मुझे विश्वास होता जा रहा है कि इस श्राप का तोड़ जालंधर वाले बूढ़े के पास ही है....शाम से याद कर रही हूं लेकिन नाम याद नहीं आ रहा उसका। दो साल पहले जनवरी में ही तो मिला था पहली और शायद आखि़री बार भी...। वो अपने हर मिलने वाले को क़लम बांटा करता था। अपनी कमाई में से सिर्फ़ जीने-खाने लायक पैसा रखकर बाक़ी सारी रक़म के क़लम ख़रीद लिया करता और जो भी सामने आए उसे ही दे देता था, बरसों से ऐसा ही कर रहा था। कहता था खु़द पढ़-लिख नहीं पाया इसलिए अब दूसरों को पैन देकर सुख पाता है...कितना अनोखा दिव्य भाव था यह...कि जो खु़द को नहीं मिला उसे दूसरों को देकर ही सुख पा लो....।
उन दिनों हमेशा मेरे पास चार रंग के पैन हुआ करते थे-लाल, नीला, काला और हरा। एक ख़ास कि़स्म के क़लम इस्तेमाल करने की ऐसी धुन थी कि उस बूढ़े का दिया पैन लेकर बस यूं ही रख दिया था। कभी चलाकर नहीं देखा.....आज पुराने पर्स में वो रखा मिला ..चलाकर देखा...इंक शायद सूख चुकी थी, दो लाइन चलकर रुक गया...। लॉजिक दिया जा सकता है कि दो साल से रखे-रखे इंक सूख गई होगी इसलिए नहीं चला। लेकिन ऐसा तो कई दिन से हो रहा है, जो भी क़लम हाथ में लेती हूं कुछ देर चलता है और रुक जाता है। उस दिन जब नई किताबों पर नाम और तारीख़ लिखना चाह रही थी तो किसी से मांग लिया ..थोड़ी देर के बाद ही स्याही ख़त्म हो गई। बाद में जब डायरी पर नाम लिखना था तो भी ऐसा ही तो हुआ...तब से ऐसा हर दिन यही हो रहा है...जो भी पैन हाथ में आता है...चलना बंद कर देता है...।
कोई नहीं मानेगा इस बात को लेकिन मेज़ की दराज़ में ऐसे ग्यारह क़लम पड़े हैं जो औरों के हाथ में चल रहे थे और मुझ तक आते ही चलना बंद कर चुके हैं....जैसे कोई श्राप है जो मेरे हाथ में आते ही रोक देता है उन्हें चलने से....बहुत वाहियात सी सोच कही जा सकती है ये....लेकिन ऐसा सचमुच हो रहा है। पता नहीं क्यों ऐसा लग रहा है कि एक बार फिर वही बूढ़ा एक क़लम आकर देगा और यह श्राप टूट जाएगा... । क्या कोई बताएगा उसे कि अब मेरे पास ख़ास कि़स्म के चार रंगों वाले पैन नहीं हैं....कि अब हर उस क़लम से काम चला लेती हूं जो सामने आ जाए...कि उसके दिए पैन का निरादर नहीं किया था मैंने, बस थोड़ी सी लापरवाही थी वो...कोई कह सकेगा उसे कि मुझे एक ऐसा क़लम लाकर दे दे...जो मेरे हाथ में आकर चलना बंद न कर दे...जिसकी स्याही मेरा हाथ लगते ही सूख न जाए...।
उन दिनों हमेशा मेरे पास चार रंग के पैन हुआ करते थे-लाल, नीला, काला और हरा। एक ख़ास कि़स्म के क़लम इस्तेमाल करने की ऐसी धुन थी कि उस बूढ़े का दिया पैन लेकर बस यूं ही रख दिया था। कभी चलाकर नहीं देखा.....आज पुराने पर्स में वो रखा मिला ..चलाकर देखा...इंक शायद सूख चुकी थी, दो लाइन चलकर रुक गया...। लॉजिक दिया जा सकता है कि दो साल से रखे-रखे इंक सूख गई होगी इसलिए नहीं चला। लेकिन ऐसा तो कई दिन से हो रहा है, जो भी क़लम हाथ में लेती हूं कुछ देर चलता है और रुक जाता है। उस दिन जब नई किताबों पर नाम और तारीख़ लिखना चाह रही थी तो किसी से मांग लिया ..थोड़ी देर के बाद ही स्याही ख़त्म हो गई। बाद में जब डायरी पर नाम लिखना था तो भी ऐसा ही तो हुआ...तब से ऐसा हर दिन यही हो रहा है...जो भी पैन हाथ में आता है...चलना बंद कर देता है...।
कोई नहीं मानेगा इस बात को लेकिन मेज़ की दराज़ में ऐसे ग्यारह क़लम पड़े हैं जो औरों के हाथ में चल रहे थे और मुझ तक आते ही चलना बंद कर चुके हैं....जैसे कोई श्राप है जो मेरे हाथ में आते ही रोक देता है उन्हें चलने से....बहुत वाहियात सी सोच कही जा सकती है ये....लेकिन ऐसा सचमुच हो रहा है। पता नहीं क्यों ऐसा लग रहा है कि एक बार फिर वही बूढ़ा एक क़लम आकर देगा और यह श्राप टूट जाएगा... । क्या कोई बताएगा उसे कि अब मेरे पास ख़ास कि़स्म के चार रंगों वाले पैन नहीं हैं....कि अब हर उस क़लम से काम चला लेती हूं जो सामने आ जाए...कि उसके दिए पैन का निरादर नहीं किया था मैंने, बस थोड़ी सी लापरवाही थी वो...कोई कह सकेगा उसे कि मुझे एक ऐसा क़लम लाकर दे दे...जो मेरे हाथ में आकर चलना बंद न कर दे...जिसकी स्याही मेरा हाथ लगते ही सूख न जाए...।
12 comments:
कोई कलम के बारे में भी इतना ख़ूबसूरत लिख सकता है क्या? मुझे बहुत ख़ुशी है!
bahut rochak hai chhoti si kalam ke duara itna kuchh samjha dya bhut khoob
मैंने कह दिया है उसे .. आता ही होगा
मेरे झोले में रखी थी कलम, मैंने कहा भी ले लो, ले लो, मगर आप ले कहां रही हें? झट कहने लगती हैं लिखने के ख़्याल से हाथ दुखता है. हाथ के दुखने का ख़याल हट जाये तो सोचकर दिल दुखता है..
ढंग से एक बार तय कीजिये पहले कलम चाहये या नहीं?
kaafi din baad likha , likhtee rahey kuch jaldi jaldi kyuki hamesha ki tarah achcha haen laekh
अब तक तो आ भी गया होगा शायद ...
प्रत्यक्षा, अशोक जी...वो आया नहीं और न ही क़लम भिजवाने की बात ही की, हम यहां कोरे क़ाग़ज़ लिए बैठे हैं।
प्रमोद जी, क़लम तो चाहिए ही होंगे, देखिए आपके झोले में कोई इटेलियन क़लम पड़ा है क्या, न हो तो कोई दूसरा ही भिजवा दें।
विनय, निर्मला कपिला जी और रचना जी आपका स्नेह हौसला बढ़ाता है।
seekh-bhent ka hamesha sammaan karna chahiye.
nice post
भाव और विचार के श्रेष्ठ समन्वय से अभिव्यक्ति प्रखर हो गई है । विषय का विवेचन अच्छा किया है । भाषिक पक्ष भी बेहतर है । बहुत अच्छा लिखा है आपने ।
मैने अपने ब्लाग पर एक लेख लिखा है-आत्मविश्वास के सहारे जीतें जिंदगी की जंग-समय हो तो पढें और कमेंट भी दें-
http://www.ashokvichar.blogspot.com
भाव और विचार के श्रेष्ठ समन्वय से अभिव्यक्ति प्रखर हो गई है । विषय का विवेचन अच्छा किया है । भाषिक पक्ष भी बेहतर है । बहुत अच्छा लिखा है आपने ।
मैने अपने ब्लाग पर एक लेख लिखा है-आत्मविश्वास के सहारे जीतें जिंदगी की जंग-समय हो तो पढें और कमेंट भी दें-
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कृपया डाक साहब की राय पर अमल करें. बिनय बिनम्र की खुसी पर तो कर ही रही होंगी.
basher badr saheb ka ek sher yaad aa gaya
koi gam hai ki bhadte huve gam aate hain, shyaam ke saaye bade tej kadam aate hain.
mujh se ab kya baat likhani hai ke ab mere liye, kabhi sone kabhi chandi ke kalam aate hain. dil wo darvesh he jo aankh uthata he nahi, uske der pe so ahle karam aate hain. aankhon mein koi khubsurat sa haadisa liye, ghar ki dehjiz pe darte huve ham aate hain.
बहुत सुंदर अभिव्यक्ति
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