आज इतने वर्ष बाद सोचने पर लगता है हिंदी-उर्दू में फ़र्क़ कहां है। मेरे लिए तो सचमुच फ़र्क़ नहीं है। जिस दिन फ़र्क़ दिखेगा, मैं ईश्वर से कहूंगा-
हे ईश्वर , मुझे उस शून्य की आरे से चलो..
मुझे पीछे मुड़कर देखने पर महसूस होता है, ईश्वर शायद मेरी प्रार्थना का आखि़री हिस्सा ही सुन पाया। वो मुझे ले गया, शून्य की ओर, एक शून्य से दूसरे शून्य तक। फिर तीसरे-चौथे शून्य की ओर। अब सिर्फ महाशून्य बाक़ी है, जिसकी ओर मेरे क़दम तेज़ी से बढ़ रहे हैं।
लेकिन मैंने तो ईश्वर से कहा था, मुझे उस युग में ले चलो, जब शब्द नहीं थे, और अक्षर भी नहीं थे, जब भाषा भी नहीं थी और शून्य था। ईश्वर मुझे जिस युग में ले आया वहां शून्य ज़रूर है, मगर शब्द भी हैं और अक्षर भी, भाषा भी है। केवल संवेदनाएं नहीं है।
ख़ताओं और बेवफ़ाइयों के घटाटोप में मेरे अंदर साहस भी कहां रह गया है कि मैं अपने ईश्वर से कहूं-हे ईश्वर मुझे इस शून्य से उबारो और मेरी बेतरतीब चलनेवाली सांसों को विराम दो।
ईश्वर सुनता है, सबकी सुनता है, ऐसा मैंने किताबों में पढ़ा है। ईश्वर मेरी भी सुनेगा, ज़रूर सुनेगा।
एक दिन, किसी गोष्ठी में, मैंने अगंभीर लहजे में कहा था-मैं हिंदी और उर्दू दोनों भाषाओं में लिखता हूं। इसके पीछे एक छोटा सा राज़ है। दरअसल मुझे ये दोनों भाषाएं नहीं आती । हिंदी में इस कारण लिखता हूं कि ग़लती पकड़े जाने पर आसानी से कहकर निकल सकूं कि यह रचना उर्दू की है, उर्दू में मूलरूप से लिखी गई है। उर्दू में लिखते वक़्त दिमाग़ में यही ख़याल रहता है, कोई उस्ताद मेरी ग़लतियों की गिरफ़त कर ले तो मैं हिंदी का सहारा लेकर अपनी अज्ञानता और नादानी पर पर्दा डाल सकूं। हिंदी और उर्दू वाले मेरी इस नादानी से अच्छी तरह परिचित हैं। हिंदी वाले मुझे उर्दूवाला और उर्दू वाले मुझे हिंदीवाला मानकर मेरी भाषाई कमज़ोरियों को नज़रअंदाज़ कर देते हैं।
कभी-कभी लगता है, मेरी जड़ें कहां हैं, कोई भी मुझे अपना मानने को तैयार नहीं।
हिंदी हो या उर्दू, दोनों का हाल एक जैसा है। अपनी-अपनी जगह दोनों को तिरस्कार के कड़वे घूंट पीने पड़ रहे हैं। दोनों भाषाएं दोहरी बदकि़स्मती का शिकार हैं। इनके विरोधी इनके समर्थकों से ज़्यादा जागरूक हैं! हमने इन्हें अपने दिलों में रच-बस जाने की इजाज़त नहीं दी है। हमारी अभिव्यक्ति इन भाषाओं से कतराती है, इन्हें भरोसेमंद नहीं मानती।
लोग कहते हैं,राजसत्ताएं और कंपनियां बाज़ार में भाषा का मूल्य तय करती हैं। भाषा का ग्राफ़ इसी मूल्य पर ऊपर या नीचे की ओर आता-जाता रहता है। बाज़ार में खपत नहीं हो तो भाषाएं लुप्त होने लगती हैं। अंग्रेजी भाषा आज भी भारतीय बाज़ार की सबसे अधिक मूल्य वाली वस्तु है। हम इसे अपने सीने से लगाए रखने को आतुर रहते हैं।
अंग्रेजी भाषा के प्रति हमारी यह आतुरता ही हिंदी और उर्दू, दोनों भाषाओं के स्वभाविक विकास और फैलाव के रास्ते की रुकावट है। ऐसा मैं अंग्रेजी नहीं जानने या कम जानने के कारण नहीं कह रहा हूं।
मैं सपने देखने का आदी हूं। मेरी आंखों की झील में सांवले सपनो की छाया तैरती रहती है। सपने जो इंसान को इंसानों से जोड़ते हैं, शब्द को शब्दों से, अक्षर को अक्षरों से जोड़ते हैं, और रूह की गहराइयों तक उतरने में हमारी मदद करते हैं।
बचपन से लेकर आज तक, मैंने जितने सपने देखे हैं उनकी भाषा हिंदी रही है, या उर्दू। अंग्रेजी मेरे सपनों की भाषा कभी नहीं रही, आगे भी नहीं रहेगी। अंग्रेजी से मेरा लगाव मुझे बेचैन नहीं करता। मेरी बेचैनियां तो हिंदी और उर्दू को लेकर हैं।
-सितंबर 1995
अतीत का चेहरा, जाबिर हुसैन की डायरी .।
हे ईश्वर , मुझे उस शून्य की आरे से चलो..
मुझे पीछे मुड़कर देखने पर महसूस होता है, ईश्वर शायद मेरी प्रार्थना का आखि़री हिस्सा ही सुन पाया। वो मुझे ले गया, शून्य की ओर, एक शून्य से दूसरे शून्य तक। फिर तीसरे-चौथे शून्य की ओर। अब सिर्फ महाशून्य बाक़ी है, जिसकी ओर मेरे क़दम तेज़ी से बढ़ रहे हैं।
लेकिन मैंने तो ईश्वर से कहा था, मुझे उस युग में ले चलो, जब शब्द नहीं थे, और अक्षर भी नहीं थे, जब भाषा भी नहीं थी और शून्य था। ईश्वर मुझे जिस युग में ले आया वहां शून्य ज़रूर है, मगर शब्द भी हैं और अक्षर भी, भाषा भी है। केवल संवेदनाएं नहीं है।
ख़ताओं और बेवफ़ाइयों के घटाटोप में मेरे अंदर साहस भी कहां रह गया है कि मैं अपने ईश्वर से कहूं-हे ईश्वर मुझे इस शून्य से उबारो और मेरी बेतरतीब चलनेवाली सांसों को विराम दो।
ईश्वर सुनता है, सबकी सुनता है, ऐसा मैंने किताबों में पढ़ा है। ईश्वर मेरी भी सुनेगा, ज़रूर सुनेगा।
एक दिन, किसी गोष्ठी में, मैंने अगंभीर लहजे में कहा था-मैं हिंदी और उर्दू दोनों भाषाओं में लिखता हूं। इसके पीछे एक छोटा सा राज़ है। दरअसल मुझे ये दोनों भाषाएं नहीं आती । हिंदी में इस कारण लिखता हूं कि ग़लती पकड़े जाने पर आसानी से कहकर निकल सकूं कि यह रचना उर्दू की है, उर्दू में मूलरूप से लिखी गई है। उर्दू में लिखते वक़्त दिमाग़ में यही ख़याल रहता है, कोई उस्ताद मेरी ग़लतियों की गिरफ़त कर ले तो मैं हिंदी का सहारा लेकर अपनी अज्ञानता और नादानी पर पर्दा डाल सकूं। हिंदी और उर्दू वाले मेरी इस नादानी से अच्छी तरह परिचित हैं। हिंदी वाले मुझे उर्दूवाला और उर्दू वाले मुझे हिंदीवाला मानकर मेरी भाषाई कमज़ोरियों को नज़रअंदाज़ कर देते हैं।
कभी-कभी लगता है, मेरी जड़ें कहां हैं, कोई भी मुझे अपना मानने को तैयार नहीं।
हिंदी हो या उर्दू, दोनों का हाल एक जैसा है। अपनी-अपनी जगह दोनों को तिरस्कार के कड़वे घूंट पीने पड़ रहे हैं। दोनों भाषाएं दोहरी बदकि़स्मती का शिकार हैं। इनके विरोधी इनके समर्थकों से ज़्यादा जागरूक हैं! हमने इन्हें अपने दिलों में रच-बस जाने की इजाज़त नहीं दी है। हमारी अभिव्यक्ति इन भाषाओं से कतराती है, इन्हें भरोसेमंद नहीं मानती।
लोग कहते हैं,राजसत्ताएं और कंपनियां बाज़ार में भाषा का मूल्य तय करती हैं। भाषा का ग्राफ़ इसी मूल्य पर ऊपर या नीचे की ओर आता-जाता रहता है। बाज़ार में खपत नहीं हो तो भाषाएं लुप्त होने लगती हैं। अंग्रेजी भाषा आज भी भारतीय बाज़ार की सबसे अधिक मूल्य वाली वस्तु है। हम इसे अपने सीने से लगाए रखने को आतुर रहते हैं।
अंग्रेजी भाषा के प्रति हमारी यह आतुरता ही हिंदी और उर्दू, दोनों भाषाओं के स्वभाविक विकास और फैलाव के रास्ते की रुकावट है। ऐसा मैं अंग्रेजी नहीं जानने या कम जानने के कारण नहीं कह रहा हूं।
मैं सपने देखने का आदी हूं। मेरी आंखों की झील में सांवले सपनो की छाया तैरती रहती है। सपने जो इंसान को इंसानों से जोड़ते हैं, शब्द को शब्दों से, अक्षर को अक्षरों से जोड़ते हैं, और रूह की गहराइयों तक उतरने में हमारी मदद करते हैं।
बचपन से लेकर आज तक, मैंने जितने सपने देखे हैं उनकी भाषा हिंदी रही है, या उर्दू। अंग्रेजी मेरे सपनों की भाषा कभी नहीं रही, आगे भी नहीं रहेगी। अंग्रेजी से मेरा लगाव मुझे बेचैन नहीं करता। मेरी बेचैनियां तो हिंदी और उर्दू को लेकर हैं।
-सितंबर 1995
अतीत का चेहरा, जाबिर हुसैन की डायरी .।
9 comments:
हमारी तो हिंदी उर्दू के अतिरिक्त
कोई भाषा है ही नहीं
न सपनों की
न अपनों की।
मातृभाषा सपनों की भाषा होती है बाकी बाद में .... बहुत उम्दा अभिव्यक्ति शायदा जी
सपने जो इंसान को इंसानों से जोड़ते हैं, शब्द को शब्दों से, अक्षर को अक्षरों से जोड़ते हैं, और रूह की गहराइयों तक उतरने में हमारी मदद करते हैं।
बहुत सार्थक हैं ये सारे शब्द सपने भाशा मे भेद भाव नहीं करते न उन की अपनी कोई भाशा होती है। ये भेद भाव तो हम इन्सान ही कर देते हैं बधाई इस रचना के लिये
sapney mann ki bhavnao ko hi chitra ke roop me darshate hain achhi abhivyakti
शायदा जी .आलम जौकी साहब ने बारहा एक नोवेल का जिक्र किया है ...हिंदी उर्दू के मसले पर..फिलहाल नाम ध्यान नहीं आ रहा है ....उसमे भाषा ओर उसके लहजे पर बड़े वाजिब सवाल उठाये गये है .ओर जाने अनजाने उनकी अहमियत कितनी है इसका आदमी की सोच ओर उसकी जाती जिंदगी पे कितना असर पड़ता है ...विस्तार से बताया है ...पर नयी पीढी किस तरह से हिंदी उर्दू से दूर हो रही है हैरान करता है .खास तौर से जब फरहान अख्तर कहते है की उन्होंने दिल चाहत है की स्क्रिप्ट पहले अंग्रेजी में लिखी थी .बाद में उनके वालिद ने उसे तर्जुमा किया ...
सपनो की भाषा तो सपने देखने के बाद ही पता चल पायेगा. आज कोशिश करूंगा.
अंग्रेजी भाषा के प्रति हमारी यह आतुरता ही हिंदी और उर्दू, दोनों भाषाओं के स्वभाविक विकास और फैलाव के रास्ते की रुकावट है......जी में भी एसा ही मानती हूँ
कोई भी दूसरी ज़बान मातृभाषा की जगह नहीं ले सकती...आपके ब्लॉग पर आकर अच्छा लगा...
यह लड़ाई भाशा को लेकर कहाँ है? जो लड़ते हैं वे जानते हैं कि वे क्यों लड़ रहे है ।
Post a Comment