Monday, August 24, 2009

फिर से एक बार हर एक चीज़ वही हो जो है....

दिन, किसी खूंटी पर टंगी क़मीज़ नहीं थे....तो भी उन्‍हें झटक कर पहनना सीख लिया मैंने।  हर सुबह घर से निकलते हुए साफ़ और बेदाग़ दिखता हूं,  जैसे देर रात इस्‍तरी से हर शिकन को मिटा दिया गया था......अब आदत हो गई है इसकी। कोसी आवाज़ में कोई पूछता है- आज क्‍या है?  दिमाग़ पर ज़ोर डाले बिना तारीख़ दिन और साल बताने लगता हूं। उसकी पीली आंखों में आंसू मटमैले होकर कोरों से बाहर आएं इससे पहले ही, खु़द को इस सारी स्थिति से झटक कर दूर करते हुए बाहर निकल जाता हूं। मुझे सफ़ेद रंग पसंद है, पीला और मटमैला नहीं। इससे पहले दिनभर मेरी कुर्सी के ठीक बाईं तरफ़ रास्‍ते के बीचोंबीच फर्श पर बिछी दो बाई दो की सफे़द टाइल मेरा मखौल उ़ड़ाती रहती है। वो पहली बार इसी जगह आकर खड़ी हुई थी मेरे सामने....कौन सा दिन था वह....मैं एक बार फिर क़मीज़ पर चिपके किसी दिन को झटकने का उपक्रम करता हूं। याद आ सकने की सारी गुंजाइशों को ख़ारिज करने की कामयाब कोशिश मुझे ख़ास कि़स्‍म की अमीरी से भर देती है। 
वापस लौटता हूं....दो बाई दो टाइल पर किसी पांव के निशान नहीं हैं, सफेद चमकती हुई बेदाग़ टाइल....उसका रंग मेरी क़मीज़ से ज्‍़यादा सफे़द नहीं है.... खु़द को तसल्‍ली देता हूं, लेकिन अगले ही पल उस टाइल पर दो पांव नज़र आते हैं,  चेहरा देखे बिना भी जानता हूं, वही है,  फिर से वही है। फिर पूछेगी.आज क्‍या है...मुझे गिनना होगा दिन, महीना और तारीख़। वो हमेशा आकर उसी जगह क्‍यों रुकती है....जैसे कदम नाप रखे हों.....ठीक उसी टाइल तक आने के लिए, न एक इंच इधर, न उधर....। जिस वक्‍़त कोई इस कमरे में नहीं होता, मैं आराम से उस जगह पर सिगरेट पीते हुए चहलक़दमी करना चाहता हूं....एक सावधानी हमेशा मेरे दिमाग पर टन्‍न से बजते हुए मुझसे दो क़दम आगे रहती है, आगाह करते हुए कि इस टाइल पर पांव मत रखना। कितनी भी हडबड़ी हो, कैसी भी बेख़याली हो मैं उस टाइल पर बरसों से जमकर खड़े हुए एक दिन से टकराता नहीं। वहां पांव पड़ना जैसे किसी अपशकुन के घेरे में जाने जैसा लगता है। यह दिन यहां कब से एक पिलर की तरह खड़ा है....जब ये इमारत बनी थी तब से...;नहीं शायद उससे भी पहले से, पता नहीं .दिमाग़ पर ज़ोर डालना चाहता हूं....कौन सा दिन रहा होगा वो.....।  हिसाब लगा लेना चाहता हूं कितने बरस हो गए सावधानी से चलते हुए,  अमीरी महसूस करने का एक मौक़ा हाथ से फिसल जाता है। इस फ़र्श को बदलना दूंगा  हूं.....टाइल समेत। चालाकियों को परे सरकाते हुए अपनी कमीज़ के अंदर झांकता हूं....आंख में मटमैले आंसू उतरने लगते हैं, बेहद ग़रीब से एक आंसू को उगंली के पोर पर रखकर फूंक से उड़ा देता हूं। उसकी हैसियत उड़ जाने भर की है.....। 
रो देना....किसी दिन को मिटा देने का पूरा और पुख्‍ता इलाज नहीं है। मैं हार जाना चाहता हूं, इस सफ़ेदी से...थोड़ा सा मैल और थोड़ी सी गर्द, कभी कफ़ और कॉलर पर नजर आ जाए.. दिनों के बंद सिरे को उधेड़कर, रेशा-रेशा धुनकर बिखेरते हुए दिन की धज्जियों को उड़ाकर कुछ देर खु़श हो जाना चाहता हूं। इतना ख़ुश कि मेरी आंखों से सारा गंदला पानी बह जाए....बाक़ी बची रहे साफ़ और बेगुनाह नमी....। ..सचमुच मेरी आंखों से पानी बहने लगता है....पोंछने के लिए रूमाल निकालता हूं...कब से धुला नहीं है, शायद तभी से जब मैंने साफ़ क़मीज़ पहननी शुरु की थी.....पत्‍नी को आवाज़ लगाता हूं-इस घर में मुझे एक साफ़ बेदाग़ रूमाल मिल सकेगा.....। जवाब नहीं आता, बस एक और रूमाल मुझ पर आ गिरता है उतना ही मटमैला जितना पहले से मेरे हाथ में है...।  

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.-एक पाई हुई डायरी का पीला पन्‍ना

9 comments:

Ashok Pande said...

रो देना....किसी दिन को मिटा देने का पूरा और पुख्‍ता इलाज नहीं है। मैं हार जाना चाहता हूं, इस सफ़ेदी से...थोड़ा सा मैल और थोड़ी सी गर्द ...

अच्छी इमेजेज़ से अटी पोस्ट ...

... बढ़िया!

drsatyajitsahu.blogspot.in said...

i like the intensity of artical .beautiful one , cong.

उम्मतें said...

~~जवाब नहीं आता, बस एक और रूमाल मुझ पर आ गिरता है उतना ही मटमैला जितना पहले से मेरे हाथ में है...~~
हर्फ़ दर हर्फ़...अन्दर...चुभ सा गया कुछ !

डॉ .अनुराग said...

एक कोलाज़ है ....कई रंगों का

Udan Tashtari said...

शानदार लेखन..डुबा ले जात है अपने साथ.

Mithilesh dubey said...

बहुत खुब आपकी ये रचना सिधे दिल तक उतर गयी।

महेन्द्र मिश्र said...

बढ़िया पोस्ट ...

Ashok Kumar pandey said...

कमाल की रवानगी है

राजीव थेपड़ा ( भूतनाथ ) said...

kya kahun....kya likhun....samajh hi nahin aa rahaa......!!