बचपन अपने साथ बहुत सारी चीजें ले जाता है, जैसे ये कविता-
हठकर बैठा चांद एक दिन माता यह बोला,
सिलवा दे मुझे भी ऊन का मोटा एक
झिंगोला...
.अगर किसी के पास है पूरी कविता तो प्लीज भेज दें, काफी दिन से मैं इसे ढूंढ रही हूं।
मुझे सिर्फ इतनी याद है..
हठकर बैठा चांद एक दिन माता से यह बोला
सिलवा दे मुझे भी ऊन का मोटा एक झिंगोला
सन-सन चलती हवा रात भ्ार जाड़े में मरता हूं
ठिठुर ठिठुर कर किसी तरह से यात्रा पूरी करता हूं
यह कविता यूपी की प्राइमरी क्लासों में लगी थी कभी, आज लगती है या नहीं, पता नहीं। ऐसी ही एक कविता थी
अम्मा जरा देख तो ऊपर चले आ रहे हैं बादल,
ये भी मुझे पिछले दिनों ब्लॉग पर ही देखने को मिली। उम्मीद है चांद वाली भी मिल ही जाएगी।
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17 comments:
पढ़ी तो जरुर है याद नहीं.
हमारी प्रिय तो है
यह कदम्ब का पेड़ अगर माँ होता यमुना तीरे
क्या अजीब बात है कि कल-परसों हम अपने सहकर्मियों के साथ तीसरी-चौथी कक्षा की कविताओं का ज़िक्र कर रहे थे- हटकर बैठा चाँ द एक दिन...
-यदि होता मैं किन्नर नरेश...
-उठोलाल अब आँखे खोलो...
-एक दिन छिड़ गयी बहस हवा उअर सूरज में
अकुन अधिक बलवान है हम में तुम में...
अब तो पता नहीं पर हमें आज भी याद आती हैं।
कविता बचपन में पढी है मगर अब याद नहीं आ रही है . तलाश करना पड़ेगी प्रायमरी स्कूल की किताबो में .....
आभार
हां हां पढ़ी है
प्रेमलता पांडे ने जिन जिन कविताओं का जिक्र किया है उन सभी को पढ़ा है हमने
लेकिन
अब तो चांद झिंगोला सिलवाने के लिए नहीं, बल्कि धरतीवासियों से रक्षा की गुहार लगा रहा है। अमेरिका ने तो कल परसों ही टक्कर मारी है उसे। वहां कोलोनाइजर पहुंचने शुरू हो गये हैं। प्लाट कटिंग अभियान शुरू होने वाला है। पढि़ये एक कविता http://chokhat.blogspot.com/लिंक पर हां हां चांद की गुहार है उसमें।
हठ कर बैठा चाँद एक दिन माता से यह बोला
सिलवा दो माँ मुझे ऊन का मोटा एक झिंगोला
सन सन चलती हवा रात भर जाडे में मरता हूँ
ठिठुर ठिठुर कर किसी तरह यात्रा पूरी करता हूँ
आसमान का सफर और यह मौसम है जाडे का
न हो अगर तो ला दो मुझको कुर्ता ही भाडे का
बच्चे की सुन बात कहा माता ने अरे सलोने
कुशल करे भगवान लगे मत तुझको जादू टोने
जाडे की तो बात ठीक है पर मै तो डरती हूँ
एक नाप में कभी नहीं तुझको देखा करती हूँ
कभी एक अंगुल भर चौडा कभी एक फुट मोटा
बडा किसी दिन हो जाता है और किसी दिन छोटा
घटता बढता रोज़ किसी दिन ऐसा भी करता है
नहीं किसी की भी आँखों को दिखलाई पडता है
अब तू ही यह बता नाप तेरा किस रोज़ लिवायें?
सी दें एक झिंगोला जो हर रोज़ बदन में आयें?
आपने सवाल छेड़ा और कविता भी आ गई। आप दोनों का ही आभार। कितनी बार मै अपनी बेटी से संवाद करते हुए सिर्फ़ यही कहते हुए झल्लाता कि वो क्या तो कविता थी चांद के बिम्ब वाली!!! मेरी स्म्रतियों में तो वो झगोला ही आकार लेता था और उसमें दुबका चांद जो बहुत लुंज-पुंज सा दिखाई देता कई बार।
बडा किसी दिन हो जाता है और किसी दिन छोटा
घटता बढता रोज़ किसी दिन ऐसा भी करता है
नहीं किसी की भी आँखों को दिखलाई पडता है
अब तू ही यह बता नाप तेरा किस रोज़ लिवायें?
सी दें एक झिंगोला जो हर रोज़ बदन में आयें?
पुन: आभार।
शुक्रिया अनिल जी आपने तलाश पूरी कर दी। और आप सभी का शुक्रिया जो यहां तक इस तलाश में शामिल होने आए।
इसी बहाने एक प्यारी-सी कविता पढने को मिल गई। आप दोनों का धन्यवाद।
cho chweet,bahut hi pyari si kavita hai,padhwane ke liye shukran
हम्म्म्म ......... इस बहाने हमने भी छुटपन के चांद को देख लिया
अरे शायदाजी! ये लीजिये कविता का लिंक! कविता भी कापी करके नीचे दे रहे हैं। कवि हैं रामधारी सिंह ’दिनकर’!
हठ कर बैठा चांद एक दिन, माता से यह बोला
सिलवा दो माँ मुझे ऊन का मोटा एक झिंगोला
सन-सन चलती हवा रात भर जाड़े से मरता हूँ
ठिठुर-ठिठुर कर किसी तरह यात्रा पूरी करता हूँ
आसमान का सफर और यह मौसम है जाड़े का
न हो अगर तो ला दो कुर्ता ही को भाड़े का
बच्चे की सुन बात, कहा माता ने 'अरे सलोने`
कुशल करे भगवान, लगे मत तुझको जादू टोने
जाड़े की तो बात ठीक है, पर मैं तो डरती हूँ
एक नाप में कभी नहीं तुझको देखा करती हूँ
कभी एक अंगुल भर चौड़ा, कभी एक फुट मोटा
बड़ा किसी दिन हो जाता है, और किसी दिन छोटा
घटता-बढ़ता रोज, किसी दिन ऐसा भी करता है
नहीं किसी की भी आँखों को दिखलाई पड़ता है
अब तू ही ये बता, नाप तेरी किस रोज लिवायें
सी दे एक झिंगोला जो हर रोज बदन में आये!
आपका शुक्रिया अनूप जी, आप सभी का बहुत-बहुत शुक्रिया।
हम सब चान्द को अपने अपने ढंग से देखते है .. दिनकर जी भी आप भी और मै भी ।
दीपों सी जगमगाती आपकी जिन्दगी रहे
सुख सरिता नित घर आंगन में बहे
बचपन अपने साथ बहुत सारी चीजें ले जाता है, जैसे ये कविता-
बचपन
किसी का भी हो
सलोना होता है
मगर यह
वक्त के हाथ से छूटा
मिट्टी का खिलौना होता है
जिसे पाकर
हर कोई हँसता है
जिसे खोकर हर कोई रोता है
ऐसा तो यहां
बार-बार होता है
यह कविता-http://katha-kavita.blogspot.com/
श्याम सखा श्याम
http://gazalkbahane.blogspot.com/
शायदा , आपने कई साथियों को बचपन याद दिला दिया और पूरी कविता भी ला कर रख दी .....बहुत अच्छा लगा .......और एक बात .....ब्लॉग पर जरा जल्दी जल्दी आया करो .....
शायदा जी और अनूप जी को धन्यवाद, और धन्यवाद क्यों इसके लिए मेरे ब्लाग पर आये।
सुन्दर
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