Sunday, September 27, 2009

हमारे सपनों की भाषा क्‍या है....



 दफ़तर की लाइब्रेरी में कुछ और खोजते हुए हाथ लगी थी एक किताब अतीत का चेहरा, जाबिर हुसेन की डायरी। राजकमल ने इसे छापा है। पढ़ते हुए एक जगह मैं बार-बार अटकी हूं, कई बार पढ़ा इस प्रसंग को। मुझे लगा यहां बांट लेना चाहिए इसे, पढ़कर देखिए आप भी



मैंने हिंदी कैसे सीखी


मेरे हिंदी सीखने की दास्‍तान भी अजीब है।
मुझे नहीं मालूम बाबू त्रप्तिनारायाण सिंह इस समय कहां हैं पहले वन विभाग की सेवा में थे। मेरे पिता और वो एकसाथ चाईबासा में कार्यरत थेत्र अलग-अलग विभागों में रहने के बावजूद सरकार ने उन्‍हेंएक ही मकान के दो हिस्‍सों में जगह दे रखी थी। बीच में सिर्फ़ ढाई फीट का चौडा  दरवाज़ा था।
यह दरवाज़ा कुछ दिनों बंद रहा,फिर खुल गया। खुला तो ऐसा कि फिर कभी बंद नहीं हो पाया।
इन्‍हीं बाबू त्रप्तिनारायण सिंह की धर्मपत्‍नी को मैं आज स्‍मरण करना चाहता हूं। वो धार्मिक स्‍वभाव की महिला थीं। अपने मकान के एक कमरे को उन्‍होंने बाज़ाप्‍ता एक छोटे मंदिर का रूप दे रखा था। दिन रात, हर वक्‍त पूजा-पाठ  मे लगी रहती थीं। दो बच्‍चे थे उनके, एक बेटी और एक बेटा। बेटा बड़ी मिन्‍नतों से पैदा हुआ था। बड़ी-बड़ी जटाएं थीं उसकी और मां ने किसी तीर्थ स्‍थान जाने तक
 उसे यूं ही रखने की क़सम खाई थी।
तब मेरी उम्र तीन-चार वर्ष रही होगी।
अचानक एक दिन मकान के बग़ल वाले हिस्‍से में तांगे से बाबू त्रप्ति नारायण सिंह का परिवार उतरा। परिवार में दो बच्‍चे भी उतरे। हम अपनी बहनों समेत उस दालान की तरफ़ दौड़े जहां छोटी सी
गोपा अपने भाई के साथ खड़ी थी। कुछ क्षणों में ही  हम  दोस्‍ती के रिश्‍ते में बंध गए।
गोपा और उसके भाई को हिंदी पढ़ाने के लिए एक मास्‍टर बहाल किया गया। मकान के बाहरी दालान में एक चटाई पर हम तीनों तस्‍वीरों वाली एक रंगीन किताब से हिंदी पढ़ने लगे। हर रोज़ स्‍लेट और पेंसिल लेकर हम दालान में मास्‍टर के आने का इंतजार करते होते।
बाबू त्रप्ति नारायण सिंह हमें लगन से हिंदी पढ़ता देखकर खु़श होते थे। यह खु़शी उनके चेहरे से ज़ाहिर होती थी।
 एक दिन चाईबासा के किसी गांव में दंगों की आशंका पैदा हो गई और हमारे मकान के सामने वाले मैदान में हमारी सुरक्षा के लिए कुछ पुलिस के जवान तैनात कर दिए गए। हमें घर से
बाहर, दालान तक जाने से मनाही हो गई।
गोपा,  उसके भाई, बाबू त्रप्ति नारायण सिंह और उनकी पत्‍नी, सबका हमारी तरफ़ आना-जाना बंद हो गया। मेरी हिंदी की पढ़ाई भी रुक गई। मुझे अच्‍छी तरह याद है, मैं अपनी स्‍लेट और तस्‍वीरों वाली रंगीन किताब लिए घंटों उस दरवाज़े पर बैठा रहने लगा, जो हमारे और गोपा के मकानों को जोड़ता था।

एक दिन, उसी दरवाज़े पर मुझे बैठे-बैठे मुझे अचानक दूसरी तरफ़ से मास्‍टर साहेब की आवाज़ सुनाई थी। वो गोपा और उसके भाई को उसी तस्‍वीरों वाली किताब से हिंदी पढ़ा रहे थे।
पढ़ाई का काम दरवाले के ठीक उस तरफ़ वाले दालान में हो रहा था।
उस दिन से लेकर अगले चार सप्‍ताह तक मैं ठीक समय पर, दरवाजे़ की ओर अपने कान लगाए, अपनी स्‍लेट और किताब से हिंदी सीखता रहा। मास्‍टर साहेब के चले जाने पर मैं घंटों वहीं,
ज़मीन पर बैठा-बैठा  अ से आम, क से कौवा लिखने-बोलने का अभ्‍यास करता।
एक दिन हालात सामन्‍य होने की ख़बर आई और मैदान से पुलिस के ख़ेमे उठ गए। सबसे पहले बाबू त्रप्ति नारायण की पत्‍नी हमारे घर में आईं फिर गोपा और उसका भाई।

दूसरे दिन मास्‍टर साहेब आए, गोपा के दालान पर चटाई बिछी। गोपा की मां ने दोनों मकानों के बीच का पांच सप्‍ताहों से बंद दरवाज़ा अपने हाथों से खोला। सबसे पहले मुझे पुकारा,
 फिर मेरी बहन को। अपने हाथों से, प्‍यार  से, गोपा की मां ने हमें पूजा का प्रसाद खिलाया।
प्रसाद लेकर मैं बाहर दालान में आया। मास्‍टर साहेब ने मुझे देखकर कहा, तुम्‍हारी पढ़ाई छूट गई। कोई बात नहीं, मैं पिछला हिस्‍सा दोबारा पढ़ा दूंगा।

मैंने मास्‍टर साहेब के पांव छुए और धीमी आवाज़ में कहा, नहीं सर, आप आज का सबक़ पढ़ाएं। मैंने दरवाज़े के उस पार से कल तक का सबक़ पढ़ लिया है।
पास खड़ी गोपा की मां, मुझे अच्‍दी तरह याद है, फूट-फूट कर रोने लगी। इस क़दर  कि मेरी मां बावरचीख़ाने से बाहर आ गईं और तक़रीबन दौड़ती-भागती गोपा के दालान पहुंचीं।
मैंने भरी-भरी आंखों से अपनी और गोपा की मां को देखा। मेरे लिए यह तय करना मुश्किल था कि इनमें से सचमुच मेरी मां कौन सी है और गोपा की कौन सी।


contd....

2 comments:

अविनाश वाचस्पति said...

मां तो मां ही होती है
भाषा चाहे सच हो
या सपनों की
इसमें नहीं होता
कोई भेद
कैसे भी लिख लो इसे
कैसे भी लो इसे भेद।

उम्मतें said...

contd....?
सोच रहा था आगे भी पढ़ लूं तो कमेन्ट करूं पर इन्तजार काफी लम्बा हो गया इसलिए फिलहाल इतना ही कहूँगा....मां अलग कहां होतीं हैं ?
और भाषायें ? क्या उनके मकसद में कोई फ़र्क है ?