Saturday, January 17, 2009

कौन छिड़कता है निरंतर नमी


ऊपर चढ़ने के लिए पहली सीढ़ी पर पांव रखते ही तेज़ महक का अहसास होता है। बाक़ी सीढि़यां तय करना याद नहीं रहता....अहसास तेज़तर होता जाता है। बिना सांकल लगा दरवाजा खोलकर बैग रखने तक महक इतनी हावी हो जाती है कि सीधे किचन में जाकर देखना ही पड़ता है ढकी हुई कढ़ाही को। आलू-मेथी की सब्‍ज़ी....अपनी पूरी महक और स्‍वाद के साथ जैसे चुनौती दे रही है किसी भूख को...लेकिन इधर तो भूख को डपट दिया गया है। पानी की बोतल उठाते हुए.. अंतडि़यों में ज़बर्दस्‍ती चुप कराकर बिठा दी गई भूख अचानक उठ खड़ी होती है...पानी से भी कहीं पेट भरता होगा...मुंहज़ोर भूख...पूरी बेशर्मी से एक बार और कढ़ाही का ढक्‍कन पलटकर देखने पर मजबूर करती है....पांव बताते हैं....बिस्‍तर तक का रास्‍ता...जैसे कुछ रटा हुआ सिर्फ़ दोहराया जा रहा हो..। बिस्‍तर तक आने के बाद....किसी पसंदीदा किताब के पन्‍नों में मुंह गड़ा लेने के बाद...फि़ज़ूल की सर्फि़ग के बाद....हर कोशिश के बाद भी मेथी-आलू की सब्‍ज़ी की महक हटती नहीं।

 एक लड़ाई शुरू हो रही  है सब्‍ज़ी और भूख के बीच....कौन हारे...सब्‍ज़ी कढ़ाही से उतरकर थाली में रखी दिखती है....लेकिन किसके लिए....इस बीच, नींद या जाग जो भी स्थिति है ...उसमें मेथी की सब्‍ज़ी हरी पत्तियों में तब्‍दील होने लगती है। बारीक, कुरकुरी, हरी निर्दोष सी पत्तियां....आवाज़ लगाकर सब्‍ज़ी बेचते ठेले पर चली आ रही हैं....पत्तियां ऑटो में सिकुड़कर बैठे बुजु़र्ग के थैले से बाहर झांक रही हैं.....पत्तियां हरी हैं....नम कैसे रह पाती हैं...कौन छिड़क रहा है उनपर निरंतर नमी....सारी मुसीबतों और परेशानियों के बीच पत्तियां इतनी ताज़ा कैसे दिख पाती हैं...कैसे बचाकर रखती हैं अपनी महक और स्‍वाद....पत्तियां चुनी जा रही हैं....बिल्‍कुल हरी और ताज़ी.. डंठल फेंकने होंगे...। मेथी की पत्तियां....किसी भूखे और सूखे चेहरे के सामने शर्मिंदा सी होती हुई.........कुछ अघाए चेहरे याद करती हैं...।


12 comments:

Udan Tashtari said...

कितने गुढ अर्थ लिए हैं हर पंक्तियां. जितनी बार पढ़ें, एक नया आयाम नजर आता है. बहुत बढ़िया.

संगीता पुरी said...

पत्तियां ऑटो में सिकुड़कर बैठे बुजु़र्ग के थैले से बाहर झांक रही हैं.....पत्तियां हरी हैं....नम कैसे रह पाती हैं...कौन छिड़क रहा है उनपर निरंतर नमी....सारी मुसीबतों और परेशानियों के बीच पत्तियां इतनी ताज़ा कैसे दिख पाती हैं...कैसे बचाकर रखती हैं अपनी महक और स्‍वाद....पत्तियां चुनी जा रही हैं....बिल्‍कुल

Vinay said...

मैं अगर पुरस्कार बाँटता तो वह ज़रूर आपको मिलता

---मेरे पृष्ठ
गुलाबी कोंपलेंचाँद, बादल और शामतकनीक दृष्टा/Tech Prevue

के सी said...

मेरी ये टिपण्णी इस रचना के लिए नहीं है क्यों किइसे मैंने पढ़ा नहीं है। मैं तो कामरेड एक सिगरेट ..... से होता हुआ आया हूँ। अब देखूंगा क्या कुछ है आपके यहाँ।

rajesh ranjan said...

kya bat hai. bahut behtar aur gahra hai aapka lekhan. bindas.

रंजू भाटिया said...

बहुत गहरा लिखती है आप ...एक एक लफ्ज़ ख़ुद में डुबो लेता है ..

Science Bloggers Association said...

अपनी बातों को नफासत के रंग में रंग कर प्रस्‍तुत करना कोई आपसे सीखे।

सुन्‍दर प्रस्‍तुति के लिए हार्दिक बधाई।

राजीव थेपड़ा ( भूतनाथ ) said...

पत्तियां ऑटो में सिकुड़कर बैठे बुजु़र्ग के थैले से बाहर झांक रही हैं.....पत्तियां हरी हैं....नम कैसे रह पाती हैं...कौन छिड़क रहा है उनपर निरंतर नमी....सारी मुसीबतों और परेशानियों के बीच पत्तियां इतनी ताज़ा कैसे दिख पाती हैं...कैसे बचाकर रखती हैं अपनी महक और स्‍वाद....पत्तियां चुनी जा रही हैं....बिल्‍कुल....................................ये भी संयोग ही है आज,कि मैंने आलू-मेथी की सब्जी आभी-अभी ही खायी है.........और ये रचना..........अब उस सब्जी का स्वाद कुछ अलग ही रंग से वापस जीभ से दिमाग की और लौट रहा है.....खायी हुई सब्जी की उलटी क्रीडा शुरू हो चुकी है.........जैसे उसका वापस कडाही में लौटना......वापस उस थैले में आ जाना.....खेत में जाकर लहलहाना.... और वापस मिटटी के भीतर लौटकर अपने भ्रूण की अवस्था से फिर से अपनी यात्रा शुरू करना..........और अब मैं यह यात्रा एक अलग ही रूप में देख रहा हूँ.........और इसकी प्रेरणा के लिए आपको बेहद धन्यवाद..........!!

राजीव थेपड़ा ( भूतनाथ ) said...

पत्तियां ऑटो में सिकुड़कर बैठे बुजु़र्ग के थैले से बाहर झांक रही हैं.....पत्तियां हरी हैं....नम कैसे रह पाती हैं...कौन छिड़क रहा है उनपर निरंतर नमी....सारी मुसीबतों और परेशानियों के बीच पत्तियां इतनी ताज़ा कैसे दिख पाती हैं...कैसे बचाकर रखती हैं अपनी महक और स्‍वाद....पत्तियां चुनी जा रही हैं....बिल्‍कुल.....................

.......................ये भी संयोग ही है आज,कि मैंने आलू-मेथी की सब्जी आभी-अभी ही खायी है.........और ये रचना..........अब उस सब्जी का स्वाद कुछ अलग ही रंग से वापस जीभ से दिमाग की और लौट रहा है.....खायी हुई सब्जी की उलटी क्रीडा शुरू हो चुकी है.........जैसे उसका वापस कडाही में लौटना......वापस उस थैले में आ जाना.....खेत में जाकर लहलहाना.... और वापस मिटटी के भीतर लौटकर अपने भ्रूण की अवस्था से फिर से अपनी यात्रा शुरू करना..........और अब मैं यह यात्रा एक अलग ही रूप में देख रहा हूँ.........और इसकी प्रेरणा के लिए आपको बेहद धन्यवाद..........!!

amlendu asthana said...

apko padta hoon to lagta hai pagdandion se hoota hua akela dur tak nikal aaya hoon. apne aap ko tatolene aur mahsusne ka kona hai apke panktiyan. apko padne ke bad mai apni puri bachainiyan sametker shant ho jata hoon. Zeevan ka gathon ko gahre kholti hain apke pangtiyan.

amlendu asthana said...

apko padta hoon to lagta hai pagdandion se hoota hua akela dur tak nikal aaya hoon. apne aap ko tatolene aur mahsusne ka kona hai apke panktiyan. apko padne ke bad mai apni puri bachainiyan sametker shant ho jata hoon. Zeevan ka gathon ko gahre kholti hain apke pangtiyan.

कंचन सिंह चौहान said...

मेथी की पत्तियां....किसी भूखे और सूखे चेहरे के सामने शर्मिंदा सी होती हुई.........कुछ अघाए चेहरे याद करती हैं...।

kyaa baat hai, kitane gaharaai....!