विश्‍वास करना चाहता हूं उतना ही अविश्‍वास बढ़ता जाता है....। मैं इसे परखना चाहता हूं....छूकर जांच लेना चाहता हूं....।

कितना सच है इसमें कि जब कविता उतरती है...तो सबको नहीं दिखती...दिख जाए तो लेखनी को अमर बना देती है....मेरी उत्‍सुकता बढ़ती जाती है-कैसे उतरती है कोहरे में कविता...कैसे पहुंचेगी वो मुझ तक....। एक-दो रात नहीं बरसों.मैंने उसे गाढ़े कोहरे भरी रात में पुकारा है...जिस वक्‍़त सारी दुनिया गर्म घरों में दुबक जाती थी, मैं ठंडे कोहरे में भटकता रहा हूं। दोनों हाथ उठाकर मैंने  ईश्‍वर से मांगा है कविता का एक बार मुझ तक आना....सिर्फ़ एक बार वो मुझ तक आ जाए..कि..मैं उसे रच सकूं ...और उसके बाद पूरी कर सकूं 101 कविताएं...।


 डायरी से...








फोटो गूगल से

13 comments:

Vinay said...

कभी यूँ ही सोचता हूँ इस ब्लॉग के पन्नों में कोई पन्ना ऐसा मिले कि फिर न जी चुरा पाऊँ पढ़ने से, तो यह तलाश यहीं रूकती है...

---मेरा पृष्ठ
गुलाबी कोंपलें

Udan Tashtari said...

आमीन!!


फोटो गजब की लाईं हैं. आभार.

azdak said...

कमेंट करना चाह रहा था, लेकिन स्‍वयं को रोक ले रहा हूं.. जीवन में ऐसे मौके नहीं होते कि अच्‍छा होता है आदमी कुछ करने से खुद को रोक ले?

Unknown said...

bahut sundar....aameen......

विधुल्लता said...

पहले तो गायब हो जाने वाली बात करो ...दिखाई नही देती हो ...मुश्किल होती है..शब्दों के ढेर मैं ..हकीकतों के जिक्र मैं ..दिल की तपिश मैं ..या फूलों के रंग मैं ...मिलो तो सही...आज की पोस्ट अभी पढ़ी ...दिल मैं उतर गई..क्या लिखूं यूं ही कैसे कोई किसी के लिए ऐसी बात कह सकता है...aamin

कंचन सिंह चौहान said...

ऐसी बारिश थी जो त्‍वचा को पार करके खू़न तक गीला और ठंडा करती है....

vakya padh kar laga ki agyeya ki APANE APANE AJANBI padh rahi hu.n....!

itani shiddat se likhna bada mushkil kaam hota hai

मोहन वशिष्‍ठ said...

मैडम जीईईईईईई
नमस्‍कार

कैसे हैं आप
बहुत अच्‍छा लिखते तो हो ही आप और आज भी अच्‍छा ही लिखा है बहुत बहुत शुभकामनाएं

शायदा said...

@pramod jee
मेहरबानी सर ।

नीरज गोस्वामी said...

खूबसूरत अनमोल लफ्जों का जखीरा है आप के पास...लूटने की चाह होती है...जितने खूबसूरत लफ्ज़ हैं उतने ही खूबसूरत ज़ज्बात हैं...क्या कहूँ...पढता हूँ और हैरान हो जाता हूँ...वाह...शायदा जी...वाह...
नीरज

एस. बी. सिंह said...

"कितना सच है इसमें कि जब कविता उतरती है...तो सबको नहीं दिखती...दिख जाए तो लेखनी को अमर बना देती है।"

पूरा सच है। अद्भुत आलेख ।

राजीव थेपड़ा ( भूतनाथ ) said...

मैं अभी कल्पना करने लगा हूँ.........कोहरे की...........और उस कोहरे से उतरती हुई कविता की..........आप उस पर पैनी नज़र रखना...........कहीं ऐसा ना हो कि मैं उन्हें आपसे पहले ही पकड़ लूँ........!!

राजीव थेपड़ा ( भूतनाथ ) said...

मैं अभी कल्पना करने लगा हूँ.........कोहरे की...........और उस कोहरे से उतरती हुई कविता की..........आप उस पर पैनी नज़र रखना...........कहीं ऐसा ना हो कि मैं उन्हें आपसे पहले ही पकड़ लूँ........!!

राजीव थेपड़ा ( भूतनाथ ) said...

मैं अभी कल्पना करने लगा हूँ.........कोहरे की...........और उस कोहरे से उतरती हुई कविता की..........आप उस पर पैनी नज़र रखना...........कहीं ऐसा ना हो कि मैं उन्हें आपसे पहले ही पकड़ लूँ........!!