शोला था जल बुझा हूं
मैं कब का जा चुका हूं सदाएं मुझे न दोमेहदी हसन को हम किस तरह याद करेंगे ये सोचना मुश्किल नहीं है क्योंकि
उन्हें सुनते रहिए तो भूलने की हिमाकत हो ही नहीं पाएगी। मुश्किल तो ये
सोच पाना है कि उन्हें भुलाया कैसे जाएगा। कोई रंग, कोई फूल, कोई मौसम,
कोई आग और कोई अहसास अछूता नहीं रहा उनकी आवाज से। कोई एक गीत, नज्म,
या गज़ल उठा लीजिए वो समझ जाएंगे कि क्या ये सब भुला दिए जाने के लिए
गाया गया है। मेहदी हसन वाकई उन सारी हदों से परे एक एक शख्सियत का नाम
है जो जिंदगी और मौत के दौर से इसलिए गुजरती हैं क्योंकि कुदरत का निजाम
यही है। वरना अमर हो जाने की परिभाषा कुछ और हो नहीं सकती।
एक इंतजार था। शायद वे ठीक हो सकेंगे। फिर से गा सकेंगे, लौट आएगा
पुराना दौर..। बरसों बीते आिखर इंतज़ार मुख्तसर हुआ, चले गए मेहदी
हसन। अब लौटेंगे नहीं लेकिन हमेशा जिंदा रहेंगे उन सुरों में जो सहेज लिए
गए। यूं भी ऐसे कलाकारों का सिर्फ जिस्म ही तो विदा होता है जहां
से...रूह तो अमरता पाकर विचरती फिरती है मौसीकी के मौसमों में। इस अमरता
को जानते हुए ही शायद उन्होंने बहुत पहले गाया था-अब तुम तो जिंदगी की
दुआएं मुझे न दो...गोया उन्हें यकीन था कि दुनिया में आना और जाना तो महज
एक दस्तूर है। लेकिन मेहदी हसन के चाहवान इस बात को कैसे समझ पाते।
बारह बरस वे बीमार रहे और दुनिया दुआएं करती रही उनके जीने की। सेहतमंद
होने की। हर बार जब वे ज्य़ादा बीमार होते तो दुआओं का दौर और ज्यादा तेज़
हो जाता। सच है कि हम उन्हें जाने नहीं देना चाहते थे। जबकि वे कह रहे थे
शोला था जल बुझा हूं हवाएं मुझे न दो मैं कब का जा चुका हूं सदाएं मुझे
न दो । माना जा सकता है कि मेहदी हसन के मयार का कलाकार उनके अंदर से
उसी दिन चला गया होगा जिस दिन उन्हें पता चला कि वे अब गा नहीं सकेंगे।
और अपने अंदर से जिंदगी को चले जाने के बाद भी इतने लंबे अरसे तक खुद को
जिंदा कहलाते हुए देखना कितना तकलीफहेद होगा उनके लिए, इस बात का हम
सिर्फ अंदाजा लगा सकते हैं।
जिन्होंने मेहदी हसन को लाइव देखा-सुना है वे सब जानते होंगे कि उस्ताद
की आ$गा खान अस्तपाल वाली तस्वीरें कैसे विचलित कर दिया करती थीं।
अस्पताल के बिस्तर पर पड़ा वो शहंशाह जिसने पत्थर दिलों को भी एक आवाज़
से छुआ और मोम कर दिया, किस कदर मजबूर और बेबस नज़र आता था। बेहद कमजोर
और बीमार। संासें कभी खु़द आतीं-जातीं तो कभी वेंटीलेटर के बहाने कोशिश
की जाती जिंदगी को आगे ले जाने की। बहुत दिन चली ये लुकाछिपी और उम्मीद
का सफर। अब बाकी रह गया है वो खालीपन और सन्नाटा जिसमें गूंज रही है एक
आवाज़- अबके हम बिछड़े तो शायद कभी ख़्वाबों में मिलें.. जिस तरह सूखे
हुए फूल किताबों में मिलें।
गज़ल को किसने ईजाद किया, सोज़ को किसने रंज बख्शा, सुरों को किसने
साधा और रियाज़ की गहराइयां कौन कैसे उतरा..हम सब भूल जाएंगे। याद रहेगी
तो वो आवाज़ जो सीधे रूह पर वार करती है। मेहदी हसन एक दुआ थे दुनिया के
लिए। बरसों सुरों की बारिश बनकर बरसते रहे। बारिशें अब भी बरसेंगीं।
सुर फिर भी सजेंगे। जो मेहदी हसन के शैदाई हैं वे हमेशा उन्हें सुनते
रहेंगे लेकिन शहंशाहे ग़ज़ल का का तख़्त सूना रहेगा। हां ये बात और है कि
बादशाहत फिर भी कायम रहेगी।
उन्हें सुनते ही सुनने का शऊर आ जाता है..
नब्बे के शुरुआती दौर में मेहदी हसन दुनिया भर में खू्ब घूम रहे थे।
प्लेबैक से तकरीबन किनारा कर चुकने के बाद उनका पूरा ध्यान क्लासिकल और
सेमी क्लासिकल रंग में ग़ज़लों को दुनिया तक पहुंचाने पर था। फिल्मी, नॉन
फिल्मी, उर्दू और अन्य ज़बानों में हमें मिल जाता उस सबको सुनकर हमेशा
दिल में एक ख्वाहिश जागती थी कि क्या कभी ग़ज़लों के इस शहंशाह को सामने
बैठकर सुन सकेंगे। एक दिन अखबार में इश्तेहार देखा। मेहदी हसन लाइव इन
कंसर्ट चंडीगढ़ में। टिकट भी चंडीगढ़ में ही मिल रहे थे। उस वक्त हम इस
शहर से कुछ दूर रहा करते थे। खैर, मेहदी हसन का प्रोग्राम है तो दूरी और
टिकट की कीमत के कोई मायने नहीं थे। एक महीने की पूरी तनख्वाह खर्च करने
पर चार टिकट खरीदे गए।
पीजीआई के भार्गव ऑडिटोरियम में हो रहे इस प्रोग्राम में वक्त पर पहुंचने
के लिए एक रिटर्न टैक्सी का इंतजाम करके हम परवानू से चंडीगढ़ तक पहुंचे।
हमारे साथ जिन लोगों को प्रोग्राम के लिए आना था उनमें से एक किसी वजह से
पहुंच नहीं सके। यानी हमारे पास एक टिकट फालतू था जब लोग मारे-मारे फिर
रहे थे टिकट के लिए। हम किस कदर फराख दिल थे उस वक्त कि ड्राइवर को ही
कहा-आओ चलो तुम भी सुनो मेहदी हसन को। उसने हैरत से हमारी तरफ देखा कि
शायद ये मज़ाक हो रहा है। हमने फिर कहा, अरे भई सचमुच चलने को कह रहे
हैं। वो उछलकर साथ हो लिया। यूं भी वो रास्तेभर टैक्सी में मेहदी हसन की
कैसेट सुनवाता लाया था और इस जुगाड़ में था कि कहीं से बैठकर उनकी आवाज
ही सुन लेगा।
भार्गव ऑडिटोरियम में अंदर घुसते वक्त हमें यकीन था कि हमारी सीट तो
पक्की है इसलिए परेशानी का तो सवाल ही नहीं। लेकिन अंदर जाकर पता चला कि
वहां जो जहां बैठ सकता था बैठ गया है। क्योंकि प्रोग्राम तकरीबन शुरू हो
चुका था इसलिए हमें भी जहां जगह मिली बैठ गए।
हॉल में लोग कितनी-कितनी दूर से आए थे ये अंदर जाकर पता चला। फीरोजपुर के
आठ नौजवान एक सुर में फरमाइश करते और उस्ताद को माननी पड़ती। डलहौजी से
आए एक बिजनेसमेैन बार-बार अपनी आंखों पर दूरबीन लगाकर मेहदी हसन को
करीब लाकर देखते रहे। शहर के सबसे रसूखदार लोग उस रात सीढिय़ों पर ज़मीन
में फर्श पर बैठे देखे गए। रंजिश ही सही...गुलों में रंग भरे और मुहब्बत
करने वाले कम न होंगे..ये ऐसी ग़ज़लें थीं जो एक से ज्यादा बार गानी पड़ी
मेहदी हसन को। प्रोग्राम कितनी देर चला याद नहीं। बस याद इतना है कि वहां
जाने से पहले मेहदी हसन को जिस तरह सुना था लाइव सुनने के बाद वो समझ बदल
गई। हां, ऐसा ही लगता है कि उन्हें सामने बैठकर सुनते ही सुनने का शऊर आ
जाता है।
उन्हें आखिरी बार सुनना
सन 2000 मई की गरम रात। चंडीगढ़ क्लब में मेहदी हसन की लाइव परफॉर्मेंस
है और लोग वक्त से पहले वहां जुटने लगते हैं। ये मुहब्बत है उनके लिए जो
लोगों को अमृतसर से लेकर शिमला तक से बुला लाई है। यहां सिर्फ मेंबर्स की
एंट्री हो सकती है लेकिन लोग इस एक पास के इंतजाम में कोई भी रकम खर्च
करने को तैयार हैं। तकरीबन आठ बजे मेहदी हसन को बैसाखियों के सहारे स्टेज
तक पहुंचाया जाता है। उनका परिवार साथ है मदद के लिए। क्लब के लॉन में हो
रहे इस प्रोग्राम की शुरुआत होने से पहले जो शोर था वो पहले सुर के साथ
खामोश हो जाता है। कम से कम दस $गज़लें पूरी होने के बाद वे कुछ देर
रुकते हैं और देखते हैं आसमान की तरफ। आसार बारिश के थे और तेज़ हवाओं के
साथ अंदेशा तूफान का भी। मौमस खऱाब होने लगता है। बावजूद इसके न लोग वहां
से जाने को तैयार हैं और न ही उस्ताद प्रोग्राम अधूरा छोडऩे को राजी।
बारिश शुरू हो जाती है लेकिन लोग अब भी जमे हैं अपनी जगह। आखिर लाइट्स
बंद हो जाती हैं और माइक बंद हो जाते हैं। मेहदी हसन जा रहे हैं
बैसाखियों के सहारे स्टेज से उतरते हुए। ये उन्हें हमारा आ$िखरी बार
देखना था।
published in Dainik Bhaskar on 14th june 2012.
10 comments:
आपने उन्हें लाइव देखा / सुना पर हमको ये मौका कभी मिला ही नहीं ! जेहनों में / सुरों में वो हमेशा मौजूद रहेंगे ! उनके लिए दुआयें !
मेहदी साहब हर हाल में कामयाब हैं कि उनींदरा आँखों में कोई बात आई.
मेहदी हसन एक ऐसे कलाकार थे जिनकी आवाज रूहानी थी. कहते हैं न रूह दिखाई नहीं देती लेकिन उसका एकसास होता है नज़दीक होने का. शायद अब हम जिंदगीभर उस नजदीकी का एहसास करेंगे.
मेहदी हसन एक ऐसे कलाकार थे जिनकी आवाज रूहानी थी. कहते हैं न रूह दिखाई नहीं देती लेकिन उसका एकसास होता है नज़दीक होने का. शायद अब हम जिंदगीभर उस नजदीकी का एहसास करेंगे.
किसी कलाकार के महान होने के लिए रियाज, घराना, विरासत, उस्ताद के बड़े-बड़े नाम से भी बड़ी बात होती है उसकी विनम्रता और इंसानी पहलू।..इसमें कोई शक नहीं कि ग़ज़ल मेहदी हसन के पहले भी थी और बाद में भी रहेगी, लेकिन उसे बरतने का जो सलीका इस फनकार ने दिया, वह उसी के साथ विदा हो गया है।
किसी कलाकार के महान होने के लिए रियाज, घराना, विरासत, उस्ताद के बड़े-बड़े नाम से भी बड़ी बात होती है उसकी विनम्रता और इंसानी पहलू।..इसमें कोई शक नहीं कि ग़ज़ल मेहदी हसन के पहले भी थी और बाद में भी रहेगी, लेकिन उसे बरतने का जो सलीका इस फनकार ने दिया, वह उसी के साथ विदा हो गया है।
किसी कलाकार के महान होने के लिए रियाज, घराना, विरासत, उस्ताद के बड़े-बड़े नाम से भी बड़ी बात होती है उसकी विनम्रता और इंसानी पहलू।..इसमें कोई शक नहीं कि ग़ज़ल मेहदी हसन के पहले भी थी और बाद में भी रहेगी, लेकिन उसे बरतने का जो सलीका इस फनकार ने दिया, वह उसी के साथ विदा हो गया है।
किसी कलाकार के महान होने के लिए रियाज, घराना, विरासत, उस्ताद के बड़े-बड़े नाम से भी बड़ी बात होती है उसकी विनम्रता और इंसानी पहलू।..इसमें कोई शक नहीं कि ग़ज़ल मेहदी हसन के पहले भी थी और बाद में भी रहेगी, लेकिन उसे बरतने का जो सलीका इस फनकार ने दिया, वह उसी के साथ विदा हो गया है।
अली जी की तरह की एक टीस मेरे मन में भी है...कुछ दिन पहले चर्चा हुई थी कि मेहदी साहब इलाज के लिए भारत आने वाले हैं..तब से इंतजार था कि उनसे मुलाकात की जाएगी...लेकिन मौला ने ये मौका ही नहीं दिया...गजलों को शौक जैसे मेहदी साहब को सुने बिना अधूरा सा रह गया
वाह आप भी इक फैन निकली उनकी ...
एक भावपूर्ण श्रद्धांजलि है यह !
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