ख़्वाब का दर शायद खुला रह गया था...पांव एक बार बाहर निकला और वापसी की राह धुंधला गई। बाहर की दुनिया में सात रंग थे..दिखते तभी थे जब उनपर नज़र रखो, पाबंदी इतनी कि आंखें झपक न जाएं। .उसने दोनों हाथों में भरकर उन्हें बंद कर लिया...इतना कसकर कि उड़ न सकें। पर हथेलियों को रंग छुपा सकने का हुनर कहां याद था और सीख सकने की सारी गुंजाइशों के रास्ते सपनो से होकर ही तो गुज़रते थे। आंख झपकी और पहला रंग हाथ से फिसलकर हवा में घुल गया। वो रंग के पीछे दौड़ती है...भला इस रंग का नाम क्या है...कोई बता सकेगा..? कोई बताता नहीं और एक अनचीन्ही धुन उसे खींचती है ... पांव पूरा करते हैं एक चक्कर...कोई गिन रहा है क्या..? एक और रंग फिर हाथ से छूटता है....हवा में बिखर जाने के बाद ..उसे पलकों से बुहार कर वापस हथेलियों तक लाने की सीख तो किसी ने दी ही नहीं...। रंगों की चटख़ आंखों को खुलने भी कहां देती है...।
सारंगी बजाती हुई जो छाया अभी-अभी पीछे छूटी है उस ने तो हांक लगाकर कहा था ...पांव के नीचे जब भी कांटा आए. या हाथ से छूटकर रंग उड़े तो एक बार..मुझे पुकार लेना..लेकिन पुकारने पर तो वो चुप ही रह गया...शायद अपनी धुन रहा होगा, सुन न पाया हो अपनी ही बात की प्रतिगूंज को। वो पीछे कैसे छूट गया... खु़द ही अपनी रफ़तार को धीमा क्यों कर लिया....सोच में डूबने से पहले ही रंग फिर हाथ से फिसल जाता है। बाहर की दुनिया में रंगों के बिना जीने की अनुमति है क्या...? बीन बजाती छाया से वो पूछना चाहती है...जवाब यहां भी नहीं मिलता... और आगे जाना होगा क्या..शायद वहीं तक जहां से वो आवाज आ रही है, एक रंग अब भी कसके पकड़ रखा है उसने ...लेकिन कितनी देर ।
कैसे छूटा उसके हाथ ये आखि़री रंग....नीलाई दूर तक फैली है...कुछ नज़र नहीं आता साफ़-साफ़.। कैसी .थकान है कि झुककर उन कांटों को भी नहीं निकाल पाती जिनसे पांव बिंधे हैं...। रेत पर कुछ निशान हैं...गिरे हुए रंगों के और लहूलुहान पांव के भी....रंग लगी ख़ाली हथेलियों से वो उस द्वारे को बार-बार टोह लेना चाहती है जो कहीं खो गया है....वही दर तो उसे ले जाएगा सपनों की उस दुनिया में वापस, वहां रंगहीन होने पर जी सकने की इजाज़त अब भी बाक़ी है ..।
.............................................अंदर ख़्वाब विछोड़ा होया, ख़बर न पैंदी तेरी।
सुज्जी बन विच लुट़टी साइयां, चोर शंग ने घेरी।
बुल्लेशाह कहते हैं- हम ख़्वाब में एक दूजे से बिछुड़ गए हैं, अब पता नहीं चलता कि तुम कहां हो। मेरे साईं मैं वन में अकेली लुट रही हूं, चोर-डाकुओं ने मुझे घेर रखा है।
नोट-तस्वीर में नीली रोशनी का यह जादू कै़द किया हमारे सहयोगी सुनील कैंथवास ने।
10 comments:
अंदर ख़्वाब विछोड़ा होया, ख़बर न पैंदी तेरी।
सुज्जी बन विच लुट़टी साइयां, चोर शंग ने घेरी।
बहुत सुन्दर॥। बधाई॥।
मैं नहीं जानती थी की क्या और किसे कहूँ
कि काया के अंदर .......एक आसमान होता है
और उसकी मोहबत का तकाजा
वह कायनाती आसमान का दीदार
पर बादलों की भीड़ का यह जो फ़िक्र था
यह फ़िक्र उसका बही ...मेरा था
सुनील जी को इस अद्भुत चित्र हेतु बधाई और इस चित्र पर लिखा यह लेख भी अपने आप में कुछ अलग सा लगा.
'रेत पर कुछ निशान हैं...गिरे हुए रंगों के और लहूलुहान पांव के भी...रंग लगी ख़ाली हथेलियों से वो उस द्वारे को बार-बार टोह लेना चाहती है जो कहीं खो गया है'
--मन के भीतर तक असर कर जाती हैं ये पंक्तियाँ
ख़्वाब का दर शायद खुला रह गया था...पांव एक बार बाहर निकला और वापसी की राह धुंधला गई ...
बहुत उम्दा शुरुआत की आपने. .चीज़ों ने रंगों ने अपने मानी खोलने के क्रम में एक ग़ज़ब की निरन्तरताभरी लय ...
बहुत सुन्दर. और उदास कर देने वाला गद्य. हमेशा की तरह.
नीले नीले शब् के गुम्बद में
तानपुरा मिला रहा है कोई
एक शफ्फाफ कांच का दरिया
जब खनक जाता है किनारों से
देर तक गूंजता है किनारों में
पलके झपका के देखती है शमाए
ओर फानूस गुनगुनाते है
मैंने मुन्द्रो की तरह कानो में
तेरी आवाज पहन रखी है
-------गुलज़ार
कैसी .थकान है कि झुककर उन कांटों को भी नहीं निकाल पाती जिनसे पांव बिंधे हैं...।ji khoob
पांव पूरा करते हैं एक चक्कर...कोई गिन रहा है क्या..? एक और रंग फिर हाथ से छूटता है...
सच मानो मैं तो खो ही गया इस रचना में कहीं ....बेहद प्रभावशाली
मेरी कलम - मेरी अभिव्यक्ति
रंगहीन होने पर भी जहां जीने की इजाज़त हो.इन शब्दों ने कितना कुछ समेटा है!
फिसल चुके रंगों से
खाली हुई हथेली को
दिल तक पहुँचाकर
रंगहीन दुनिया की ताक़त को
समझने का मौका दे दिया आपने.
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शुक्रिया इस सुन्दर पोस्ट के लिए.
डॉ.चन्द्रकुमार जैन
beautiful, melodious...
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