(लिवइन रिलेशनशिप पर इमरोज़)
गुलज़ार की बात से शुरू करूं तो यह कहना क्या ग़लत है कि सिर्फ़ अहसास है ये रूह से महसूस करो...। यह भी कहा जा सकता हे कि सिर्फ़ महसूस करने से तो पेट नहीं भर जाता, लेकिन मैं तो अपना उदाहरण देकर ही बता सकता हूं कि अहसास सबसे बड़ी चीज़ है और अगर आपमें ईमानदारी और निष्ठा है तो फिर उस आदर्श जीवन की कल्पना आराम से की जा सकती है जिसमें किसी क़ानून की ज़रूरत हो ही नहीं। सारी बात अपने ज़मीर को जगाए रखने की है जिसमें मेरे ख़याल से क़ानून तो कोई मदद कर नहीं सकता।
ये कहना है इमरोज़ का। लिव इन पर चल रही चर्चा के तहत उनसे लंबी बातचीत हुई अखबार के लिए। थोड़ी सी फेर बदल के साथ यहां पेश है। लेख लंबा है, थोड़े धैर्य की ज़रूरत तो होगी ही-
हमारे दोस्त बताते हैं कि कुछ मुल्कों में ऐसा कानून है कि दो लोग दो साल या इससे ज़्यादा वक़्त तक एक साथ रह रहे हैं तो उनके बीच मियां-बीवी का रिश्ता मान लिया जाता है। अब मुंबई में इसके लिए क़ानून की धारा में संशोधन की बात चल रही है तो मैं एक ही बात सोच रहा 9हूं कि क्या रिश्तों को जोड़ने और तोड़ने के लिए किसी क़ानून की ज़रूरत होनी चाहिए....क्या इंसान के अंदर की ईमानदारी और कमिटमेंट निबाह लेने के लिए काफ़ी नहीं हैं...? लिव-इन हो या पक्के मंत्र पढ़कर बनाया गया साथ रहने का इंतज़ाम, दोनों में ही ’ज़्यादा ज़रूरी तो ईमानदारी ही है। अगर ईमानदारी और जिम्मेदारी व्यक्ति में है ही नहीं तो उसे पैदा करने के लिए किस धारा में संशोधन किया जा सकेगा...? ज़मीर को जगाने के लिए कौन का क़ानून बनाया जाएगा...।
मुझे लिव इन में एक अच्छी बात तो यही दिखती है कि कोई एक दूसरे का मालिक नहीं होता। एक साथ रहने का फै़सला इसलिए नहीं लिया गया होता कि वे किसी बंधन में हैं। इसके उलट विधिवत शादी में पहले दिन से पुरुष, स्त्री का स्वामी बन गया होता है। हैरान कर देने वाली बात यह भी है कि आज तक इस बात पर किसी ने एतराज़ भी नहीं जताया। किसी औरत ने पलटकर यह नहीं कहा कि यह शब्द हटाओ। मैं किसी की मिल्कियत नहीं हूं। मेरा कोई स्वामी नहीं है, हां साथी हो सकता है।
यह शादी है क्या....? तो दिखता है कि यह पूरी तरह एक क़ानून और व्यवस्था है, जिसके तहत दो अजनबियों को एकसाथ रहने की इजाज़त मिल जाती है। उनसे उम्मीद की जाती है शादी की पहली ही रात एक ऐसा संबंध बना लेने की जो एक और अजनबी को पैदा करके उनकी जिंदगी में अजनबियत का जंगल खड़ा कर दे। ऐसा ही होता भी है। तो इनके बीच में रिश्ता नहीं कानून रहता है। व्यवस्था रहती है और उस व्यवस्था को अक्सर निभाया ही जाता है, जिया नहीं जाता। इस बात से इत्तेफ़ाक़ न रखने वाले लोग काफ़ी हो सकते हैं लेकिन ध्यान से देखें तो सच यही दिखेगा। एक औरत और मर्द के बीच पहले रिश्ता हो और बाद में साथ रहने की व्यवस्था....क्या ऐसा होता है हमारे समाज में। रिश्ता जोड़ने के नाम पर ज़्यादा से ज़्यादा हम एक दूसरे को देखने जाते हैं शादी से पहले। परिवारों के बीच परिचय होता है, एक दूसरे की संपत्ति की पहचान करते हैं और इस बात तो मापते हैं कि इस तरह जुड़ने में कितने फ़ायदे और नुकसान हैं । शादी हो जाती है। बहुत हुआ तो इस बीच लड़के-लड़की को मिलने की इजाज़त मिल जाती है, जहां वे पूरी तरह से नकली होकर एक दूसरे को इम्प्रेस करने की कोशिश करते रहते हैं। इसका नतीजा क्या होता है....एक झूठ को आप सच समझने की भूल करते हैं और बाद में जब सच सामने आता है तो सब सपने टूटते लगते हैं। जब ऐसा ज़्यादातर मामलों में हो ही रहा है तो क्या अर्थ है उस व्यवस्था का जिसे शादी कहते हैं।
जिस का़नून की हम बात कर रहे हैं अगर वह बनता भी है तो उससे इतनी मदद होगी कि पुरुष, स्त्री को छोड़कर भागने से पहले एक बार सोचेगा ज़रूर, और अगर चला भी गया तो कम से कम पीछे छूट गई औरत उस सामाजिक प्रताड़ना से बच जाएगी जिससे वह अब गुज़रती है। लेकिन इसके बावजूद सवाल वहीं है कि जो आदमी किसी को छोड़कर भागता है क्या वह रिश्तों में ईमानदार था....अगर नहीं तो ऐसे आदमी की पत्नी कहलाने में किसे गौरव महसूस करना है। हां इसके आर्थिक पहलू ज़रूर मायने रखते हैं।
इस संदर्भ में एक बात और कही जा सकती है कि गै़र जि़म्मेदार और बेईमान आदमी चाहे लिव इन रिलेशनशिप में हो या शादी की व्यवस्था में...उसका कुछ नहीं किया जा सकता। सामर्थ्य पुरुष को अराजक बनाती है और वे चाहे छुपकर इस तरह के संबंध बनाएं या खुलकर उन्हें बहुत ज़्यादा फ़र्क़ नहीं पड़ता। मुंबई की ही बात लें तो दिखता नहीं है क्या कि किस तरह सक्षम लोग एक से ज़्यादा संबंध जीवन भर आराम से चलाते रहते हैं। उन्हें कभी न तो प्रताडि़त किया जाता है और न ही उन्हें किसी क़ानून की ज़रूरत होती है। क्योंकि ये सामर्थ्यवान हैं तो अपनी जिंदगी में आई औरत के लिए आर्थिक व्यवस्था कर देना इनके लिए मुश्किल नहीं होता।
यानी इस क़ानून की ज़रूरत मध्यम वर्ग के लिए ही हुई न। यही मध्यम वर्ग तो शादी को सात जनम का बंधन मानकर चलता है और अब लिव इन के नए खा़के में फि़ट होकर जिंदगी के अर्थ ढूंढना चाहता है। लेकिन अहम सवाल अब भी बाक़ी है अगर का़नून लिव इन को पति-पत्नी के दर्जे की स्वीकृति दे भी दे तो क्या इससे लोगों के अंदर ईमानदारी और जि़म्मेदारी पैदा हो जाएगी...? याद रख लेने की बात है कि एक ऐसी व्यवस्था का़नून ज़रूर दे सकता है जो साथ रहने को वैध कर दे लेकिन ऐसे जज़्बात तो अपने अंदर ही पैदा करने होंगे जो इस साथ को रिश्ते का नाम दे सकें। मैं तो यह भी कहता हूं कि ईमानदार सिर्फ़ साथ रहने में नहीं एक दूसरे का साथ छोड़ने में भी होनी चाहिए। अगर आप रिश्तों को निबाह पाने में असमर्थ हैं तो बेईमानी करने से बेहतर है कि साफ़ कह दिया जाए। लेकिन देखने में यही आता है कि लोग बरसों बरस उन रिश्तों को ओढ़ते-बिछाते रहते हैं जो दरअसल रिश्ते रह ही नहीं गए होते।
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23 comments:
baat sahi hai....sirf ahsaas hai ye ruh se mahsoos karo
ईमानदारी तो हर रिश्ते में जरुरी है ...इमरोज़ ने जिस तरह से ख़ुद को अमृता के संग जोड़ा वह कबीले तारीफ है ..प्यार है ही सिर्फ़ एहसास करने का नाम ..और जब तक यह एहसास सच्चे दिल से जुड़े हैं ..तब तक उनका नाम क्या है वह अधिक महत्व नही रखता .
शायदा जी बहुत ही अच्छा विषय चुना हे आपने और लिखने में तो जैसे माशा अल्लाह अल्लाह मेरी जुबान को शब्द बख्शे वाकई अच्छा लिखा हे और साथ में सवाल क्या कहने अच्छा लगा
bahut sundar likha hai
bahut sunder
लोग बरसों बरस उन रिश्तों को ओढ़ते-बिछाते रहते हैं जो दरअसल रिश्ते रह ही नहीं गए होते।
excellent expression and very true
समझोते की चारपाई तुमने बिछाई वो सोई
तुम भी अधूरे उठे वो भी अधूरी उठी
इमरोज जैसे एक आध लोग कभीकभी भगवान् की गलती से मेनुफेक्चर हो जाते है...थोडी बहुत इमानदारी जो हम बचपन में किताबो में ढूंढ कर पढ़ते है ...या संजो कर रखते है...असल जिंदगी में वक़्त के साथ अपना मोडिफाई रूप ले लेती है..इमरोज ईमानदार इंसान है इसलिए ऐसे विचार रखते है.....पर हमारे समाज को एक स्वस्थ वातावरण देने के लिए विवाह जैसे रिश्ते का होना जरुरी है....जिम्मेदारियों से भागने का दूसरा नाम "लिव इन रिलेशन शिप" है ...वैसे भी इस कानून का मुख्या उद्देश्य स्त्री के अधिकारों की रक्षा करना है....ना की समाज में क्रान्ति लाना
रिश्तों मैं ईमानदारी जिन्दगी का सच है लेकिन साथ जिए हुए के लिए तो आत्मा की ईमानदारी ही जरूरी है.
रिश्तों मैं ईमानदारी जिन्दगी का सच है लेकिन साथ जिए हुए के लिए तो आत्मा की ईमानदारी ही जरूरी है.
मुझसे पहली सी मोहब्बत मेरी महबूब ना मांग
मैंने समझा था कि तू है तो दरख़्शा है हयात
तेरा ग़म है तो ग़मे-दहरका झ़गडा क्या है
तेरी सूरत से है आलम में बहारों को सबात
तेरी आँखों के सिवा दुनिया में रक्खा क्या है
तू जो मिल जाये तो तकदीर निगूं हो जाए
यूं न था, मैंने फकत चाहा था यूं हो जाए
और भी दुख हैं ज़माने में मोहब्बत के सिवा
राहतें और भी हैं वस्ल की राहत के सिवा
अनगिनत सदियों के तारीक बहीमाना तिलिस्म
रेशमों- अतलसो- कमख्वाब में बुनवाये हुए
जा-ब-जा बिकते हुए कूचा-ओ-बाज़ार में जिस्म
खाक में लिथडे हुए, ख़ून में नहलाए हुए
जिस्म निकले हुए अमराज़ के तन्नूरों से
पीप बहती हुई गलते हुए नासूरों से
लौट जाती है उधर को भी नज़र क्या कीजे
अब भी दिलकश है तेरा हुस्न मगर क्या कीजे
और भी दुख हैं ज़माने में मोहब्बत के सिवा
राहतें और भी हैं वस्ल की राहत के सिवा
मुझसे पहली सी मोहब्बत मेरे महबूब ना मांग
-फैज़
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मुहब्बत में नही है फर्क जीने और मरने का,
उसी को देख कर जीते हैं जिस काफिर पे दम निकले ।
-ग़ालिब
लिव-इन का सही अर्थ ही वही है जो इमरोज बता रहे हैं। लेकिन क्या हमारा समाज उस अवस्था में है? समाज में इस अवस्था के लिए पहले क्या यह आवश्यक नहीं कि स्त्री-पुरुष के लिए आगे बढ़ने और कमाने के समान अवसर उपलब्ध हों। सही मायने में दोनों आत्मनिर्भर हों, और संतानों का दायित्व उठाने को एक दूसरे से अधिक तत्पर हों।
मुझे लगता है समाज अभी उस अवस्था के विकास तक नहीं पहुँचा। और लिव-इन अभी गर्भ में है।
सही पोस्ट !
गै़र जि़म्मेदार और बेईमान आदमी चाहे लिव इन रिलेशनशिप में हो या शादी की व्यवस्था में...उसका कुछ नहीं किया जा सकता। सामर्थ्य पुरुष को अराजक बनाती है और वे चाहे छुपकर इस तरह के संबंध बनाएं या खुलकर उन्हें बहुत ज़्यादा फ़र्क़ नहीं पड़ता। ..........
सही कहा आपने.पर आज जब सामाजिक व्यवस्था के तहत इतने दवाब की मानसिकता है तब तो ऐसी ग़लत चीजें रुक नही रहीं,जब इन्हे कानूनी मान्यता मिल जायेगी,तब क्या स्थिति होगी आपने सोचा है.
स्त्री या पुरूष, कोई भी जो चरित्रहीन हैं,उन्मुक्त जीवन की चाह रखते हैं,इतने प्रेशर के बाद भी अपनी हरकतों से बाज नही आते.जब छूट मिलेगी तो क्या क्या करेंगे?
आज यूँ ही अधिकांशतः युवाओं में परिवार बसाने से बेहतर विकल्प रूप में बगैर शादी के पति पत्नी की तरह साथ रहने की मनोवृति तेजी से फल फूल रही है.जब इसे मान्यता मिल जाए तब तो फ़िर क्या क्या हो सकता है ख़ुद सोचिये.......क्या अपने परिवार के किसी भी सदस्य को हम इस तरह के संबंधों के साथ खुशी खुशी सहज रूप में स्वीकार पाएंगे.?????????
ye baat sahi hai ki shadi mein jaanane ka mauka nahi milta par kya so called "love marriage" mein jaan lete hain sab log ek dusre ko?
Dosh shaadi ki vyavastha ka nahin hai. Hamare desh mein kya puri duniya mein gaadi chalane ke liye bhi licence ki zaroorat hoti hai par shaadi ke liye har bevakoof ko azadi hai.
Baat phir vahin ki vahin hai....ehsaas zaroori hai chahe shadi ho ya live in. Agar ehsaas nahi ho to jaanane ke liye saari umar thodi hai.
kafi lambi charcha ki zarurat hai is subject ko....! shadi ho ya liv-in-relationship. pahale ek dusare ke liye man se sneh aur responsibil;ty ki bhavana ho..! transparancy, honesty ye sab jab mile to rishto ko koi bhi naam de le rishte nibh jaate hai.
अच्छी तहरीर है...
प्यार वफा का नाजुक रिश्ता तौल रह हो सिक्कों से।
फर्क कहाँ बोलो तो कोई आशिक और व्यापारी में।।
सादर
श्यामल सुमन
09955373288
मुश्किलों से भागने की अपनी फितरत है नहीं।
कोशिशें गर दिल से हो तो जल उठेगी खुद शमां।।
www.manoramsuman.blogspot.com
लेकिन देखने में यही आता है कि लोग बरसों बरस उन रिश्तों को ओढ़ते-बिछाते रहते हैं जो दरअसल रिश्ते रह ही नहीं गए होते।
ये जिंदगी का सबसे कडवा सच है।
इस सुंदर पोस्ट के लिए बधाई।
लेकिन देखने में यही आता है कि लोग बरसों बरस उन रिश्तों को ओढ़ते-बिछाते रहते हैं जो दरअसल रिश्ते रह ही नहीं गए होते।
this is so, because ppl like me are cowards. they cannt admit that there is no more love in their relationship... also, because they are very caring... they cannt crush the other person´s heart under their feet while they take that walk out of the relationship towards their illusive freedom! i know there will strong criticism of this...
On Ranjana´s comment:इतने प्रेशर के बाद भी अपनी हरकतों से बाज नही आते.जब छूट मिलेगी तो क्या क्या करेंगे?
if pressure doesnt work, why dont you imprison him? apni shaadi pe taala laga ke use kaid karke apne saath rakha to kya rakha ranjana ji? koi aapse apni zindagi pressure mein aakar, kaid me rahkar baante to wo kaisi zindagi hai?
Living in relationships work perfectly fine in all other societies then why not in India? Today, we have hidden lives of ppl in india because we have no tolerance towards this type of relationships... one has to get married to share the other person´s life 24X7... kya mazaak hai... chaand pe rocket chodte hain lekin apna dakiyanusi attitude ham chodne ko taiyyar nahin. But Shayda, thanks a lot for writing abt this... at least it will generate a healthy debate.
not only that the living in relationships are legal and valid in the west, even the children born out of such relationships have their due rights. financial aspect for the woman is also well taken care of which is of paramount importance. as far as law is concerned, ofcourse like dowry law and other laws in India, we will end up making a mess out of it. then some hinduwaadi, muslimwaadi or some other moral policemen group who see no immorality in raping a christian woman or torching ppl alive will never let such laws see the light of the day in the name of morality... what is better is that we evolve as a society and try to accept the realities of the day...
i am sorry for my nasty comments. but just couldnt help it...
बहुत मुश्किल होता है ऐसे रिश्ते को इतनी ईमानदारी से निभाना मेरे ख्याल से इमरोज जी
जैसा न कोई पैदा हुआ है न होगा। न जाने इस लंबे सफर में उन्हें कितनी आंधियों से अपने रिश्ते को बचाना
पडा़ होगा। आज के युवाओं है इतना साहस...? मेरा तो नमन है इमरोज जी को।
विधु जी......दरअसल आदमी अगर ईमानदार हो तो किसी भी झमेले की जरुरत ही नहीं ....मगर बेईमान हो तो हर चीज़ नकारा साबित हो जाती है....और आदमी क्या है....ये मैं आपको क्या बताऊँ !!
सारी बात अपने ज़मीर को जगाए रखने की है जिसमें मेरे ख़याल से क़ानून तो कोई मदद कर नहीं सकता।
सही...सहमत हूँ.
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शुक्रिया
डॉ.चन्द्रकुमार जैन
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