इस ब्लॉग की शुरुआत किसी और पोस्ट से होनी थी। जिसमें होता आज जैसे ही एक दिन का जि़क्र.... ताजमहल, बरसात, नाटक और असमय इस दुनिया से चले गए किसी दोस्त की याद... या फिर इमली के पेड़ और उबले हुए मसालेदार भुट्टे की बात... या फिर कोई ऐसा कि़स्सा जो लंबे रास्ते पर रुकी हुई एक किलोमीटर लंबी बारिश से जुड़ा हो... ऐसा हुआ नहीं, शायद होना नहीं था इसीलिए ही। सो, सब एक उधार की तरह दर्ज हो रहा है कहीं न कहीं, फि़लहाल जो लिखा जा सकता है, वो पढि़ए-
हम ऑनलाइन थे, लेकिन निरुपमा को अपनी बात कहने के लिए फोन करना ठीक लगता है। बताया... इमरोज़ आ रहे हैं. सात तारीख़ को दोपहर में तुम भी आ जाओ। पहुंची, तो देखा पूरा घर अमृता की पेंटिंग्स और स्केचेज़ से सजा था। जैसे बारात आई हो निरुपमा के घर और दूल्हा बने बैठे हों इमरोज़। तक़रीबन पंद्रह बरस के बाद देखा था उन्हें। लगा, जैसे उनका चेहरा अमृता जैसा होता जा रहा है, प्रेम का संक्रमण ऐसा भी होता है क्या...। थोड़ी देर में ही निरुपमा दत्त का घर दोस्तों से भर गया। इमरोज़ ने नज़्म पढ़ना शुरू किया। एक के बाद एक, पढ़ते गए। हाथ में फोटोस्टेट किए पचास से ज़्यादा काग़ज़ थे। सबमें अमृता। वो उसके अलावा कुछ और सोच सकते हैं क्या, मुझे लगा नहीं और कुछ सोचना भी नहीं चाहिए उन्हें।
एक थी अमृता... कहने से पहले ही इमरोज़ टोक देते हैं। फिर दुरुस्त कराते हैं- कहो एक है अमृता। हां, उनके लिए अमृता कहीं गई ही नहीं। कहने लगे- एक तसव्वुर इतना गाढ़ा है कि उसमें किसी ऐसी हक़ीक़त का ख़याल ही नहीं कर पाता, जिसमें मैं अकेला हूं। हम उस घर में जैसे पहले रहते थे, वैसे ही अब भी रहते हैं। लोग कहते हैं, अमृता नहीं रही... मैं कहता हूं- हां, उसने जिस्म छोड़ दिया, पर साथ नहीं। ये बात कोई और कहता, तो कितनी किताबी-सी लगती। उनके मुंह से सुना, तो लगा जैसे कोई इश्कि़या दरवेश एक सच्चे कि़स्से की शुरुआत करने बैठा है। उन्होंने सुनाया- प्यार सबतों सरल इबादत है...सादे पाणी वरगी। हां, ऐसा ही तो है, बिलकुल ऐसा ही, हम कह उठते हैं। लेकिन ये सादा पानी कितनों के नसीब में है... इस पानी में कोई न कोई रंग मिलाकर ही तो देख पाते हैं हम। वो ताब ही कहां है, जो इस पानी की सादगी को झेल सके।
घर के बाहर बरसात थी और अंदर भी। नज़्मों और रूह से गिरते उन आंसुओं की, जो कइयों को भिगो रहे थे। पहली मुलाक़ात का जि़क्र हमेशा से करते आए हैं, एक बार फिर सुनाने लगे- उसे एक किताब का कवर बनवाना था। मैंने उस दिन के बाद सारे रंगों को उसी के नाम कर दिया। जहां इमरोज़ बैठे थे, ठीक पीछे एक ब्लैक एंड व्हाइट फोटो रखा था। एक रेलिंग के सहारे हाथ में हाथ पकड़े उन दोनों को देखकर मैंने पूछा, ये कहां का है। उन्होंने बताया- जब हम पहली बार घूमने निकले, तो पठानकोट बस स्टैंड पर ये फोटो खिंचवाया था। इमरोज़ को रंगों से खेलना अच्छा लगता है, लेकिन अपनी जि़ंदगी में वे बहुत सीधे तौर पर ब्लैक एंड व्हाइट को तरजीह देते हैं। यहां तक कि अपने कमरे की चादरों में भी यही रंग पसंद हैं उन्हें, जबकि अमृता के कमरे में हमेशा रंगीन चादरों को देखा गया।
जारी... अगली पोस्ट में
Friday, August 8, 2008
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20 comments:
sundar shabd-smriti...iska kram brkaraar rkhiyega...badhai...
फ़िलहाल ... अगली किस्त का इन्तज़ार. जल्दी लिखें. प्लीज़!
सुन्दर गद्य रचना!
हम सब अपने अपने इमरोज़ को ढूँढ रही हैं। परन्तु क्या इतने इमरोज़ इस संसार ने पैदा किये हैं?
घुघूतीबासूती
मैं स्थिर हूं
अपनी जगह अडोल
पूरी जाग
और खा़लिस नींद के उनींदरे में
आंख में अटका है
सदियों से एक स्वप्न
सो नहीं सकती
सुला न दे आंख उसको
जाग नहीं सकती
टूटने का डर बहुत है...
शायदा जी,
आपके ब्लॉग कथ्य की इन
पंक्तियों को पढ़कर महादेवी जी
की ये पंक्तियाँ याद आ गईं -
चिर सजग आँखें उनींदी
आज कैसा व्यस्त बना
जाग तुझको दूर जाना....
और ये पहली पोस्ट !
सच कहूँ....हकीक़त को
अगर कोई तसव्वुर इस सूरत में
मिल जाए तो यकीन मानिए हकीक़त भी
तसव्वुर की महफ़िल का फ़लसफा बन जाए.
=================================
आपने इस पेज़ को भी निराली संवेदना
की सौगात बख्श दी है....जारी रखिए.
शुक्रिया
डा.चन्द्रकुमार जैन
बहुत पढा है अम्रता इमरोज़ के बारे में...लेकिन जितनी बार पढो अच्छा लगता है...
मेरा ख़याल है कि इमरोज़ को अब तक तो बंदा बन जाना चाहिये था. कहीं कुछ गडबड ज़रूर है.
"इस ब्लॉग की शुरुआत किसी और पोस्ट से होनी थी।"
लेकिन क्यों ? इस से बेहतर और क्या शुरुआत ?
बहुत खूब है ... शुरुआत ! जारी रहे .... "सखी" की याद दिलाती है .... अमृता !!
अच्छा लगा आपको पढ़ना. अगली कड़ी का इन्तजार है.
बहुत अच्छी पोस्ट, पढ़कर बहुत कुछ दिमाग में और आंखों के आगे घूम गया। बहुत ही सुंदर पोस्ट। आप को या यूं कहूं कि आपकी पोस्ट को पढ़कर बहुत अच्छा लगा। सही शब्दों का चयन, सही जगह पर ठहराव और अब अगली कड़ी का इंतजार।
प्यास लगनी शुरू हुई... प्याला आया भी होंठ तक कि छीन लिया गया...ये पोस्ट ऐसी ही है... इसे बगैर खत्म किए छोड़ा ही नहीं जाना चाहिए था... मुझे इसे किस्तवार पेश करने के फैसले पर सख्त ऐतराज है... एक सुंदर जिंदगी के हमसफर रहे शख्स के मुंह से उस जिंदगी के बारे में जानने की तमन्ना अधूरी ही छूट गई... अगली किस्त तक...
शुक्रिया, बहुत सुंदर - आगे की बात सुनने के इंतज़ार में बैठा हूँ...
अमृत-इमरोज के बारे में-
पढ़ कर एक सुखद अनुभूति हुई.
आगे का इंतज़ार है.
aapki duniyaa bahut kheenchti hai shayadaa ji..aur kahiye..besabri se intzaar rahegaa
एक अच्छी पोस्ट। एक अच्छी शुरुआत। बधाई।
बहुत अच्छा लिखा है आपने।
कभी सोचता हूँ तो हैरानी होती है.....क्या अमृता और इमरोज़ इसी दुनिया के बाशिंदे थे...??? शायद नहीं...इस दुनिया में ऐसे लोग कैसे हो सकते हैं??? जो इस कदर खूबसूरत हों...
नीरज
शायदा आपा,
जैसा की एक सामान्य सायकलॉजी होती है किसी ब्लॉग पर जाते ही इस पोस्ट के चित्र को ही पहले देखा . आप कहें जिसकी क़सम खा सकता हूँ इमरोज़ की तस्वीर देखते ही मन ने कहा अरे ये तो अमृता होते जा रहे हैं.किसी एक जीव के बारे में कहीं बरसों पहले पढ़ा था कि वह पत्तों के बीच रह कर वैसे ही रंग का यानी हरा हो जाता है.
एक बात मन में बरसों से थी...आज कह ही डालता हूँ.....इमरोज़-अमृता को पढ़ना,सराहना आसाँ है....वैसा जीना नामुमकिन ....ये समाज,ये रिवायते,ये बंदिशें,ये दकियानूसी सोचें....ये सोचते सोचते ही एक उम्र गुज़र जाएगी.
क्या ख़ूब लिखा आपने ...उम्मीद है कि आप अपनी तमाम मसरूफ़ियात में लेखन को भी शुमार कर लेंगी...आदतन.अल्ला हाफ़िज़.
shayada bahut achcha likha hai....
स्थिर हूं
अपनी जगह अडोल
पूरी जाग
और खा़लिस नींद के उनींदरे में
आंख में अटका है
सदियों से एक स्वप्न
सो नहीं सकती
सुला न दे आंख उसको
जाग नहीं सकती
टूटने का डर बहुत है...
Manvinder Meerut
jahan imroz amrita hon,wahan main na pahunchun,mumkin nahi
bahut achha laga apko padhna
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