Sunday, October 19, 2008
एक सिगरेट देना कामरेड...
अंधेरे से डर लगता है....। अर्थ की गहराई समझ आने पर डर भी गहरा होता जाता है। ईमरे नॉज को जेल में बंद कर दिया गया। उसका चश्मा और पेन बाहर ही क़ब्जे़ में ले लिए गए थे। वो अकेला है, बहुत ऊंची छत के ऊपर वाले रोशनदान को भी बंद कर दिया गया...रोशनी अंदर न जाए...हवा अंदर न जाए...। क़ब्ज़ा हो चुका है। वहां उतनी ही हवा है जितनी पहले से थी। बार-बार फे़फ़ड़ों तक जाएगी और वापस आएगी। लेकिन ईमरे को चश्मे के बिना दिखता नहीं....वो अंधेरे में है...उसे सांस नही आती... मैं भी अंधेरे में हूं, मुझे भी सांस नहीं आती। इनहेल करती हूं।
द मैन अनबरिड...127 मिनट की फि़ल्म शुरू होने के कुछ देर बाद ही मुझे घुटन होती है....बुरा लगता है। सांस लेना जब अपने हाथ में न हो तो कितनी बेबसी लग सकती है...फि़ल्म पर ध्यान देती हूं।
शुरू में ही एक सीन में आवाज़ आती है...एक सिगरेट देना कामरेड...एक दूसरे के मुंह पर धुंआ उड़ा सकने और अपने अंदर से घुटन को बाहर लाकर पटक सकने का विजयी भाव याद आता है जो अक्सर सिगरेट पीने वालों के चेहरे पर देखती हूं। ईमरे के पास सिगरेट नहीं है, खाना भी नहीं है, ज़हरीले मच्छर और सीलन भरी एक कोठरी का अकेलापन है। लेकिन उसकी सांस बहुत भारी है...जैसे चश्मा न होना उसकी सांस को बाधित कर रहा है, उसे भी रोशनी से ही सांस मिलती है मेरी तरह....एक और बार इनहेल करती हूं।
फि़ल्म फ़लैशबैक में है....ब्लैक एंड व्हाइट...। यहां भी अंधेरा प्रॉब्लम है...फिर घुटन। ईमरे को चश्मा वापस मिल जाता है, कामरेड को रहम आ गया था, अब वह उस कोठरी को देख पा रहा है अच्छी तरह। एक क़ाग़ज और पेन मांग रहा है...लिखने के लिए...न लिख पाना भी घुटन देता है, कोई सुनता नहीं उसकी बात...मोटी लोहे की दीवारें...मैं उसकी जगह जाकर खड़ी हो जाती हूं...मेरी आवाज़ सुन रहा है क्या कोई....उसके हाथ दीवारों पर पटकते रहने से लहुलुहान हो गए हैं...अपने हाथ देखती हूं..;साफ़ हैं कहीं कुछ नहीं लगा..;बस अंधेरा बढ़ रहा है...एक और बार इनहेलर लूं क्या...।
क्राइम अगेंस्ट स्टेट....ट्रायल शुरू हो गया....एक अकेली आवाज़ कितनी ही ताक़तवर हो, दबा दी जाती है झुंड के द्वारा। दोष साबित कर दिया जाता है। ईमरे अपने डॉक्टर से पूछता है मैं कैसे मरूंगा...वो बताता है-तुम्हें तकलीफ़ नहीं होगी....ज़रा सी देर का काम है। ईमरे अपने घरवालों के नाम पत्र देता है...अक्सर आत्मत्या से पहले ऐसा ही करते हैं सब....। क्यों करते हैं..सवाल मेरा ध्यान हटा देता है एक पल के लिए....खु़द ही जवाब भी देती हूं-जो बातें जीते जी नहीं सुनी जातीं शायद उन्हें ज़ोर से सुनाना ही है ख़त लिखना। फिर से फि़ल्म देखती हूं....फांसी का सीन....घुटन ज़्यादा होती है, कई चीजें़ याद आती हैं। सद़दाम हुसैन की कवरेज, फांसी से पहले और बाद के फोटो...लटकती हुई गर्दन...मुझे सांस लेना भारी हो रहा है, लगातार इनहेल करती हूं...।
ईमरे को शांति से फांसी दी जा रही है..मुंह पर काला कपड़ा डालने से पहले उसका चश्मा उतार लिया गया...उसकी घुटन का अंदाजा लगाना चाहती हूं....क्या चश्मा लगाए हुए ही फांसी नहीं दी जा सकती...? उसके हाथों में चश्मा है....मानों वो रोशनी को हाथ में रखना चाह रहा है..देर नहीं लगती फंदा खिंचने में..;चश्मा हाथ से गिर जाता है, दूसरे में हाथ में पकडी़ हुई वह थैलिया भी जिसमें उसके अपने घर की मिट़टी थी... ईमरे मरना नहीं चाहता था....हम भी कहां मरना चाहते हैं...।
क्या ईमरे को मरने से पहले एक सिगरेट नहीं दी जा सकती थी....घुटन कुछ कम हो जाती....मेरा मन बहुत घुट रहा है...एक सिगरेट मिलेगी क्या....? नहीं ऐसे ही कहा-पी नहीं सकती, सांस की दिक़्क़त है न...। कामरेड दुनिया में इतनी घुटन क्यों है कि सिगरेट की ज़रूरत महसूस होने लगे....कुछ करो...यार .?
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11 comments:
आख़िर इस घुटन से बाहर निकलना ही होगा .......
खूब ....
सुंदर चित्रण
गज़ब की पोस्ट...अन्दर तक हिला देने की ताकत वाली...बहुत से सवाल हैं जिनका जवाब नहीं मिलता....
नीरज
बहुत सुंदर.हम जिस समय में जी रहे हैं, यह हमारे समय की त्रासदी है. न जी सकने लायक, न मर सकने लायक...आहिस्ता-आहिस्ता खत्म होने को अभिशप्त...!
www.raviwar.com
aakhir kab tak!!!!!
कैसे हैं आप ?
ज़रूर पढिये,इक अपील!
मुसलमान जज्बाती होना छोडें
http://shahroz-ka-rachna-sansaar.blogspot.com/2008/10/blog-post_18.html
अपनी राय भी दें.
bahut khub
compliments!!! it's exellent narration.
घुटन तो शिव कुमार को भी थी, वो भी भागना चाहता था, खैर सिगरेट आप भी नहीं पीती और मैं भी नहीं, लेकिन जब घुटन महसूस हो तो तलब लगती है। मुझे जब तलब लगती है तो नो स्मोकिंग फिल्म के गाने सुनते हूं, खास कर कश लगा..., फूंक दे... और ऐश ट्रे...। इस पोस्ट को पढ़ने के बाद भी सुन रहा हूं। आप भी सुन लिजिए शायद आप को फायदा हो। गुलज़ार ने जिंदगी की सिगरेट का फलसफा खूब बयान किया है, इन गीतों में, तो आ कामरेड, मेरे संग कश लगा...
अच्छे शब्द-शिल्प के लिए बधाई।
पर कथ्य के बारे में कुछ कहना है। यह सिर्फ इमरे की घुटन को प्रस्तुत करता है और पाठक की संवेदना सहज ही इमरे के पक्ष में हो जाती है। हंगरी के इस पूर्व शासक का इतिहास भी बता दिया होता तो पाठक को अपना पक्ष चुनने में सहूलियत होती।
एक सवाल सिगरेट के तर्क पर भी : क्या शहीद भगत सिंह को भी फांसी से पहले सिगरेट की तलब लगी थी?
@अरुण जी,
मैंने सिर्फ़ घुटन का पक्ष चुना है...उसके कारणों और जुड़े इतिहास की व्याख्या करें तो बहुत सारी चीज़ें सामने आ सकती हैं जो उस घुटन को डायल्यूट कर सकती हैं। एक सिगरेट इसे ज़रा देर के लिए हटा सकती है क्या....मेरे मन में यह सवाल था, पोस्ट में भी वही सामने आया। बिल्कुल ज़रूरी नहीं है कि दुनिया के सारे घुटते हुए लोगों को सिगरेट की तलब होती ही हो, यह तो एक सतही रिलीफ़ वाला मसला है जो नज़र के फेर से जुड़ा है। सच तो यही है सिगरेट और ज़्यादा घुटन का कारण बन सकती है। सिगरेट पीने वाले और न पीने वाले भी इसे जानते ही हैं। बहरहाल ईमरे का इतिहास दिया जा सकता था, लेकिन लगा कि पोस्ट लंबी होकर और नीरस न हो जाए...।
great ...
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