Sunday, August 10, 2008

इस बार तू पहले ब्याह मत करना

पिछली पोस्‍ट से आगे

सच को दूर से देखो तो उस पर सहज ही विश्वास हो जाता है। सामने आकर खड़ा हो जाए तो उसे छूकर, परख लेने का जी होता है। शायद हम तसल्ली कर लेना चाहते हैं कि सच को छूना ऐसा होता है, उसे जान लेना ऐसा होता है। अमृता-इमरोज़ का प्रेम ऐसा सच है जो पूरा का पूरा उजागर है। कहीं कुछ छिपा हुआ नहीं दिखता... तो भी इमरोज़ को सामने पाकर इच्छा होती है जान लेने कि फलां बात कैसे शुरू हुई थी, फलां वक़्त क्या गुज़री थी उनपर। यही वजह थी दोपहर से लेकर शाम तक इमरोज अमृता की ही बातें करते रहे। ये सारी बातें वही थीं जो हम अब तक कई बार पढ़ चुके थे, सुन चुके थे।

इमरोज़ सुनाने लगे- उड़दे क़ाग़ज़ ते मैं उसनूं नज्मां लिखदा रहंदा हां, जदों वी कोई पंछी आके मेरे बनेरे ते आ बैठदा, मैं जवाब पढ़ लेंदा हां....। नज़्मों का अमृता तक जाना और उसके जवाब का आ जाना... ये बात शायद किसी के लिए एक ख़याल भर हो सकती है, लेकिन इमरोज़ के लिए उतना ही सच है, जितना उनके आंगन में खिले वो हरे बूटे जिन्हें पानी देते हुए वे अक्सर 'बरकते...' कहकर अमृता को पुकारा करते थे। उनमें से कुछ पौधों ने उन्हें साथ देखा ही होगा न, और उस बनेरे ने भी... जिस पर आकर पंछी बैठते हैं। मुझे लगा कि उन्हें साथ देखकर ही किसी दिन पंछी और बनेरे के बीच तय हुआ होगा इस संदेस के ले जाने और लाने का मामला।

इमरोज़ उस घर में रहते हैं जहां अमृता का परिवार है। जब मैंने पहली बार वो घर देखा तो ऊपरी तरफ़ कुछ विदेशी लड़कियां किराए पर रहती थीं। और नीचे की जगह में 'नागमणि' का दफ़्तर था। अब वहां क्या है...? इमरोज़ बताते हैं- अब नीचे भी किराए पर दे दी है जगह। अपनी जेब से इमरोज़ काग़ज़ का पैकेट सा निकालते हैं। पता चला वे चमड़े का बटुवा नहीं रखते। एक काग़ज के लिफ़ाफे़ में पैसे रखकर उस पर कुछ टेलीफोन नंबर लिखते हैं जिन्हें इमरजेंसी में कॉल किया जा सके। ये नंबर उनके हैं जो अमृता के बच्चे हैं। इमरोज़ और अमृता के नहीं। इतना साथ, इतना प्यार, इतना समर्पण, तो इन दोनों के बच्चे क्यों नहीं.....? इमरोज़ बताते हैं- अमृता तो पहले ही दो बच्चों की मां थी। हमने मिलकर तय किया था कि इनके अलावा हम और कुछ नहीं सोचेंगे। लेकिन क्या तय कर लेना भर काफ़ी था, अपनी इच्छाओं के आगे...? उन्होंने कहा- काफ़ी नहीं था पर हमने इसे मुमकिन कर लिया था। एक बार मैंने उसे कहा- अगली बार जब मिलेंगे, तो हम अपने बच्चे पैदा करेंगे... बस इस बार तू मुझसे पहले ही ब्याह मत कर लेना। अमृता ने जाते-जाते भी मुझसे यही कहा है न- मैं तैनूं फेर मिलांगीं...





इमरोज़ उस तस्वीर को देख रहे थे जिसमें अमृता उनके हाथ में खाने की थाली पकड़ा रही हैं। तस्वीर का सच उनके चेहरे पर उतर कर आ बैठा था। मानो कह रहा हो, कितने मूर्ख हो तुम सब, जो इस रिश्ते को परिभाषा में बांधने की बात करते हो। इस तस्वीर को देखो और दुनिया की किसी भी पतिव्रता के चेहरे से उसका मिलान कर लो, कहीं भी कोई भाव को उतार पाएगी क्या, जो अम्रता की आंखों में नजर आ रहा है। अमृता दाएं हाथ से थाली पकड़ा रही हैं और इमरोज़ दोनों हाथों से उसे स्वीकार कर रहे हैं। ये महज तस्वीर नहीं है, इसमें एक फ़लसफ़ा नज़र आ रहा है। किसी को खुद को सौंप देने का, किसी का उसे दोनों हाथों से स्वीकार कर लेने का, हमेशा-हमेशा के लिए। ग़ौर से देखेंगे, तो आप भी पाएंगे कि वहां रखे पतीले और चमचे से लेकर हर छोटी-बड़ी चीज़ बुलंद आवाज़ में बता रही है कि यहां किसी ऐसे सीमेंट की ज़रूरत नहीं है, जो इन दोनों को पक्के जोड़ में जकड़ दे। न ही किसी ऐसी भीड़ की ज़रूरत, जिसकी गवाही में इन दोनों को बताना पड़े कि हां हमें साथ रहना है अब। एक वक़्त की रोटी जब इस तरह साथ खाई जाती है, तो फिर जन्म भर क्या किसी और थाली से खाने की भूख रह जाती होगी....। इमरोज़ शायद इसीलिए कभी किसी और ठौर पर रोटी खाने नहीं गए होंगे।

अगली पोस्ट में जारी....

9 comments:

anurag vats said...

कितने मूर्ख हो तुम सब, जो इस रिश्ते को परिभाषा में बांधने की बात करते हो। इस तस्वीर को देखो और दुनिया की किसी भी पतिव्रता के चेहरे से उसका मिलान कर लो, कहीं भी कोई भाव को उतार पाएगी क्या...

Nitish Raj said...

कई बार सोचता था कि इनका रिश्ता क्या था। आज इस तस्वीर ने बता दिया कि इन दोनों का रिश्ता इन सबसे ऊपर है। धन्यवाद ...इंतजार में।

Udan Tashtari said...

अच्छा लगा पढ़कर.

पारुल "पुखराज" said...

एक वक़्त की रोटी जब इस तरह साथ खाई जाती है, तो फिर जन्म भर क्या किसी और थाली से खाने की भूख रह जाती होगी....। :):)

नीरज गोस्वामी said...

इमरोज का कथन की"उड़दे क़ाग़ज़ ते मैं उसनूं नज्मां लिखदा रहंदा हां, जदों वी कोई पंछी आके मेरे बनेरे ते आ बैठदा, मैं जवाब पढ़ लेंदा हां...." और आप का लिखा "....एक वक़्त की रोटी जब इस तरह साथ खाई जाती है, तो फिर जन्म भर क्या किसी और थाली से खाने की भूख रह जाती होगी...." पढ़ कर मन किसी और ही लोक की सैर को निकल गया है...
बहुत ही दिल से लिखी दिल वालों की बात है आप की इस पोस्ट में...वाह...
नीरज

डॉ .अनुराग said...

खूब पढ़ा है उन्हें भी ...आपका अंदाजे बयाँ पढने आये थे बस......

लावण्यम्` ~ अन्तर्मन्` said...

खुदा,
ईश्वर,
मोहोब्बत
और हुस्न
इनके बारे मेँ कित्ता भी लिखो,
लगता है,
ठीक से लिखा ही नहीँ !
पर यकीन मानिये शायदा जी,
बात लफ्ज़ोँके गिलाफ से उतर कर
रुह की तरह रोशन हो गई है -
- लावण्या

Deep Jagdeep said...

कभी कोई अमृता मिले तो मुझे जरुर बताईयेगा, फिलहाल इमरोज से मुलाकात करवाने का शुक्रिया।

प्रदीप मानोरिया said...

बहुत उम्दा ख्यालात ज़ाहिर किए हैं आपने इन लाइनों में
आपसे गुजारिश है मेरे ब्लॉग पर भी दस्तक दें
http:/manoria.blogspot.com and kanjiswami.blog.co.in
आपको मेरी ग़ज़लों का भी दीदार हो सकेगा