...और जब किसी मनुष्य के पास स्वप्न न रह जाएं, फैंटेसी न रहे और मिथक नष्ट हो जाएं तो वह घनघोर व्यवहारिक, यर्थाथवादी आदमी के रूप में बचा रह जाता है। स्म्रतिहीन, आध्यात्मवंचित, स्वप्नशून्य, आदर्श विरत, सपाट, चौकोर, दुनियादार, तिकड़मी, घटिया आदमी.....।
....ज्ञान अब सिर्फ़ उसकी स्म्रतियों में संग्रहीत डाटा या तथ्य भर रह गया था। पहले की तरह भावुकता, आस्था और विमूढ़ सम्मोहन अब कहीं नहीं था। वह वस्तुपरक, व्यवहारिक और निपट वास्तविकतावादी हो गया था। (उदय प्रकाश की वॉरेन हेस्टिंग्स का सांड से ली गई पंक्तियां)
दुनियादार हो जाना बुरा नहीं है लेकिन उसे निभाने के लिए तिकड़मी हो जाना अक्षम्य है , ख़ासतौर पर इंसान के संदर्भ में, जिसे बंजर ज़मीन पर सपने बीजने से लेकर, उनकी लहलहाती खेती के उल्लसित होने तक नाचते देखा हो। मैंने उसके सपनों की हरियाली बेल को सूखते और उसे स्वप्नशून्य होते भी देखा। फैंटेसी से लबालब एक जीवन को सपाट होते देखा। घोर व्यवहारिकता के जंगल में एक जिंदादिल इंसान को बेलौस दौड़ते देखा सुविधाओं और दुनियादारी के पीछे। उसके जीवन का सपाट हो जाना, दुनियादार और तिकड़मी हो जाना कितना दुखद है। एक मनुष्य का अमानुष हो जाना उससे भी ज़्यादा त्रासद लगता है। उसने बहुत जल्दी स्वीकार किया सपनों के मर जाने को, लेकिन मैं याद दिलाना चाहती हूं कि सपने कभी मरते नहीं। उनकी सूखी हुई बेल को उखाड़कर जला डालो तो भी हरे हो उठते हैं, राख बनकर हवा में घुल जाएं तो भी जिंदा रहते हैं। ये पोस्ट सपनों और उम्मीदों के नाम ही है। साथ ही हार मान बैठे उस इंसान के नाम भी जिसके पास सलामत पांव, हाथ और दिमाग़ था जबकि उसने कहा कि मैं थक कर गिर चुका हूं हमेशा के लिए।
हां, मुझे बिल्कुल मंजूर नहीं है जिंदगी को इस तरह सपाट कर लेना। ऊबड़-खाबड़ और पथरीली जिंदगी पर बार-बार जख़्मी होना, थककर गिर जाना मैं बेहतर समझती हूं। मैं खिलाफ़ हूं इस तरह दुनियादार हो जाने के। मुझे तकलीफ़ होगी उस बैल को देखकर जो दो वक़्त का चारा आराम से खा सकने के लिए जीवन भ्ार आंख के आसपास लगे उस पतरे को सहता रहता है जो उसे एक ही दिशा में देखने की इजाज़त देता है। मैं उस बिगड़ैल सांड के पक्ष में हूं जो इम्पीरियल बग्घी को चकनाचूर कर देता है, बिना इस बात की परवाह किए कि उसे इम्पीरियल आर्मी की टुकड़ी गोली मार देगी। बख्शा नहीं जाएगा।
मैं इंसान बने रहना चाहती हूं इसीलिए मुझे यक़ीन है सांड के जिंदा होने पर, टेपचू के पोस्टमार्टम के वक़्त आंख खोलकर देखने पर और उस उम्मीद पर जो पूरी तरह टूट चुकी हो, चूर-चूर होकर रेत हो चुकी हो लेकिन थकी आंखों के झपकने से पहले ही पूरी की पूरी आपके सामने आकर जिंदा हो जाए। मैं कायल हूं ऐसी उम्मीद की जो कभी मरती नहीं, किसी भी स्थिति में हार नहीं मानती और परिस्थितियों को पूरा मौका देती है अपना दम-ख़म आज़मा लेने का। उम्मीद को कोई कैंसर कहे, जिन्न कहे, हारी हुई बाज़ी कहे या फिर रेत में मुंह छिपा लेने की आदत ...मैं नहीं मान सकती कि उम्मीद की मौत कभी होती है। वो तो जि़दा रहती है बेड़ा ग़र्क हो जाए तो भी।
नोट- ठीक एक साल पहले आज के दिन खू़ब सर्दी थी और अवसाद भी। मैं दफ़तर से पंजाब यूनिवर्सिटी तक पैदल ही चली गई थी। एक वादा पूरा करना था जो कुछ माह पहले हमने इंडियन थिएटर डिपार्टमेंट के प्रोफेसर जी कुमारवर्मा से किया था, जब वे उदयप्रकाश की कहानी वॉरेन हेस्टिंग्स का सांड पर नाटक करने के शुरुआती प्रोसेस में थे। बाद में हमने इस बात को भुला दिया लेकिन प्रोफेसर को याद रहा। एक दिन उनका फ़ोन आया कि नाटक देखने ज़रूर आएं। नाटक तभी देखा था और टेपचू कहानी बाद में पढ़ी। मैंने इन दोनों क्रतियों में जिस चीज़ को बहुत गहरे तक महसूस किया वह है ऐसी उम्मीद का हर हाल में जिंदा रह जाना जो इंसान के मर जाने पर भी मरती नहीं। फरवरी की उस शाम मैं मर सकने लायक उदास थी लेकिन नाटक देखने के बाद मुझे अपनी उम्मीद का पता मिल गया था।
8 comments:
फरवरी की उदास शाम को भुलाने का jariya मिला to उदासी भी जाती रही ......कभी कभी मन की दशा अवसाद me गिर जाती है....ये दौर हर किसी की जिंदगी दूर आ जाता जाता है ....फ़िर उसे दूर करने का सबब भी मिल जाता है .... जिंदगी चलते रहने का नाम है ...आपको ये samjhane की jrurat मैं नहीं samajhti ...
दुनियादार हो जाना बुरा नहीं है लेकिन उसे निभाने के लिए तिकड़मी हो जाना अक्षम्य है
सुन्दर बात!
उम्मीद की मौत कभी होती है। वो तो जि़दा रहती है बेड़ा ग़र्क हो जाए तो भी। यही एक चीज तो ज़िन्दगी के सही मायने बताती है ..आपके साथ साथ यह पोस्ट बहुत कुछ मेरे दिल को भी समझा गई शुक्रिया
फरवरी की उस शाम मैं मर सकने लायक उदास थी ... ऐसी शामें किसी पर न बी्तें कभी भी. दुआ!
आपका ब्लाग आज पढ़ा। मन भीतर से सार्थकता और शब्दों के प्रति विश्वास से भर गया। आपकी संवेदनाओं के प्रति सहानुभूति भी हुई। लेकिन हिंदी के साहित्यिक-समाज में क्या कभी कोई सोचता भी है कि'टेपचू', 'वारेन हेस्टिंग्स.....','मोहन दास'या 'और अंत में प्रार्थना' जैसी रचनाएं, जो जीवन के प्रति आशा की उम्मीद बनाए-जगाए रखती हैं, किसी हारे-कुचले मनुष्य की जिजीविषा को ज़िंदा बनाए रखने का अनगढ़ सा ही सही, पर एक प्रयत्न करती हैं, वे लिखी भी उस लेखक द्वारा जाती हैं, जो रचना के उन पलों में, खुद 'मर जाने लायक उदास' होता है। ....और यह भी कि जीवन और भविष्य के प्रति यह 'उम्मीद' खुद उसके पास भी उस वक्त नहीं होती? वह तो इन्हें अपने लिए हासिल करने के लिए ही ऐसी रचनाएं लिखता है, जो दूसरों को भी वहां से हासिल हो सकती हैं। हम सब और हमारे समय के सभी उदास, पराजित, अन्यायों के शिकार, समय और यथार्थ में अपनी जगह और सांसें तलाशते लोग शायद उस 'फीनिक्स' की तरह हैं, जो अपने विनाश की राख से खुद बार-बार उठता है और अपने पंख फैला कर फिर एक बार उड़ता है...! उस आकाश की अनदेखी दिशाओं और क्षितिजों की ओर जहां बहुत दूर किसी 'उम्मीद' के होने की उम्मीद होती है।
आपका बहुत-बहुत आभार !
आपने बहुत सही लिखा है कि उम्मीद कभी नहीं मरती। उम्मीद की एक बेहद छोटी-सी किरण ही तो हमें मायूसी के गहन अंधेरों में भी जिंदा बनाये रखती है।
मैं इसे बार-बार पढती हूं!
हम सब अपना जीवन तलाश रहे हैं...!उम्मीद तो है !
मर सकने लायक उदास शामें फिर-फिर आएं... वरना उम्मीद का कोई मतलब नहीं...
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