Sunday, May 17, 2009

कैसी अफीम घुली थी उन दिनों मंे

कुछ तो ऐसा है जो मुझे समझ नहीं आता, जिसे डीकोड करने की कोशिश में अक्सर मैं उस जगह जाकर खड़ा होता हूं , जहां से पहली बार उसे आते हुए देखा था। अब वहां खड़ा होने पर मैं उसे नज़र नहीं आता... न ही वहां खड़े हुए उसका आना मैं देख पाता हूं। इस पहेली का सिरा कहां है...? कल देर तक इसे सुलझाने की कोशिश करते हुए aur  एक कड़वाहट और पल्ले पड़ ही गई। गाड़ी के धूल पर भरे शीशे पर लिखा एक शब्द अमली...मुझे काटने क्यों दौड़ा? इस नाम को तो कभी मैने खु़द अपने लिए तय किया था। पन्ने खोलने पड़ते हैं उन दिनों की तहों में जाने के लिए जब हर वक़्त एक नशे मंे रहने का सा अहसास होता था। मै उससे बाहर कब आना चाहता था? एक दिन मैंने गहरे डूबकर उससे कहा-तुम औरत नहीं अफीम हो...और साथ ही उसके मोबाइल के कॉन्टेक्ट ऑप्शन में जाकर अपने नाम के बदले अमली सेव कर दिया था। लंबे समय तक उसके फोन पर वहां अमली शब्द दिखता रहा...पता नहीं अब भी उसने बदला है या नहीं। लेकिन अपने दिमाग से मैं उस नशे और अमल...सब को डिलीट कर चुका हूं। एक उंगली से उकेरे गए इन नाम पर कभी मैं किस तरह न्यौछावर होने को उतावला था...आज उस उंगली को चूम लेने का खयाल एक अजीब सी koft  से भर देता है।
कैसे बदल जाते हैं दिन....और क्यों बदल जाते हैं? मैं खु़द से हज़ार सवाल पूछते हुए हैरान होता हूं कि क्या ये मैं ही हूं जो आज यह सब कर रहा हूं जबकि कभी मैंने ही इस अफीम जैसी औरत को घूंट-घूंट चख लेने तक का सब्र नहीं किया था। मुझे बहुत जल्दी थी। उस नशे की बात बिल्कुल अकेलेपन में सोचते हुए भी शर्मसारी सिर चढ़ी जाती है। क्या जवाब दूंगा मै¡ अपनी उम्र के उन बरसों को जो मैंने उस नशे मंे बिता दिए..जिसका आज कोई मतलब नहीं। कल जब मैं लिखूंगा इन सबके बारे में तो शब्द मेरे पास आने से इनकार तो नहीं कर देंगे? अपने लेखन मंे उसे खारिज करने का काम मैंने काफी पहले कर दिया था। यहां तक कि जिन जगहों पर अफीम में डूबे उन दिनों का जि़क्र था उन्हें एक फलसफे का जामा पहनाकर दोबारा इस तरह दुरुस्त कर दिया है कि कोई पारखी वहां तक जाकर उसके असली रंग को देख नहीं सकेगा। लेकिन ये सब करते रहना क्या हमेशा आसान बना रह सकेगा मेरे लिए?
अपनी होशियारी पर कायल होना मुझे कभी भूलता नहीं। लेकिन उसे अपने सामने पाकर मेरे अंदर एक कॉप्लेक्स तो ज़रूर जागता है कि मेरी कोई होशियारी उससे छिप क्यों नहीं पाती? अपनी बढ़ाई हुई दाढ़ी के कारण भाव छिपा जाने की कला में मुझे महारत है, लेकिन वो न देखते हुए भी सब कैसे समझ लेती है। कई बार ऐसा लगता है जैसे मैं उसके सामने पारदर्शी हो गया हूं। मेरे अंदर की हर हलचल उसे दिख रही है। यहां तक कि मेरी सोच का सारा सर्किट उसकी नज़र मंे है और आंतों से लेकर ब्लड कॉपोनेंट तक की सारी तफसील उसके पास दर्ज है। इतना खुलापन...मैं इस सब से उकता गया हूं, इस हद तक कि अब लगता है बस...और नहीं। मैं छिपकर रहना चाहता हूं, अपने आप पर एक ऐसा parda चढ़ाकर जिसके परे सिर्फ वही दिखे जो मैं दिखाना चाहता हूं। काश कि मैं उसे कह सकूं वो उस हवा मंे सांस न ले जहां मैं ले रहा हूं...दूर चली जाए अपनी अफीम की महक वाली सारी सांसें लेकर ताकि मैं उन दिनों की सारी स्मृतियांे को जड़ से खुरच कर साफ कर सकूं।

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-इस पोस्ट का शीर्षक ब्लॉगर महेन मेहता की एक कविता की एक लाइन ही है। जब मैंने यह कविता पढ़ी तो ये लाइन अटक गई थी कहीं। खै़र यहां बिना पूछे लगा ली गई है, आभार सहित।


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ek diary ka panna

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