Thursday, March 11, 2010

यही होता है, तो आखि़र यही होता क्‍यों है ...

मुझे लगा था,  वो जा चुकी है...हमेशा के लिए।
इतने दिनों के मौन ने काफी तसल्‍ली दी थी, और मैंने इस बीच कई कवियों को पूरा पढ़ डाला। इस बात को तक़रीबन भूलते हुए कि मैं अब भी उससे उतना ही प्रेम करता हूं, पहले दिन जितना। लेकिन इसके बावजूद मैं कह सकता था ....प्रेम, सचमुच मुझे मालूम नहीं।

प्रेम से मुक्ति का अहसास, ओह-उसका चला जाना कितना सुकून दे सकता है। कुर्सी पर सिर टिकाकर आंख बंद करता हूं... और वो अचानक नमूदार होकर कहती है-
चलो, ज़रा प्‍यार भरी बातें करो मुझसे...। रात भर बुरे सपनों ने डराए रखा। मेरा मूड ठीक करो।
कहे चली जाती है-

माथा चूमने पर
मिट जाती हैं सब चिन्ताएँ 


चलो मेरा माथा चूमो....

आँखें चूमने पर
दूर हो जाता है निद्रा-रोग-

चलो मेरी आंखें चूमो

होंठ चूमने पर
बुझ जाती है प्यास-

चलो मेरे होंठ चूमो

मैं बंद आंख और खुले कान से पूरी बात सुन रहा हूं। समझ सकता हूं कि इस वक्‍़त उसके चेहरे पर वही कहानी होगी जिससे मैं सबसे ज्‍़यादा डरता हूं। शर्तिया कह सकता हूं कि इसके ठीक तीन मिनट बाद वो साजि़शाना हंसी हंसेगी।
मैं न कह दूंगा और वो अपनी बद-दुआओं का झोला मेरे मुंह पर खोल देगी। मेरी सात पुश्‍तें पनाह मांगेगी और वो बिना थके बके चली जाएगी।
यही होता है हमेशा। इस बार भी प्‍यार भरी बातें नहीं कर पाया। सपाट जवाब देते हुए मैंने कहा-चुप रहो और जाकर अपना काम करो, हालांकि उसके ढीठ होने के हज़ार कि़स्‍से मेरे दिमाग़ में दस्‍तक देते हुए कह रहे थे-निपटा दो यार, दो चार बातें कहो और कल्‍टी मार लो।

उससे कुछ देर पहले मैं पढ़ रहा था...
होल्‍ड मी...कम्‍फर्ट मी
....................
होल्‍ड मी टु योर ब्रेस्‍ट,
मुझे पता है, उसके फरिश्‍ते भी नहीं जान सकते कि सादी युसुफ कौन हुए, कहां से गुज़रे और क्‍यों लिख गए ऐसी कविताएं। इसके आने से ठीक पहले मैं उस दोस्‍त के फोन का इंतज़ार कर रहा था जो मुझे एक लंबी कविता सुनाने वाला है।
वो फिर कहती है-सुना नहीं तुमने...किस मी नाउ...खराब ख्‍वाबों के बाद, भयानक दुख में हूं।

ओह...तो कांटा यहां गड़ा है, फिर से किसी ऐसे सपने का सीन सुनना होगा जिसमें एक नवजात की मौत या उसके गले की नसें खिंच जाने तक की भूख का मामला होगा, या पानी में डूबती एक बच्‍ची की कहानी। ये भी हो सकता है कि वो किसी अजन्‍मे बच्‍चे का जन्‍मदिन न मना सकने पर मेरा गिरेबान पकड़ ले। लेकिन, ऐसा कुछ सुनने के मूड में बिल्‍कुल नहीं हूं मैं। साफ कहता हूं-प्‍लीज, गो एंड लीव मी अलोन।
वो मुड़ रही है, मुझे लगता है चली जाएगी।  दम साधे उसके बिना मुड़कर चले जाने का इंतजार करता हूं।
जारी:::::


नोट-बोल्‍ड लाइनें मरीना की कविता से। photo google.

8 comments:

प्रवीण शुक्ल (प्रार्थी) said...

बहुत बेहतरीन पोस्ट यादो के आगोशो में डुबाती हुई ,,,
सादर
प्रवीण पथिक
9971969084

M VERMA said...

प्रेम से मुक्ति का अहसास, ओह-उसका चला जाना कितना सुकून दे सकता है।'

प्रेम से मुक्ति --
इस मुक्ति की परिभाषा क्या है ---

आँखें चूमने पर
दूर हो जाता है निद्रा-रोग-
चलो मेरी आंखें चूमो

मनीषा पांडे said...

तुम हर बार अपनी कलम से चकित करती हो। किसका है ये जादू ? तुम्‍हारा या तुम्‍हारी कलम का। इस दुष्‍ट लड़की की सलाह मानो और लिखो। प्‍लीज।

डॉ .अनुराग said...

अजीब इत्तिफाक है आज चार मेरे पसंदीदा लोग आये .....ओर कंप्यूटर इतरा उठा है

सागर said...

ओह आपकी हर पोस्ट पढता हूँ PD ने जीमेल पर यह buzz किया था... बेहतरीन पोस्ट पर यह शिकायत दिए जा रहा हूँ की आप अक्सर भी नहीं लिखती...

Nishant said...

पहली बार आया...और मुझे अच्छा लगा आकर...मैं हर बार डरता हूँ..कि भावना और जोश जिसमें भावना गहरी होने पर अमूर्त्य होने की हद पर गूंजती है .. और जोश...अराजक होने की हद तक झूमता है....इनके बीच का रास्ता मैं खुद ढूंढ़ रहा हूँ....और ये समस्या मेरे साथ भी रही है...खैर...उत्सुकता से यहाँ आना होगा...

Nishant kaushik
www.taaham.blogspot.com

Pankaj Upadhyay (पंकज उपाध्याय) said...

मै सोच रहा हू....

ऎसे जज्बात अपने ही काफ़ी करीब देखे है मैने..
पहली बार पढा आपको, फ़ीड से जोड लिया है.. आता रहूगा..

अविनाश वाचस्पति said...

आज दिनांक 7 जून 2010 के दैनिक जनसत्‍ता में संपादकीय पेज 6 पर समांतर स्‍तंभ में आपकी यह पोस्‍ट आखिर यही क्‍यों शीर्षक से प्रकाशित हुई है, बधाई।
इसका स्‍कैनबिम्‍ब आप इस लिंक http://blogonprint.blogspot.com/ पर पा सकती हैं।